पंजाबी फिल्मों के प्रसिद्द निर्माता, निर्देशक, अभिनेता, अपने ज़माने में हिंदी फिल्मों के पहलवान नायक, सुप्रसिद्ध सीरियल रामायण में अंजनीपुत्र हनुमान का अमर किरदार निभानेवाले और फ्री स्टाइल कुश्ती के विश्व विजेता रहे ८४ वर्षीय दारा सिंह का आज प्रातः ७.३० बजे हुए निधन के समाचार से ऐसा लगा मानों अपने किसी ऐसे परिचित का निधन हो गया हो जिसे हम यदा-कदा मिलते रहते हैं. विशालकाय, बलवान, बलिष्ठ और भय पैदा करनेवाले बलशाली शरीर के चेहरे पर एक बाल सुलभ निर्मल मुस्कान और बिना किसी लाग-लपट के साधारण और सरल बातचीत जिसमें बेबाकी से हर चीज की स्वीकृति होती है, यही पहचान मैंने समझी थी दारा सिंह जैसे शख्शियत की.
दिन और वर्ष तो ठीक से स्मरण नहीं, शायद वर्ष १९५८-५९ की एक शाम का दौर रहा होगा और स्थान था कानपुर के ग्रीनपार्क मैदान का जहाँ फ्री स्टाइल कुश्ती के प्रसिद्द पहलवान रुस्तमे-हिंद के नाम से प्रसिद्द दारा सिंह, उनका छोटा भाई पहलवान रंधावा और रशियन पहलवान किंगकोंग आदि अनेक पहलवान कुश्तियों के लिए आ रहे थे. चूँकि इन कुश्तियों के प्रबंधक मेरे स्वर्गीय पिता जी के परम मित्र थे इसलिए हम अति विशिष्ठ व्यक्तियों के लिए सुरक्षित सबसे आगे की पंक्ति में सोफे पर बैठे थे. अन्य कुश्तियों के उपरांत दारा सिंह और किंगकोंग की कुश्ती के समय जब दारा सिंह का स्टेडियम में आगमन हुआ तो मेरे जैसे एक बच्चे के लिए वह दृश्य आज भी कोतुहल भरा और अविस्मरणीय है. विशालकाय देहयश्थी, कांधे से लेकर पीछे पैरों तक महाराजाओं की तरह लहराता हुआ लाल रंग का कपड़ा और साथ में चार-पांच अन्य पहलवान. रिंक के समीप आकर जब दारा सिंह प्रथम पंक्ति में बैठे विशिष्ठजनों से हाथ मिलाने लगे तो मैं डर के मारे जोर-जोर से रो पड़ा था कि कहीं यह मुझे तो नहीं मारेगा. दारा सिंह ने प्यार से मुझे गोद में उठाया और अपने किसी सहयोगी से टोफियाँ लेकर मेरी जेब में भर दीं. खैर उस कुश्ती में तो दारा सिंह की विजय हुई परन्तु मैं उस दिन से ही ताउम्र के लिए दारा सिंह का मुरीद बन गया. शरीर से दारा सिंह जैसा तो नहीं बन सका परन्तु कुश्तियों, पहलवानी और भारोतोलन आदि से अवश्य ही मेरा विशेष लगाव रहा है.
१९६८ में पिताजी के स्थानान्तरण पर हम सपरिवार दिल्ली आ गए थे और उस समय मैं हायर सैकंडरी में पड़ रहा था. एक दिन समाचारपत्रों में विज्ञापन देखा कि दिल्लीगेट स्टेडियम ( आजकल जिसको अम्बेडकर स्टेडियम या फुटबाल स्टेडियम के नाम से जाना जाता है ) में दारा सिंह व अन्य विश्व प्रसिद्द पहलवानों की फ्री स्टाइल कुश्तियों का आयोजन हो रहा है. टिकट तो काफी महंगी थी सो मुफ्त में प्रवेश के जुगाड़ में लग गया. जहाँ चाह वहाँ राह… अंततः अपने किसी मित्र के साथ, जिसके कोई रिश्तेदार दिल्ली पुलिस में उच्चपदाधिकारी थे, वी आई पी गैलरी के पास प्राप्त कर दारा सिंह के इस भगत को दारा सिंह से मिलने व अन्य विश्व प्रसिद्द पहलवानों जिनमें से एक थे विलकवरडेल आदि की कुश्तियां देखने का सुअवसर प्राप्त हुआ. हम दोनों मित्रों के बारम्बार निवेदन पर भी दारा सिंह ने आटोग्राफ नहीं दिए परन्तु बहुत जिद करने पर भी हम पर कतई भी क्रोध नहीं किया बल्कि हर बार प्यार से सर पर हाथ फेरते हुए मना कर दिया. शरीर से बलिष्ठ परन्तु दिल से कोमल. दारा सिंह से दूसरी बार मिलने पर पहलवानों के विषय में यह एक नई जानकारी थी मेरे लिए.
