-समन्वय नंद
भूमि अधिग्रहण का मुद्दा एक बार चर्चा में है। देश के विभिन्न स्थानों पर किसानों की जमीन अधिग्रहण को लेकर संघर्ष चल रहा है। पश्चिम बंगाल का सिंगुर, नंदीग्राम हो या फिर वेदांत विश्वविद्यालय के लिए पुरी की जमीन, कलिंगनगर की जमीन या फिर उत्तर प्रदेश के टप्पल की बात हो ,सभी स्थानों पर कमोवेश एक ही स्थिति है।
जमीन अधिग्रहण के लिए सरकारें कार्पोरेट कंपनियों के इशारे पर एजेंट के तौर पर कार्य कर रहे हैं। जो किसान अपनी भूमि प्रदान करने के लिए राजी नहीं है, उनके खिलाफ पुलिस विभिन्न मामलों में फंसा कर उत्पीडन कर रही है। विरोध करने वाले किसानों पर गोलियां दागी जा रही है। कंपनियों के लिए सभी प्रकार के हथकंडे अपनाये जा रहे हैं। उन्हें इस तरह से घेर लिया जाता है कि उनके पास जमीन कंपनियों को देने के बजाए कोई रास्ता शेष नहीं बचता है।
भारत में जो भूमि अधिग्रहण कानून है वह अंग्रेजों के जमाने का है। यह कानून 1897 में अंग्रेजों द्वारा अपने स्वार्थ सिद्धि के लिए बनायी गई थी। दुर्भाग्य इस बात का है कि आज तक यह बदस्तूर जारी है। 2007 में भूमि अधिग्रहण (संशोधित) विधेयक -2007 लंबित है। यह अब तक संसद में पारित नहीं हुआ है। इस विधेयक में भी अनेक खामियां है और समीक्षकों का कहना है कि इस कानून से भी कार्पोरेट कंपनियों को लाभ मिलेगा। इसलिए प्रस्तावित विधेयक को वापस लेकर नया विधेयक पेश करना चाहिए।
अधिग्रहण के बारे में चर्चा करते समय अनेक विषयों पर चर्चा करने की आवश्यकता है। किसान अपने खेत में खेती कर पीढी दर पीढी अपना आजीविका चलाता आ रहा है। यह एक तरह से उसका व्यवसाय है जिसके आधार पर वह अपना तथा परिवार को भरणपोषण करता है। लेकिन आज सरकारें उनसे उनकी जमीन छीन कर किसी और बडे पूंजीपति को व्यवसाय के लिए दे रही है। इसे एक उदाहरण से बेहतर ढंग से समझा जा सकता है। किसी शहर के किसी गली में कुछ दुकानें हैं। सरकार उन दुकान मालिकों से उनकी दुकानों को छीन कर किसी बडे व्यवसायी को व्यवसाय के लिए देती है। यह भी कुछ इसी प्रकार की बात है। अब यह प्रश्न उत्पन्न होता है कि क्या सरकार को किसी की दुकान को जबरदस्ती छीन कर किसी बडे दुकानदार को दे सकती है। क्या उसे यह करना चाहिए, यह एक विचारणीय प्रश्न है।
यहां यह अधिग्रहण किसी सार्वजनिक उद्देश्यों के लिए नहीं है। किसी बडे पूंजीपति को अपने व्यवसाय चलाने के लिए है। सरकार रेलवे लाइन के लिए भूमि अधिग्रहण करती है तो बात समझ में आती है। लेकिन किसी अन्य बडे व्यवसायी के लिए छोटे व्यवसासियों की दुकानों को छीन कर उपलब्ध कराना कितना उचित है एक विचारणीय प्रश्न है।
