कुटुंब, राष्ट्रीयता व सामाजिक मर्यादाएं

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imagesकिसी भी देश या समाज की उन्नति उसके नागरिकों की सोच व व्यवहार पर निर्भर करती है. भारतीय परिप्रेक्ष्य में परिवार या कुटुंब का महत्व सदा से ही रहा है. श्रृष्टि की  उत्पत्ति से लेकर आज तक जितने भी महापुरुष या दिव्यात्माएं इस पुण्य भूमि पर जन्मी वे किसी न किसी कुल या कुटुंब की मर्यादा से बंधकर या उनके संस्कार ग्रहण कर ही समाज का निर्देशन कर सकीं और हजारों-लाखों वर्षों के उपरांत भी आज तक विश्व का मार्ग दर्शन करने में सक्षम हुईं. त्रेता युग में इक्ष्वाकु वंश में जन्मे वालक श्री राम अपने कुल की विविध मर्यादाओं का पालन करते हुए ही तो मर्यादा पुरुषोत्तम कहलाकर समस्त श्रृष्टि में भगवान का दर्जा पा गए. “रघुकुल रीति सदा चलि आई, प्राण जाएं पर बचन न जाई”, आखिर रघुकुल वंश के लिए ही तो प्रसिद्ध है. जिसपर चलकर जीवन के असंख्य कष्टों को भी नजरंदाज कर श्री राम चौदह वर्ष तक कोमलांगी अर्धांगिनी माता सीता के साथ घोर घने जंगलों में रहे. सम्पूर्ण जीवन में अनेक बाधाओं से लड़ते हुए वे अपने कर्तव्य पथ से कभी विचलित नहीं हुए. वल्कि बनवास जैसे कठिनतम समय का प्रयोग उन्होंने बड़े ही नियोजित ढंग से किया. एक ओर उन्होंने केवट, भेलनी, अहिल्या व जटायु जैसे समाज के अति पिछड़े लोगों को गले लगा कर समाज की मुख्यधारा से जोड़ा वहीँ दूसरी ओर सुग्रीव, हनुमान और अंगद जैसे योद्धाओं को उनकी शक्ति का परिचय दिलाकर चहुँ ओर व्याप्त आसुरी शक्तियों के विरुद्ध लड़ने का साहस उनमें विकसित किया. उस काल में राम जी के स्थान पर हम यदि होते तो उस अभावग्रस्त अवस्था में भी स्वाभिमान पूर्वक दुनिया की सबसे बड़ी साधन संपन्न मायावी आसुरी शक्ति रावण पर विजय पाने की कल्पना भर करना भी हमारे लिए संभव नहीं था. किन्तु अपने कुल यानी कुटुंब के संस्कार और राष्ट्र जागरण की धृण इच्छा शक्ति ने ही शायद भगवान राम को उस काल के शक्तिमान रावण को ललकारने कि प्रेरणा दी. याद रखना चाहिए कि साधन संपन्न रावण रथ पर था. जबकि, राम जी पैदल ही युद्ध कर रहे थे. देवताओं ने भी अपना विमान तब तक युद्ध भूमि में नहीं भेजा जब तक कि उन्होंने मेघनाद जैसे इन्द्रजीत को नहीं मार दिया. यानि श्री राम की अजेय शक्ति का विश्वास होने पर ही देवताओं ने उन्हें सहयोग की पेशकश की.

द्वापर युग में कुरुवंश की लड़ाई ने समाज के लिए जो मर्यादाएँ तय कीं या धर्म और अधर्म का जो भेद स्पष्ट किया वह एक ही कुटुंब में दो प्रकार की विपरीत सोच का ही तो परिणाम था. यदि कलयुग में देखें तो चीन के हान वंश से लेकर सऊदी कुरेश कबीले तक और ब्रिटिश ‘किंगडम’ से लेकर इराक के सद्दाम परिवार तक, अनेक गैर भारतीय परिवारों में कुटम्ब कलह के कारण ही सत्ता परिवर्तन भी हुए। कुछ लोग हैं जिन्हें अपने पड़ोसियों का लहू देखे बिना चैन नहीं मिलता, किसी की जान लिए बिना रोटी गले से नहीं उतरती। किन्तु इतिहास साक्षी है कि भारत ने हमेशा बचाव में ही हथियार उठाये हैं। चाणक्य, समर्थ गुरु रामदास, माता जीजाबाई, चन्द्रगुप्त मौर्य और वीर शिवाजी जैसे महा पुरुषों के संस्कार ही तो है जो हमारे अन्दर नित नई प्रेरणा व ऊर्जा का संचार करते हैं.

सामाजिक मर्यादाएं जब तार-तार होने लगती हैं तब राष्ट्रीय मूल्यों का भी ह्रास होने लगता है. एक कुटुंब के लोग विविध विचारों के तो हो सकते हैं किन्तु उस कुटुंब की एकता अखण्डता और विकास हेतु आवश्यक है कि उसे एकजुट रखने वाले तत्व कभी कमजोर न पड़ें. अर्थात एक दूसरे के प्रति प्रेम, दया, समर्पण के साथ एकत्व या एकरूपता के भाव का होना नितांत आवश्यक है. जिस प्रकार एक कुटुंब में संस्कारवान लोग एकत्व का भाव लेकर बुजुर्गों का सम्मान करते हुए रहते हैं उसी प्रकार किसी भी राष्ट्र की उन्नति के लिए उन्नत कुटुंब व्यवस्था, संस्कारवान, कर्मठ तथा राष्ट्रीय मूल्यों से ओत-प्रेत नागरिक नितांत आवश्यक हैं. किसी भी राष्ट्र के चहुँ मुखी विकास के लिए आवश्यक है कि उसके नागरिक राष्ट्रीयता की भावना से किसी प्रकार का समझौता न कर सकें. बात बात पर कभी वन्दे मातरम का, कभी भारत माता कि जय का, तो, कभी राष्ट्र गान: जन गण मन का विरोध करने वाली विचारधारा ही तो राष्ट्र  को कमजोर करने का षड्यंत्र रचती रहती है.

देखने में आ रहा है कि जैसे जैसे संयुक्त परिवार यानी कुटुंब व्यवस्था टूट रही है लोगों में संस्कार हीनता पनप रही है. बात बात पर लोग धैर्य खो बैठते हैं. जिन हिन्दू परिवारों में सामान्य रूप से कभी ८-१० बच्चे होते थे आज एक या दो ही मुश्किल से हो पा रहे हैं. परिणामत: बच्चों को न बहन का का ज्ञान, न भाई का, न चाचा का, न चाची का, न बुआ का, न फूफा का, न ताऊ का, न ताई का, न साली का, न भाभी का. जब नई पीडी इन रिश्तों को समझेगी ही नहीं तो उनका सम्मान कैसे जानेगी और आपसी प्रेम भाव कैसे बढेगा. जब प्रेम व एक दुसरे के प्रति समर्पण नहीं तो राष्ट्रीय भावना कैसे बलवती होगी. जब बच्चा ही एक या दो होंगे तो सेना में कौन जाएगा, धर्म प्रचार कौन करेगा परिवार कि आजीविका कौन चलाएगा, बहिनों को जिहादी दुष्टों से कौन बचाएगा और रिश्तों की बागडोर कौन सम्भालेगा. अर्थात् राष्ट्र की मजबूती तथा विकास के लिए आदर्श कुटुंब व्यवस्था व सामाजिक मर्यादाओं की अहम् भूमिका होती है.

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