तीसरी बार दारा सिंह से मिलने का सुअवसर भी दिल्ली गेट स्टेडियम में ही सन १९७१-७२ को मिला था. तब मैं दिल्ली विश्वविद्यालय का छात्र था. भारत केसरी मास्टर चन्दगीराम और रुस्तमे-पाकिस्तान के मध्य देसी मिट्टी के अखाड़े वाली कुश्ती का शायद दूसरा मुकाबला था और इस कुश्ती के रेफरी थे दारासिंह. दोनों तरफ के समर्थकों, सुरक्षा बलों व दर्शकों का एक बहुत बड़ा हजूम स्टेडियम के अन्दर और बाहर उमड़ा पड़ा था. इस समय तक बाल-पत्रिकाओं में मेरे लेख व परिचर्चाएं आदि प्रकाशित होने लगी थीं सो मैं अपने साथ एक कैमरा लेकर कालेज द्वारा जारी किये गए पहचानपत्र के सहारे इधर-उधर के तिकड़म लडाता हुआ अखाड़े के बहुत नजदीक तक पहुँचने में सफल हो गया था. कुश्ती आरंभ होने के साथ ही धक्का-मुक्की आरम्भ हो गई और इस सब को रोकने के लिए हल्का बल प्रयोग भी करना पड़ा. कुश्ती में जैसे ही भारत केसरी मास्टर चन्दगीराम ने अपना प्रसिद्द कलाईपकड़ दावं लगाने का प्रयत्न करते पाकिस्तानी पहलवान मेहरदीन उससे बचने के लिए अखाड़े के अन्दर ही चक्कर लगाने लगते. चन्दगीराम के कलाईपकड़ दावं के विषय में यह प्रसिद्द है कि एक बार वह जिसकी कलाई पकड़ लेते थे वह किसी भी सूरत में उसे छुड़ा नहीं सकता. इस कांटे की कुश्ती में अंततः विजय मास्टर चन्दगी राम की हुई और उन्होंने ही गुर्ज व इनाम आदि प्राप्त किया. भीड़ की धक्का-मुक्की में एक ओर मैं जहाँ सबसे प्रथम पंक्ति में जाने में सफल हुआ वहीँ मेरा कैमरा कहीं गिर गया या किसी ने चुरा लिया जो अंत तक नहीं मिला. हाँ, इस सारे घटनाक्रम में एक लाभ अवश्य ही हुआ वह है दारा सिंह से तीसरी बार मिलने के साथ-साथ मिट्टी में सने भारत केसरी मास्टर चन्दगीराम से हाथ मिलाने का जो मेरे लिए आज भी अमूल्य है. चंडीगढ़ के मोहाली में स्थित उनके स्टूडियो के मुख्य द्वारा के बाहर से यूँ तो सैंकड़ों बार निकलना होता है और उनकी फ़िल्म रुस्तम की शूटिंग के दौरान किसी मित्र ने वहाँ चलने का न्योता भी दिया था परन्तु संयोग न बनने के कारण मैं फिर कभी शिखर पर बैठे दारा सिंह नामक साधारण प्रवृति के इंसान से नहीं मिल सका.
काल, परिस्थिति और घटना के तीन अलग-अलग वृतांतों में जो एक अविस्मरणीय समानता है वह है कि दारा सिंह की बालसुलभ, सरल, निर्मल और पारदर्षीय मुस्कान जो उनके स्वभाव की सरलता और साधारणपन को उनकी मुस्कान के जरिए परिलक्षित करती है.
स्वर्गीय दारा सिंह को श्रद्धांजली देते हुए ईश्वर से हम यह प्रार्थना करते हैं कि उनके परिवार को इस दुःख की घड़ी में सांत्वना प्रदान करे.