पश्चिम के विकास माडल के अनुसार बडे बडे उद्योग स्थापित कर ही विकास किया जा सकता है। दुर्भाग्य है कि भारत में इसका नकल किया जा रहा है और यही कारण है विकास के लिए किसानों से जमीन अधिग्रहीत की जा रही है। लेकिन यहां पर ध्यान देने योग्य बात है कि पाश्चात्य देशों में भारत में मूलभूत अंदर यह है कि भारत की जनसंख्या काफी है तथा इसकी तुलना में भारत की कृषि योग्य भूमि का अनुपात बाकी देशों के तुलना में कम है। भारत में विश्व की 18 प्रतिशत आबादी है तथा यहां दो प्रतिशत जमीन है। इसमें से भी कृषि योग्य जमीन 60 प्रतिशत है। इस बात से अंदाजा लगाया जा सकता है भारत में कृषि योग्य जमीन की महत्ता कितनी है। कृषि योग्य जमीन की मात्रा कम होने से भारत में खाद्य सुरक्षा संकट में पड सकता है। लेकिन सरकारें इस बात पर ध्यान नहीं दे रही है, शायद जान बूझ कर ध्यान नहीं दे रही है और सरकार बिचौलियों या एजेंट की भूमिका निभाते हुए किसानों की जमीनों को धनपतियों के हवाले करने के लिए आमादा हैं। उसे देश की खाद्य सुरक्षा के बारे में किसी प्रकार की चिंता नहीं है। इस कारण देश में खेती योग्य जमीन के अधिग्रहण पर पूरी तरह रोक लगाये जाने की आवश्यकता है अन्यथा देश की खाद्य सुरक्षा खतरे में पड जाएगी।
देशी व विदेशी कंपनियां अधिक से अधिक जमीन हडपना चाहती हैं। अगर इन कार्पोरेट कंपनियों के कार्यशैली का अध्ययन करें तो कई चीजें स्पष्ट होती है। पहली बात कि वह किसी भी परियोजना के लिए इतनी भूमि अधिग्रहीत करते हैं जितनी उनकी आवश्यकता नहीं होती। आवश्यकता से कई गुना अधिक जमीन किसानों से ली जाती है। उदाहरण के लिए वेदांत फाउंडेशन द्वारा प्रस्तावित वेदांत विश्वविद्यालय। इस परियोजना के लिए वेदांत ने 10 हजार एकड भूमि की मांग की है। एक विश्वविद्यालय के लिए दस हजार एकड भूमि उसे क्यों चाहिए। देश के प्रमुख विश्वविद्यालयों के पास एक हजार एकड से कम भूमि है। ऐसे में वेदांत कंपनी यहां विश्वविद्यालय खोलने को उत्सुक है या फिर रियल इस्टेट का व्यापार करने वाली है, यह संदेह उत्पन्न करता है। यह एक उदाहरण है। देश भर में ऐसे कई उदाहरण है जिसे दिये जा सकते हैं.
दूसरी बात यह है कि कई बार यह कंपनियां किसानों से भूमि ले लेने के बाद उस पर कोई परियोजना शुरु नहीं करती है। काफी कम मूल्य में किसानों से जमीनें लेने के बाद उसे अपने नियंत्रण में रखते हैं और उस पर परियोजना शुरु नहीं करते हैं। इसका एक उदाहरण है टाटा कंपनी द्वारा दशकों पूर्व ओडिशा के गोपालपुर। यहां टाटा कंपनी द्वारा किसानों से जोर जबरदस्ती जमीन अधिग्रहीत की गई थी। उस समय किसानों ने काफी संघर्ष किया था। लेकिन आज तक यहां परियोजना शुरु नहीं हुई है। क्या ऐसा करने के बाद इन कंपनियों को दंडित नहीं किया जाना चाहिए।
देश में ऐसे कानून होने चाहिए कि ऐसी स्थिति में कंपनी लोगों को जमीन वापस कर दे। केवल इतना ही नहीं उन्हें और मुआबजा भी दे। सरकारों को इस पर दंडविधान करना चाहिए ताकि भविष्य में इस तरह की घटनाओं के पुनरावृत्ति को रोका जा सके।
किसी जमीन को सार्वजनिक उद्देश्य के लिए अधिगृहीत की जा रही हो तो इसे संबंधित ग्राम सभा द्वारा यह कार्य सार्वजनिक उद्देश्य के लिए है, प्रमाणित करना जरुरी किया जाना चाहिए। प्रस्तावित कानून में इस बात का प्रावधान होना चाहिए।
