नेहरू व गांधी के ढोंगी उत्तराधिकारी

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हिमांशु शेखर
महात्मा गांधी के राजनीतिक उत्तराधिकारी के तौर पर भारत के पहले प्रधानमंत्री पंडित जवाहरलाल नेहरू को जाना जाता है। गांधी पर यह आरोप भी लगता है कि उन्होंने राजनीति में नेहरू को आगे बढ़ाने का काम सरदार वल्लभभाई पटेल समेत कई सक्षम नेताओं की कीमत पर किया। जब आजादी के ठीक पहले कांग्रेस अध्यक्ष बनने की बात थी और माना जा रहा था कि जो कांग्रेस अध्यक्ष बनेगा वही आजाद भारत का पहला प्रधानमंत्री होगा तब भी गांधी ने प्रदेश कांग्रेस समितियों की सिफारिशों को अनदेखा करते हुए नेहरू को ही अध्यक्ष बनाने की दिशा में सफलतापूर्वक प्रयास किया।
इससे एक आम धारणा यह बनती है कि नेहरू ने न सिर्फ महात्मा गांधी के विचारों को आगे बढ़ाने का काम किया होगा बल्कि उन्होंने उन कार्यों को भी पूरा करने की दिशा में अपनी पूरी कोशिश की होगी जिन्हें खुद गांधी नहीं पूरा कर पाए। लेकिन सच्चाई इसके उलट है। यह बात कोई और नहीं बल्कि कभी नेहरू के साथ एक टीम के तौर पर काम करने वाले जयप्रकाश नारायण ने 1978 में आई पुस्तक ‘गांधी टूडे’ की भूमिका में कही थी। जाहिर है कि अगर जेपी ने नेहरू के बारे में कुछ कहा है तो उसकी विश्वसनीयता को लेकर कोई संदेह नहीं होना चाहिए। नेहरू से जेपी की नजदीकी भी थी और मित्रता भी। लेकिन इसके बावजूद जेपी ने नेहरू माॅडल की खामियों को उजागर किया।
जेडी शेट्टी की यह तीन दशक से अधिक पुरानी यह किताब तथ्यों के साथ इस बात को बेहद मजबूती से रखती है जिस नेहरू को गांधी को राजनीतिक उत्तराधिकारी माना गया उन्होंने न सिर्फ गांधी के विकास के माॅडल को तार-तार कर दिया बल्कि अपना खुद का जो विकास माॅडल गढ़ा उस पर चलकर देश दिनोंदिन एक दलदल में फंसता चला गया। 1978 में जेडी शेट्टी जो लिख रहे हैं, वह आज 2014 में भी पूरी तरह प्रासंगिक मालूम पड़ती है।
इस किताब की भूमिका में संपूर्ण क्रांति आंदोलन के नायक जयप्रकाश नारायण इस ओर इशारा करते हैं देश के बौद्धिक वर्ग पर नेहरू की खुमारी आजादी के बाद कुछ ऐसी छाई कि उसने गांधी के विचारों को सही ढंग से समझने की कोशिश भी नहीं की। वे लिखते हैं, ‘आज यह चैंकाने वाली बात नहीं लगती कि जिस बौद्धिक वर्ग को तीन दशक तक गांधी के विचार आकर्षित नहीं कर पाते थे, आज वे उनकी ओर देख रहे हैं। न सिर्फ देश के बौद्धिक वर्ग ने गांधी के विचारों को पूरी तरह स्वीकार किया है बल्कि वे इन्हें गंभीरता से देख भी रहे हैं। यह देश के बौद्धिक जीवन में बदलाव का संकेत है।’ यहां जयप्रकाश नारायण ने जिस समस्या का उल्लेख किया है, वह भी कहीं न कहीं आजादी के बाद चलाए गए नेहरू के विकास माॅडल पर कोई सवाल नहीं उठाए जाने के लिए जिम्मेदार है। क्योंकि यही वह दौर था जब देश का बौद्धिक वर्ग नेहरू को अधिक से अधिक महान बताने की होड़ में लगा हुआ था।
