फसल बीमा योजना और बदहाल किसान

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kisan-bimaअरविंद जयतिलक

केंद्र सरकार द्वारा किसानों को फसल बीमा योजना से आच्छादित करने का निर्णय बदहाल कृषि और कर्ज के चक्रव्यूह में फंसे किसानों को उबारने की दिशा में एक ऐसा ऐतिहासिक कदम है। इस योजना के आकार लेने के बाद उम्मीद है कि किसानों को मौसम की मार से चौपट हुई फसल के शोक में न तो आत्महत्या जैसे विभत्सकारी कदम उठाने पडेंगे और न ही उन्हें मुआवजे के लिए दर-दर का ठोकर खाना होगा। नई फसल बीमा योजना के मुताबिक किसानों को खरीफ फसलों पर महज 2 फीसदी और रबी फसलों के लिए महज 1.5 फीसदी प्रीमियम देना होगा। गौरतलब है कि पहले यह बीमा प्रीमियम 15 फीसद होता था। इस योजना में कैपिंग का प्रावधान हटा दिया गया है और अच्छी बात यह है कि इसमें किसानों को फसल के साथ ही जीवन बीमा भी मिलेगा। इसके लिए इस बीमा योजना में निजी कंपनियों को शामिल किया जाएगा। बीमा के क्लेम के लिए किसानों को  इधर-उधर भटकना नहीं होगा। प्राकृतिक आपदा के तुरंत बाद ही 25 फीसद क्लेम सीधे उनके खाते में पहुंच जाएगा। अगर किसानों की फसल ओलावृष्टि, बेमौसम बारिश, आंधी-तूफान से नष्ट होती है तब भी उन्हें मुआवजा मिलेगा। इस उद्देश्य को साधने के लिए ही फसल बीमा को मौजूदा 23 फीसदी से बढ़ाकर 50 फीसदी तक का लक्ष्य निर्धारित किया गया है। योजना के मुताबिक केंद्र सरकार को तकरीबन 8800 करोड़ रुपए खर्च करने होंगे और उतना ही राज्य सरकारों को भी। इस योजना में बंटाई पर खेती करने वालों का भी ध्यान रखा गया है। माना जा रहा है कि इस योजना का सबसे अधिक फायदा पूर्वी उत्तर प्रदेश, बुंदेलखंड, विदर्भ मराठवाड़ा और तटीय उड़ीसा के उन किसानों का होगा जो वर्षों से न सिफ सूखे की मार झेल रहे हैं बल्कि वे कर्ज के बोझ से भी दबे हुए हैं। अभी पिछले ही दिनों नेशनल सैंपल सर्वे की रिपोर्ट से उद्घाटित हुआ कि देश का हर दूसरा किसान कर्ज में डूबा है। रिपोर्ट में कहा गया है कि देश के 9 करोड़ किसान परिवारों में से 52 फीसद कर्ज में डूबे हैं और हर किसान पर औसतन 47 हजार रुपए कर्ज हैं। ‘भारत में कृषक परिवारों की स्थिति के मुख्य संकेतक’ शीर्शक वाली इस रिपोर्ट के मुताबिक सबसे खराब स्थिति आंध्रप्रदेश की है, जहां 93 फीसदी किसान परिवार कर्ज में डूबे हैं। इसी तरह उत्तर प्रदेश में 44 फीसद, बिहार में 42 फीसद, झारखंड में 28 फीसद, हरियाणा में 42 फीसद, पंजाब में 53 फीसद और पश्चिम बंगाल में 51.5 फीसद किसान परिवार कर्ज में डूबे हैं। यह स्थिति कृषि प्रधान देश भारत के लिए किसी त्रासदी से कम नहीं। कृषि मंत्रालय और राष्ट्रीय अपराध रिकार्ड ब्यूरो के मुताबिक कर्ज के जाल में फंसे किसान न सिर्फ बदहाली का जीवन जीने को अभिशप्त हैं बल्कि आत्महत्या कर रहे हैं।

आंकड़ों के अनुसार 2009 में 17 हजार, 2010 में साढ़े 15 हजार, 2011 में 14 हजार और 2013 में साढ़े 11 हजार किसानों ने आत्महत्या की है। यह दर्शाता है कि आजादी के 67 साल सालों में तमाम विकास योजनाओं के बाद भी किसानों की दशा में अपेक्षित सुधार नहीं हुआ है। इसका नतीजा यह है कि देश में किसानों की संख्या लगातार घटती जा रही है। एक आंकड़े के मुताबिक 2001 में देश में 12 करोड़ 73 लाख किसान थे, जिनकी संख्या वर्ष 2011 में घटकर 11 करोड़ 87 लाख रह गयी है। यानी 86 लाख किसान कृषि कार्य से विरत हुए। देश के सबसे बड़े राज्य उत्तर प्रदेश की बात करें तो पिछले 10 वर्षों में 31 लाख किसानों ने खेती छोड़ी है। इसका कारण खेती योग्य जमीनों का कम होना, खेती में लागत का अधिक होना रियल स्टेट के लिए अधिग्रहण है। इसके अलावा प्रकृति पर आधारित कृषि, देश के विभिन्न हिस्सों में बाढ़ एवं सूखा का प्रकोप, प्राकृतिक आपदा से फसल की क्षति और ऋणों के बोझ के कारण बड़े पैमाने पर किसान खेती छोड़ने के अन्य कारण हैं। पिछले एक दशक के दौरान महाराष्ट्र में सर्वाधिक 7 लाख 56 हजार, राजस्थान में 4 लाख 78 हजार, असम में 3 लाख 30 हजार और हिमाचल में एक लाख से अधिक किसान खेती को तिलांजलि दिए हैं। इसी तरह उत्तराखंड, मेघालय, मणिपुर और अरुणाचल जैसे छोटे राज्यों में भी किसानों की संख्या घटी है। आश्चर्यजनक यह कि इस दौरान देश में कृषि मजदूरों की संख्या बढ़ी है। आंकड़े बताते हैं कि वर्ष 2001 में जहां 10 लाख 68 हजार कृषि मजदूर थे, उनकी संख्या 2011 में बढ़कर 14 करोड़ 43 लाख हो गयी। इसका मूल कारण कर्ज, खेती के रकबे में लगातार गिरावट, सिंचाई एवं उर्वरक की अनुपलब्धता और बिजली का अभाव है। आंकड़े बताते हैं कि देश में 1990 से 2005 के बीच 20 लाख हेक्टेयर कृषि भूमि कम हुई है। गौरतलब है कि एक हजार हेक्टेयर खेती की जमीन कम होने पर 100 किसानों और 760 खेतिहर मजदूरों की आजीविका छिनती है।

