आस्था के सिंहस्थ में प्राकृतिक आपदा

उज्जैन सिंहस्थ में हादसा-

प्रमोद भार्गव
अभी केरल के पुत्तिंगल मंदिर दुर्घटना की स्मृति घूमिल भी नहीं पड़ पाई थी कि उज्जैन के महाकुंभ मेले में अचानक आई प्राकृतिक आपदा ने कहर बरपा दिया। पुत्तिंगल में 11 अप्रैल 2016 को मंदिर में आतिशबाजी के प्रदर्शनके दौरान लगी आग से 110 लोगों की मौत हो गई थी और 383 लोग घायल हुए थे। उज्जैन में चल रहे सिंहस्थ महाकुंभ के दौरान अचानक आई आंधी और तेज बारिश के चलते 7 लोगों की मौत हो गई और 150 लोग घायल हैं। आंधी से 250 तंबू और कई पेड़ पलभर में धराशायी हो गए। तंबुओं के गिरने का सिलसिला षुरू होते ही जो लोग पंडालों में थे,वे बाहर की ओर भागे और जो बाहर थे,वे बारिश और ओलों की मार से बचने के लिए पंडालों में षरण के लिए दौड़े। इस भगदड़ में 6 लोगों की मौत हुई और एक व्यक्ति की बिजली गिरने से मौत हो गई। ये पंडाल विशाल और भव्य बनाए गए थे। इनके बनाने में लोहे के टीन,पाईप और वजनदार वल्लियों का उपयोग किया गया था। इन्हीं के नीचे दबकर ज्यादातर लोग मरे व घायल हुए। उज्जैन सिंहस्थ में आधुनिक तकनीक और प्रौद्योगिकी का जनसुरक्षा व निगरानी के लिए बड़े पैमाने पर इस्तेमाल किया गया था,लेकिन बिजली गुल हो जाने से सारे तकनीकि नेटवर्क ध्वस्त हो गए, यहां तक की हेल्पलाइनों ने भी काम करना बंद कर दिया। जबकि तबाही का तांडव महज 1 घंटे चला और चाक-चौबंद व्यवस्थाओं का दावा पूरे मेले के लिए किया गया था।
उज्जैन सिंहस्थ का जितना प्रचार-प्रसार मध्यप्रदेश के मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान ने किया है,उतना शायद पहले किसी अन्य कुंभ का नहीं हुआ। प्रचार के जरिए पांच करोड़ लोगों को मुख्यमंत्री ने समाचार माध्यमों से आमंत्रित किया,जिसमें कई करोड़ रुपए फूंके गए। उज्जैन में सिंहस्थ के लिए किए विकास पर 300 करोड़ रुपए खर्च किए गए। पुलिस विभाग को सुरक्षा व्यवस्था और 650 सीसीटीवी कैमरे लगाने के लिए 297 करोड़ रुपए अलग से दिए गए थे। लेकिन 1 घंटे की बारिश में ही सीवरेज, सुरक्षा और निगरानी व्यवस्थाएं ठप हो गईं। नालों का पानी ओवरफ्लो होकर शिप्रा में जा मिला। पंडालों और अवास शिविरों में भी पानी जा घुसा। रास्ते घुटनों-घुटनों पानी और कीचड़ से भर गए। पंडालों की अस्थाई बिजली व्यवस्था ने करंट का भय फैलाने का काम किया। इस कारण आम श्रद्धालु तो छोड़िए,साधनारत साधु-संत भी प्राण बचाने के लिए भी भाग खड़े हुए।