पर इसका नतीजा क्या हुआ? इसे जयप्रकाश नारायण इन शब्दों में बयां करते हैं, ‘पंडित नेहरू ने जो मिश्रित उदार और माक्र्सवादी माॅडल देश के सामने रखा उसमें दम मालूम पड़ता था और एक बार तो ऐसा लगने लगा था कि यह सफल हो रहा है। लेकिन वास्तविकता यह है कि जब यह लगने लगा कि यह सफल हो रहा है उसी समय मुझे इसकी ऐसी खामियां दिखीं जो विनाशकारी हैं। यही वजह है कि मैं उनसे अलग हो गया। इस माॅडल की शुरुआती सफलता की कुछ वजहें हैं। अर्थव्यवस्था काफी समय से सुस्त पड़ी थी। सार्वजनिक क्षेत्र की नई भूमिका में था। वहीं आर्थिक विकास की कई योजनाओं के लिए बाहर से काफी पैसा मिला था। इससे नेहरू माॅडल शुरुआत में सफल दिखने लगा था। लेकिन यह माॅडल शुरुआत से ही अभारतीय और संभ्रांत वर्गीय था इसलिए इसे अंततः नाकाम होना ही था। यह कोई संयोग नहीं है कि नेहरू के विकास माॅडल ने आय और धन के स्तर पर बहुत ज्यादा गैरबराबरी पैदा की। इसने सबसे अधिक लोगों को गरीबी रेखा के नीचे धकेला। इसने सबसे अधिक सनकी संभ्रांत वर्ग पैदा किया। इसका सबसे बड़ा खामियाजा यह भुगतना पड़ा कि इसने हमारे सार्वजनिक जीवन वे भ्रष्टाचार और अनैतिकता को अपनी जड़ें जमा लेने का अवसर मुहैया करा दिया।’
जयप्रकाश नारायण आगे लिखते हैं, ‘इंदिरा गांधी ने अपने 11 साल के कार्यकाल में त्वरित गति से नेहरू माॅडल को आगे बढ़ाने का काम किया। लेकिन नेहरू जहां यह काम लोकतांत्रिक ढंग से करते थे। विडंबना यह है कि यह सब समाजवाद के नाम पर किया गया। त्रासदी यह है कि यह माॅडल बिगड़ता हुआ अंततः तानाशाही तक पहुंच गया जिसमें सारी शक्ति कांग्रेस नेताओं के हाथ में रही।’ जेपी की इन बातों से नेहरू माॅडल की नाकामी को समझा जा सकता है। इन बातों से यह भी समझा जा सकता है कि इसके नाकाम होने से जो स्थितियां पैदा हुईं, उसके लिए सिर्फ अकेले नेहरू ही जिम्मेदार नहीं हैं बल्कि देश का बौद्धिक वर्ग भी उतना ही जिम्मेदार है। इसके अलावा जेपी इस बात को भी यहां रेखांकित कर रहे हैं कि नेहरू ने भले ही गांधी के राजनीतिक उत्तराधिकारी होने के बावजूद उनके विचारों को आगे नहीं बढ़ाया हो लेकिन नेहरू की बेटी इंदिरा गांधी ने अपने पिता के विकास माॅडल में कई खामियों को बावजूद इसे जी-जान लगाकर आगे बढ़ाने का काम किया।
