अन्नदाता की तकलीफ पर ध्यान दीजिए

इरफाना खातून

बिहार सरकार ने हाल ही में किसानों की समस्याओं के हल के लिए एक कॉल सेंटर की शुरूआत की है। कृषि विभाग और इफको किसान संचार लिमिटेड के संयुक्त प्रयास से यह सेंटर पटना स्थित मीठापुर कृषि फार्म के रसायन भवन में स्थापित किया गया है। इस सेंटर के माध्यम से किसान अपनी कृषि संबंधी समस्याओं का समाधान कर सकेंगे। इसके लिए टेलिफोन लाइन की संख्या दस होगी। जहां एक समय में 12 विशेषज्ञ कार्यरत होंगे। खास बात यह है कि किसानों के जिन प्रश्‍नों का जवाब फोन पर तुरंत देना संभव नहीं हो सकेगा उसका जवाब कृषि विशेषज्ञों द्वारा बाद में दिया जाएगा। इसके अतिरिक्त खरीफ मौसम में किसानों को मुख्यमंत्री तीव्र बीज विस्तार योजना के तहत 5459 क्विंटल उन्नत किस्म के धान बीज अनुदान पर दिए जाएंगे। जिसके लिए राज्य भर से 90996 किसानों का चयन हुआ है। राज्य के कृषि विभाग के अनुसार किसानों को 90 प्रतिषत अनुदान पर धान के बीज दिए जाएंगे। जिसकी आपूर्ति बिहार राज्य बीज निगम के माध्यम से होगा।

किसानों के हितों के लिए राज्य सरकार द्वारा उठाए जा रहे कदम सराहनीय है। इससे न सिर्फ कमजोर श्रेणी के किसानों को फायदा होगा बल्कि अन्न पैदावार के मामले में भी राज्य की स्थिती मजबूत होगी। अन्य राज्य भी इस तरह के मॉडल अपनाकर अनाज उत्पादन के क्षेत्र में मजबूत बन सकते हैं। वस्तुतः आर्थिक स्तर पर मजबूती और बढ़ते औद्योगिकीकरण के बावजूद भारत को आज भी कृषि प्रधान देश के रूप में ही माना जाता है। यही कारण है कि इसपर विशेष ध्यान दिया जाता रहा है। कृषि उत्पादन को बढ़ावा देने के लिए केंद्र और राज्य सरकारें लगातार प्रयासरत हैं। प्रत्येक वर्श केंद्रीय बजट में कृषि संबंधी विशेष प्रावधान किए जाते हैं। इसके लिए समय-समय पर प्रभावी नीतियां लागू करने का प्रयास भी किया जाता रहा है। परिणामस्वरूप कभी खाद्यान्न संकट से गुजरने वाला भारत आज इतना आत्मनिर्भर हो चुका है कि वह अब दूसरे देशों को निर्यात भी करता हैं। यह खबर वास्तव में सभी भारतीयों के लिए एक सुखद एहसास दिलाता है। लेकिन खुशी के इस क्षण में हम हमेशा देश को कृषि उत्पादन में आत्मनिर्भर बनाने वाले किसान को भूल जाते हैं। जो आज भी आत्मनिर्भरता की बाजाए गुरबत की जिंदगी गुजारने पर मजबूर रहता है। देश का पेट भरने वाला यही किसान स्वंय का पेट भरने के लिए जिंदगी भर संघर्ष करता रह जाता है और कभी-कभी इतना मजबूर हो जाता है कि उसके सामने आत्महत्या के अलावा और कोई विकल्प नहीं रह जाता है। औसत सीमांत किसान की हालात यह है कि अगर बेटी की षादी हो जाये या वह एक कमरा बनवा ले तो उसकी अर्थव्यवस्था एक दशक पीछे चली जाती है। किसी क्षेत्र में अकाल तो कहीं बाढ़ की समस्या के कारण किसानों को हमेशा नुकसान ही उठाना पड़ा है।