हमारे देश में धर्म-लाभ कमाने की प्रकृति से जुड़े हादसे अब लगातार देखने में आ रहे हैं। पिछले साल आंध्र प्रदेश के राजमुंदरी में पुश्करालू उत्सव में मची भगदड़ से 13 महिलाओं समेत 29 लोग मारे गए थे। इसी क्रम में मध्यप्रदेश के सतना जिले के प्रसिद्ध तीर्थस्थल चित्रकूट में कामतानाथ मंदिर की परिक्रमा करते हुए अचानक भीड में भगदड़ मच जाने से 10 श्रृद्धालुओं की मौत हो गई थी। मध्यप्रदेश में ही दतिया जिले के प्रसिद्ध रतनगढ़ माता मंदिर में नवमीं पूजा के दौरान आस्था के सैलाब में पुल टूटने की अफवाह से मची भगदड़ से 115 लोग मारे गए थे। इसी मंदिर में 3 अक्टूबर 2006 को शारदेय नवरात्रि की पूजा के दौरान 49 श्रद्धालू मारे गए थे। फरवरी 2013 में इलाहबाद के कुंभ मेले में बड़ा हादसा हुआ था, जिसमें 36 लोग मारे गए थे। मथुरा के बरसाना और देवघर के श्री ठाकुर आश्रम में मची भगदड़ से लगभग एक दर्जन श्रद्धालु मारे गए थे। विष्व में षांति और सद्भावना की स्थापना के उद्देष्य से हरिद्वार में गायत्री परिवार द्वारा आयोजित यज्ञ में दम घुटने से 20 लोगों के प्राणों की आहुति लग गई थी। महज भगदड़ से अब तक तीन हजार से भी ज्यादा भक्त मारे जा चुके हैं। बावजूद लोग हैं कि दर्शन, श्रद्धा, पूजा और भक्ति से यह अर्थ निकालने में लगे हैं कि इनको संपन्न करने से इस जन्म में किए पाप धुल जाएंगे, मोक्ष मिल जाएगा और परलोक भी सुधर जाएगा। गोया, पुनर्जन्म हुआ भी तो श्रेष्ठ वर्ण में होने के साथ समृद्ध व वैभवशाली होगा।
देश में हर प्रमुख धार्मिक आयोजन छोटे-बड़े हादसों का शिकार हो रहा है। 1954 में इलाहबाद में संपन्न हुए कुंभ मेले में एकाएक गुस्साये हाथियों ने इतनी भगदड़ मचाई थी कि एक साथ 800 श्रद्धालु काल-कवलित हो गए थे। धर्म स्थलों पर मची भगदड़ से हुई,यह सबसे बड़ी घटना थी। सतारा के मांधर देवी मंदिर में मची भगदड़ में भी 300 से ज्यादा लोग असमय काल के गाल में समा गए थे। केरल के सबरीवाला मंदिर, जोधपुर के चामुण्डा देवी मंदिर, गुना के करीला देवी मंदिर और प्रतापगढ़ के कृपालू महाराज आश्रम में भी मची भगदड़ों में सैंकड़ों लोग मारे जा चुके हैं। बावजूद अब तक के हादसों में देखने में आया है कि भीड़ प्रबंधन के कौशल में प्रशासन-तंत्र न केवल अक्षम साबित हुआ है,बल्कि उसकी अकुशलता के चलते हजारों लोग बेमौत मारे गये हैं।

भारत में पिछले डेढ़ दशक के दौरान मंदिरों और अन्य धार्मिक आयोजनों में प्रचार-प्रसार के कारण उम्मीद से कई गुना ज्यादा भीड़ उमड़ रही ह्रै। जिसके चलते दर्शनलाभ की जल्दबाजी व कुप्रबंधन से उपजने वाले भगदड़ों का सिलसिला जारी है। धर्म स्थल हमें इस बात के लिए प्रेरित करते हैं कि हम कम से कम शालीनता और आत्मानुशासन का परिचय दें। किंतु इस बात की परवाह आयोजकों और प्रशासनिक अधिकारियों को नहीं होती। इसलिए उनकी जो सजगता घटना के पूर्व सामने आनी चाहिए, वह अकसर देखने में नहीं आती ? लिहाजा आजादी के बाद से ही राजनीतिक और प्रशासनिक तंत्र उस अनियंत्रित स्थिति को काबू करने की कोशिश में लगा रहता है, जिसे वह समय पर नियंत्रित करने की कोशिश करता तो हालात कमोबेश बेकाबू ही नहीं हुए होते ?