यहीं से एक और बात निकलती है जिसे 2014 में समझना जरूरी हो जाता है। अगर जेपी की बातों को आधार बनाएं तो यहां से एक निष्कर्ष यह भी निकलता है कि नेहरू और इंदिरा गांधी दोनों ने गांधी का अपने फायदे के लिए इस्तेमाल तो किया लेकिन कभी भी उनके विचारों को अहमियत नहीं दी। नेहरू गांधी के राजनीतिक उत्तराधिकारी बनकर देश के आम जनमानस के बीच यह भ्रम पैदा करने में सफल हुए कि वे उनमें गांधी को देख सकते हैं। यानी देश के आम लोगों को जो उम्मीदें गांधी से थीं, उन्हें पूरा करने का भ्रम नेहरू ने पैदा किया। लेकिन वास्तविकता यह है कि नेहरू ने गांधी के बिल्कुल विपरीत रास्ता पकड़ा। वहीं दूसरी तरफ इंदिरा गांधी हैं। जिनके नाम में नेहरू की पुत्री होने के बावजूद नेहरू नहीं बल्कि गांधी हैं। तथ्य भले ही कुछ और हों लेकिन धारणा और छवि के आधार पर चलने वाली राजनीति में इससे आम लोगों में वह भ्रम बरकरार रहा जिसे नेहरू ने पैदा किया था। इंदिरा गांधी को भी महात्मा गांधी से जोड़कर देश के आम लोगों ने देखा।
गांधी के ‘राजनीतिक दोहन’ का सिलसिला अभी भी थमा नहीं है। इंदिरा गांधी के बाद यह काम राजीव गांधी ने किया। फिर सोनिया गांधी और राहुल गांधी ने। सही मायने में कहा जाए तो आज यह कार्य सिर्फ नेहरू खानदान के लोग नहीं कर रहे बल्कि जो कांग्रेस पार्टी खुद को गांधी और उनके विचारों का झंडाबरदार होने का दावा करते हुए नहीं थकती और गांधी को अपनी जागीर मानती है, वह पूरी पार्टी आज भी गांधी के ‘राजनीतिक दोहन’ का कोई मौका नहीं चूकती। जिस तरीके का विकास माॅडल कांग्रेस ने अपने कार्यकाल में अपनाया, उसमें गांधी को कहीं थे ही नहीं। कहने के लिए कुछ योजनाओं का नामकरण भर कांग्रेस ने गांधी के नाम पर किया। लेकिन इससे गांधी के विचार या यों कहें कि विकास को लेकर उनकी जो सोच थी, वहां कहां आ पाई। नेहरू खानदान के नेताओं को ‘गांधी परिवार’ का कहा जाता है। सच्चाई तो यह है कि यह एक धोखा से अधिक कुछ नहीं है। अब समय आ गया है कि इस धोखे को लोगों के सामने रखा जाए और समझाया जाए कि गांधी का राजनीतिक दोहन करने वाले ये लोग नकली गांधी हैं। इनका गांधी के विचारों से कोई लेना-देना नहीं है। बल्कि इनके लिए तो गांधी आम लोगों के बीच वैधता और वोट हासिल करने का औजार मात्र हैं।
कांग्रेस पार्टी गांधी की तस्वीरें अपने दफ्तर में लगाकर और गांधी जयंती पर उन्हें श्रद्धांजलि देकर गांधी के प्रति अपने कर्तव्यों की इतिश्री आजादी से लेकर अब तक करती आ रही है। जब भी कांग्रेस कोई मुश्किल में पड़ती है और उसके विपक्षी उस पर भारी पड़ने लगते हैं तब-तब कांग्रेस गांधी को याद करती है। कांग्रेस देशवासियों को ‘दूध का कर्ज’ याद दिलाने के अंदाज में कहती है कि यही वह पार्टी है जिसे गांधी ने आगे बढ़ाया था और यही वह पार्टी है जिसने गांधी की अगुवाई में भारत को अंग्रेजों की दासता से मुक्ति दिलाई थी। लेकिन ऐसे में अहम सवाल यह खड़ा होता है कि फर्जी ढकोसले करके आखिर कांग्रेस पार्टी गांधी का दोहन आखिर कब तक करती रहेगी?