देश की गरीब किसानों, जनजाति वर्ग की जमीन देशी- विदेशी पुंजिपतियों के निशाने पर हैं। विकास के नाम पर ये कंपनियां जमीनें हडपने में लगे हुए हैं। इस कार्य को रोकने का कार्य सरकार का है लेकिन वह भी इन पुंजीपति कार्पोरेट कंपनियों के लिए कार्य कर रही है। इस कारण देश की खाद्य सुरक्षा से लेकर लोगों के आजीविका खतरे में है। आवश्यकता इस बात की है कि भूमि अधिग्रहण के लिए 2007 में प्रस्तावित विधेयक को वापस लिया जाए तथा इसके स्थान पर उपर लिखित बिंदुओं का समावेश किया जाए ताकि देश की खाद्य सुरक्षा खतरे में न पडे, गरीब किसान व जनजातियों के जमीन को धनपति न ले पायें।
समाज विज्ञानियों का मानना है कि राज्य अथवा सरकार की उत्पत्ति निर्बल वर्ग को पुंजीपतियों व धन्नासेठों से रक्षा करने के लिए हुई थी। अमीरों व पुजीपतिय़ों द्वारा धनबल से निर्बल वर्ग का शोषण न हो य़ह सुनिश्चित करना राज्य का मूल उद्देश्य था। लेकिन 21वीं सदी तक आते आते लगता है कि राज्य जिनकी रक्षा करने के लिए बना था, उन्हीं के खिलाफ पूंजीवादी गिरोह में शामिल हो गया है। यही कारण है कि कार्पोरेट जगत द्वारा गरीब किसानों के भूमि का अधिग्रहण धड़ल्ले से किया जा रहा है।
भारत में आगामी १० वर्षों तक कोई भी उपजाऊ भूमि का औद्द्योगिक रूपांतरण प्रतिबंधित किया जाना चाहिए .कतिपय विकाशशील नगरों के किनारे की बेहद उपजाऊ जमीन जो की हजारों एकड़ में थी वो बड़े औद्द्योगिक घरानों को मद्ध्यप्रदेश सरकार के इशारों पर ही दी गई है .हालाकि पूंजीपतियों ने भारी दाम चुकाए और किसानो को भी कच्छ उनके अनुमान से ज्यादा ही मिला किन्तु बिचोलियों को जो मिला वह अकूत है .यह स्थिति कमोवेश देश के हर शहर में है .बंगाल की स्थिति थोड़ी अलग है .
एक -बंगाल में किसानो को विगत तीस सालों से वहां की वामपंथी सरकार ने मालामाल कर दिया .दो -बंगाल में तीस साल से औद्द्योगिक विकाश बढ़ने के बजाय सिमटता चला गया .तीन -औद्द्योगीकरण नहीं हो पाने से जमीनों को कृषि की एक फसली से दो और दो फसली से तीन फसली किये जाने में सफलत मिलती गई .चार -बड़े शहरों में वामपंथ के खिलाफ भले ही रोष बढ़ता गया क्यों की रोजगार के अवसर सीमित हो गए किन्तु गाँव में जनाधार आज भी बरकरार है .
वर्तमान सरकार का इरादा था की शहरी युवाओं को कुछ रोजगार के अवसर मिलें इस हेतु उसने नहीं चाहते हुए भी टाटा जैसे ईमानदार उदोय्ग्पति को नेनो कर जैसे उद्द्योगों की अनुमति दी थी ,किन्तु अमेरिका को भारत के वामपंथ से कुछ ज्यादा ही चिद है क्योकि १२३ एटमी करार पर वामपंथ ने अमरीका की लूट को पसंद नहीं किया .घुटने टेकने बाले तत्वों ने अमरीका की शह पर एकजुट होकर भारत के बामपंथ पर हमला कर दिया .सब जगह दुष्प्रचार किया की देखो ये कम्मुनिस्ट तो किसानो के दुश्मन हैं .सिंगूर और नंदीग्राम के निहतार्थ सबको ज्ञात नहं थे सो अधकचरे ज्ञानी भी मीडिया में इस भूमि उच्छेदन प्रतिक्रांति के तरफदार हो गए .