हमारे धार्मिक-आध्यात्मिक आयोजन विराट रुप लेते जा रहे हैं। कुंभ मेलों में तो विशेष पर्वों के अवसर पर एक साथ तीन-तीन करोड़ तक लोग एक निश्चित समय के बीच स्नान करते हैं। किंतु इस अनुपात में यातायात और सुरक्षा के इंतजाम देखने में नहीं आते। जबकि शासन-प्रशासन के पास पिछले पर्वों के आंकड़े हाते है। बावजूद लपरवाही बरतना हैरान करने वाली बात है। दरअसल, कुंभ या अन्य मेलों में जितनी भीड़ पहुंचती है और उसके प्रबंधन के लिए जिस प्रबंध कौशल की जरुरत होती है, उसकी दूसरे देशों के लोग कल्पना भी नहीं कर सकते ? इसलिए हमारे यहां लगने वाले मेलों के प्रबंधन की सीख हम विदेशी साहित्य और प्रशिक्षण से नहीं ले सकते ? क्योंकि दुनिया के किसी अन्य देश में किसी एक दिन और विशेष मुहूर्त के समय लाखों-करोडों़ की भीड़ जुटने की उम्मीद ही नहीं की जा सकती है ? बावजूद हमारे नौकरशाह भीड़ प्रबंधन का प्रशिक्षण लेने खासतौर से योरुपीय देशों में जाते हैं। प्रबंधन के ऐसे प्रशिक्षण विदेशी सैर-सपाटे के बहाने हैं, इनका वास्तविकता से कोई संबंध नहीं होता। ऐसे प्रबंधनों के पाठ हमें खुद अपने देशज ज्ञान और अनुभव से लिखने होंगे। यदि उज्जैन में आंधी विशेष पर्व 9 या 22 मई को आई होती तो स्थिति को संभालना और लाषों को गिनना मुष्किल हो जाता ?
धार्मिक स्थलों पर आजकल भीड़ बढ़ाने का काम मीडिया कर रहा है। इलेक्ट्रोनिक मीडिया टीआरपी के लालच में इसमें अहम् भूमिका निभाता है। वह हरेक छोटे बड़े मंदिर के दर्शन को चमात्कारिक लाभ से जोड़कर देश के भोले-भाले भक्तगणों से एक तरह का छल कर रहा है। इस मीडिया के अस्तित्व में आने के बाद धर्म के क्षेत्र में कर्मकाण्ड और पाखण्ड का आंडबर जितना बड़ा है, उतना पहले कभी देखने में नहीं आया। निर्मल बाबा, कृपालू महाराज और आशाराम बापू जैसे संतों का महिमामंडन इसी मीडिया ने किया था। हालांकि यही मीडिया पाखण्ड के सार्वजनिक खुलासे के बाद मूर्तिभंजक की भूमिका में भी खड़ा होता है। मीडिया का यही नाट्य रुपांतरण अलौकिक कलावाद, धार्मिक आस्था के बहाने व्यक्ति को निश्क्रिय व अंधविष्वासी बनाता है। यही भावना मानवीय मसलों को यथास्थिति में बनाए रखने का काम करती है और हम ईष्वरीय अथवा भाग्य आधारित अवधारणा को प्रतिफल व नियति का कारक मान लेते हैं। दरअसल मीडिया, राजनेता और बुद्धिजीवियों का काम लोगों को जागरुक बनाने का है, लेकिन निजी लाभ का लालची मीडिया धर्मभीरु राजनेता और धर्म की आंतरिक आध्यात्मिकता से अज्ञान बुद्धिजीवी भी धर्म के छद्म का शिकार होते दिखाई देते हैं। जाहिर है धार्मिक हादसों से छुटकारा पाने की कोई उम्मीद निकट भविष्य में दिखाई नहीं दे रही है ? लिहाजा हादसों का दुर्भाग्यपूर्ण सिलसिला फिलहाल टूटता दिखाई नहीं देता।

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