बहरहाल, कुछ पढ़े-लिखे लोग जयप्रकाश नारायण पर यह आरोप मढ़ सकते हैं कि उन्हें नेहरू के विकास कार्य इसलिए नहीं दिखे क्योंकि उनकी अपनी एक अलग राजनीति थी। लेकिन ऐसे लोगों को जेपी की इस बात से जवाब मिलता है, ‘मैं इस बात से इनकार नहीं कर सकता कि पिछले 30 साल में आर्थिक क्षेत्र में उल्लेखनीय प्रगति हुई है और यह हमारे लिए बेहद महत्वपूर्ण है। लेकिन इसके साथ ही हमारी समस्याएं पहले से कहीं अधिक गंभीर और विकराल हो गई हैं। शासन व्यवस्था और इसकी संस्थाओं में काफी गिरावट आई है। कुछ संस्थाओं को इसलिए तहस-नहस कर दिया गया क्योंकि कुछ लोगों की राजनीतिक वासना को शांत किया जा सके। अर्थव्यवस्था सुस्ती और महंगाई के लंबे दौर से गुजर रही है। हमारे समाज का नैतिक ताना-बाना छिन्न-भिन्न हो गया है।’
जेडी शेट्टी भी नेहरू माॅडल की नाकामी और इसके अंतर्विरोधों को रेखांकित करते हैं। वे लिखते हैं, ‘पिछले 30 साल में नेहरू के आर्थिक और राजनीतिक विकास के माॅडल को कम्युनिस्टों और पूंजीपतियों ने एक साथ स्वीकार किया। यह अपने आप में बड़ी अदभुत बात है। इतिहास में शायद ही कोई और ऐसा नेता हो जिसने इन दो धड़ों को इतना करीब ला दिया था। नेहरू ने सार्वजनिक क्षेत्र को बड़े पैमाने पर बढ़ावा दिया। इससे न सिर्फ कम्युनिस्ट संतुष्ट हुए बल्कि राष्ट्रवादियों को भी संतुष्टि मिली। लेकिन सार्वजनिक क्षेत्र का विकास इतने सुनियोजित ढंग से किया गया कि इसका फायदा पूंजीपतियों को मिले। इससे पूंजीवादी संतुष्ट हुए।’ गांधी का नाम भजने वाले नेहरू को बेनकाब करते हुए शेट्टी तथ्य रखते हैं, ‘नेहरू के कार्यकाल में बड़े कारोबारी घरानों के विकास की गति इतनी अधिक थी कि उतनी उस दरम्यान दुनिया के किसी भी देश में किसी समूह की नहीं रही। यह माॅडल कृत्रिम था और इसे ध्वस्त होना ही था। इस माॅडल को बढ़ाने के लिए गांधी को पूरी तरह से नजरंदाज कर दिया गया।’
समझना यह भी जरूरी है कि 2014 में नेहरू का विकास माॅडल कहां है। नरेंद्र मोदी सरकार द्वारा किए गए योजना आयोग के अंत को कुछ लोग नेहरू के विकास माॅडल के अंत की शुरुआत के तौर पर देख रहे हैं। लेकिन अभी किसी नतीजें पर पहुंचना जल्दबाजी होगी। क्योंकि बहुत सारे मोर्चे ऐसे हैं जहां नरेंद्र मोदी सरकार उसी तरह काम कर रही है, जिस तरह से कांग्रेस की सरकारें काम करती रही हैं। खास तौर पर आर्थिक मोर्चों पर मोदी सरकार भी उसी अंदाज में काम करती दिख रही है जिस तरह से कांग्रेस की सरकारें काम करती रही हैं। महंगाई जैसी समस्या से भले ही जनता परेशान हो लेकिन मोदी सरकार के मंत्री भी इस मसले पर कुछ उसी तरह के बयान देते हैं जिस तरह के बयान मनमोहन सिंह के कार्यकाल में उनके मंत्री दिया करते थे। कहना गलत नहीं होगा कि नेहरू के विनाशकारी विकास माॅडल की जड़ें देश में बेहद गहरी हैं और इनसे मुक्ति पाने के लिए कई स्तर पर काफी परिश्रम करने की जरूरत है। मौजूदा सरकार इससे निजात पाने की दिशा में कुछ करेगी भी या नहीं, यह तो समय ही बताएगा।
ऐसे में सवाल उठता है कि आगे का रास्ता क्या हो और इसमें गांधी के विचारों की भूमिका क्या हो सकती है। जवाब जयप्रकाश नारायण देते हैं, ‘आज हमें सबसे अधिक जरूरत जिस चीज की है वह है गांधीवादी विचारों पर आधारित स्वदेशी माॅडल।’ स्वदेशी की बात करने वाले लोग 2014 में केंद्र की सत्ता में हैं। भाजपा और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ स्वदेशी की बात लंबे समय से करते रहे हैं। उन्होंने अपने संगठन विस्तार के लिए भी स्वदेशी के मुद्दे का लगातार इस्तेमाल किया है। ऐसे में महत्वपूर्ण सवाल यह है कि अब जब स्वदेशी की बात करने वाले लोग केंद्र की सत्त में हैं तो क्या वे गांधीवादी विचारों पर आधारित स्वदेशी विकास माॅडल विकसित करने की दिशा में कुछ कर पाएंगे? या जिस तरह कांग्रेस ने गांधी का राजनीतिक दोहन किया उसी तरह वे भी स्वदेशी का राजनीतिक दोहन करने वाले बनकर रह जाएंगे।

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