आज देश में प्रति व्यक्ति कृषि भूमि की उपलब्धता 0.18 हेक्टेयर रह गयी है। 82 फीसद किसान लघु एवं सीमांत किसानों की श्रेणी में आ गए हैं और उनके पास कृषि भूमि दो हेक्टेयर या उससे भी कम रह गयी है। कृषि क्षेत्र का विकास दर भी लगातार घट रहा है। आंकड़ों पर गौर करें तो वर्ष 1950-51 में देश के सकल घरेलू उत्पाद में कृषि की भागीदारी 51.9 थी, जो 1990-91 में 34.9 फीसद रह गयी। आज 2012-13 में घटकर 13.7 फीसद पर आ गयी है। यह सही है कि उद्योग-धंधे, कल-कारखाने एवं सेवा क्षेत्र में सतत विकास की वजह से कृषि की भागीदारी कम हुई है। लेकिन पिछले तीन दशक में कृषि पर निर्भर आबादी में इजाफा दर्शाता है कि गैर-कृषि क्षेत्र में रोजगार के अवसरों का आनुपातिक फैलाव नहीं हुआ है। दूसरी ओर खेती के विकास में क्षेत्रवार विषमता का बढ़ना, प्राकृतिक बाधाओं से पार पाने में विफलता, भूजल का खतरनाक स्तर तक पहुंचना और हरित क्रांति वाले इलाकों में पैदावार में कमी आना और भी चिंताजनक है। आश्चर्य है कि इस दिशा में सुधार का कोई ठोस पहल नहीं हो रहा है। लगातार बढ़ती आबादी, शहरों तथा उद्योगों का विस्तार एवं कृषि योग्य भूमि का अधिग्रहण भी कृषि की समस्या को बढ़ा रहा है। देश में स्पेशल इकोनाॅमी जोन (सेज) और हाइवे निर्माण के नाम पर लाखों हेक्टेयर कृषि योग्य भूमि हड़पा जा चुका है। इकोनामिक सर्वे आॅफ इंडिया की रिपोर्ट बताती है कि देश में उदारीकरण की नीतियां लागू होने के बाद 1990 से लेकर 2005 के बीच लगभग 60 लाख हेक्टेयर खेती की जमीन का अधिग्रहण किया गया है। विडंबना यह कि उसका उपयोग गैर-कृषि कार्यों में हो रहा है। जिन क्षेत्रों में सरकारें खेती की जमीनों को अधिग्रहित कर रही है, उन क्षेत्रों में विस्थापन को लेकर भी विकट समस्या उत्पन हो गयी है। अपनी जमीन गंवाने के बाद किसानों के पास जीविका का कोई साधन नहीं रह गया है। लिहाजा वे खानाबदोशों की तरह जीवन गुजारने को विवश है। विस्थापित किए गए किसानों के लिए सरकार के पास कोई ठोस पुनर्वास नीति नहीं है और न ही उन्हें रोजी-रोजगार से जोड़ने का कोई कारगर तरीका। नतीजा कल तक जो किसान थे वे आज खेतिहर मजदूर हैं। निष्चित रुप से विकास के लिए भूमि का अधिग्रहण किया जाना जरुरी है। लेकिन कृषि योग्य भूमि का सर्वनाश कहां तक उचित है। पड़ोसी देश चीन में भी विकास के निमित्त भूमि का अधिग्रहण किया जाता है। एक आंकड़े के मुताबिक चीन सत्तर हजार किलोमीटर से अधिक हाइवे का निर्माण कर चुका है। लेकिन एक इंच भी कृषि योग्य भूमि का अधिग्रहण नहीं किया है। यही वजह है कि वहां कृषि योग्य भूमि कम होने के बावजूद भी उत्पादन के मामले में वह हमसे आगे है। केंद्र सरकार ने नई भूमि अधिग्रहण नीति लागू की है जिसमें किसानों के हितों का भरपूर ख्याल रखा गया है। सरकार ने संवेदनशीलता दिखाते हुए फसल बीमा योजना को भी लागू कर दी है। उम्मीद है कि यह योजना किसानों के लिए संजीवनी का काम करेगा और कृषि की सूरत बदलेगी।

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