उदाहरण के तौर पर नेपाल सीमा से सटे बिहार के सीतामढ़ी के शाहपुर गांव को ही लीजिए जो आज भी कृषि से संबंधित समस्याओं ग्रसित है। किसानों की सबसे बड़ी समस्या बाढ़ है, जो प्रति वर्ष यहां सैकड़ों एकड़ की तैयार फसल बर्बाद कर जाती है। प्रत्येक वर्ष यहां से बहने वाली बागमती नदी के उफनने के कारण गांव बाढ़ की चपेट में रहता है। नदियों का जलस्तर बढ़ने के साथ ही बाढ़ का पानी खेतों में प्रवेश कर जाता है। दूसरी ओर नेपाल से छोड़े जाने वाले पानी के कारण भी यह क्षेत्र बाढ़ से प्रभावित रहता है। जिसके कारण लगभग हर साल खड़ी फसल तबाह हो जाती है और किसानों को हजारों रूपए का आर्थिक नुकसान उठाना पड़ता है। कृषि में होने वाली कठिनाईयों के कारण गांव से युवाओं का पलायन हो रहा है। नौजवान रोजी रोटी के लिए परदेस जाने को मजबूर हैं। गांव के 55 वर्षीय किसान राज किषोर यादव के अनुसार हमारा गांव नदी के किनारे पर होने के कारण यहां प्रति वर्श बाढ की समस्या उत्पन्न होती है। जिससे फसल को पूर्णतः या अंष्तः क्षति होती है। बाढ़ के कारण जिंदगी गुजारना तक कठिन हो जाता है। सरकार की ओर से मिलने वाली सहायता राजनीति की शिकार होकर रह जाती हैं। कागजों पर इस गांव को बाढ़ रहित क्षेत्र दर्शाकर इसे सहायता से वंचित कर दिया जाता है। वहीं खेतों के लिए खाद की व्यवस्था तब की जाती हैं जब फसल तैयार हो जाता हैं।

वास्तव में देखा जाए तो गांववाले सरकार से सहायता की अपेक्षा बाढ़ के स्थाई निवारण की उम्मीद करते हैं। उनकी मांग है कि बाढ़ के स्थाई उपाय किए जाएं जिससे उन्हें सदा के लिए राहत मिल सके। हालांकि राज्य सरकार क्षेत्र में आने वाली बाढ़ के लिए पड़ोसी देश को जिम्मेदार ठहराती है और इसपर नियंत्रण के लिए बांध के निर्माण की योजना को मूर्त रूप देने पर विचार कर रही है। परंतु अबतक इसपर कोई ठोस उपाए नहीं निकाले जा सके हैं। जबकि मानसून दस्तक दे चुका है। एक तरफ हम भंडारण क्षमता के लगातार बढ़ने का जश्नद मनाते हैं और यह कहते नहीं थकते हैं कि देश में अनाज उत्पादन भंडारण क्षमता से अधिक हुई है। परिणामस्वरूप उन्हें खुले में छोड़ने पर मजबूर हो जाते हैं। जिससे लाखों टन अनाज सड़ने की कगार पर पहुंच जाता है। वहीं दूसरी ओर किसानों को उचित मूल्य नहीं मिल पाता है। जो कहीं ने कहीं सरकार की लचर व्यवस्था को दर्शाता है। भारत जैसे कृषि प्रधान देश जहां देश की 70 प्रतिशत आबादी इसी पर आश्रित हैं, यदि कृषि को प्राकृतिक आपदा से बचाने के दीर्घकालिक उपायों पर गंभीरता से विचार नहीं किया गया तो स्थिती भयानक हो सकती है। संभव है कि किसान रोजी रोटी के लिए अन्य क्षेत्रों की ओर रूख कर जाएं। ऐसे में हमें गंभीर खाद्यान्न संकट का सामना भी करना पड़ सकता है। आवश्यहकता है सरकार प्रति वर्ष बाढ़ सहायता के नाम पर करोडों रुपये खर्च करने की बजाए इसका स्थाई हल निकाले ताकि किसान स्वंय और देश का पेट भर सकें। (चरखा फीचर्स)

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