फतवा एक सलाह है, फरमान नहीं

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वसीम अकरम

उत्तर प्रदेश के सहारनपुर में स्थित भारत में मुसलमानों के लिए शिक्षा की सबसे बडी संस्था दारुल ओलूम देवबंद ने मुसलमानों की जिंदगी से जुड़े सवालों पर जवाब देते हुए पिछले साल कई फतवे जारी किया और चरचा में रही. देवबंद ने इस साल 5 जनवरी को भी एक अहम फतवा जारी कर मुस्लिम जगत को संदेहों के घेरे में डाल दिया. फतवे में यह कहा गया है कि, बैंक में काम करने वाले अपने भाई के साथ न रहें, क्योंकि सूदी कारोबार और ब्याज का पढ़ना, लिखना और गिनना इस्लाम में हराम है. इसलाम का दायरा इतना बड़ा है कि इसमें दीन और दुनिया ही नहीं बल्कि दोनों जहान की वो सारी बातें समायी हुयी हैं, जिसके बरक्स आज हम अपनी छोटी बड़ी तमाम बुनियादी चीजों के बारे में सही-गलत का फैसला लेते हैं. लेकिन उन फैसलों को फरमान बना कर जिस तरह से पेश किया जाता है, उससे इस्लाम पर खतरा तो नहीं लेकिन सवाल जरूर खड़ा किया जाता रहा है. दरअसल फतवों का जो मसला है वो सवाल और जवाब का मसला है. अगर किसी शख्स को किसी बात का इल्म नहीं है या अगर वो किसी ऐसी चीज के बारे में जानना चाहता है, तो वह इसलामी विद्वानों से सवाल करके उनसे जवाब हासिल कर सकता है. और यह जो जवाब होता है, वो इस्लामी नजरिये से कुर्आन और हदीस की रोशनी में दिया गया मशवरा होता है, जिसे फतवा कहा जाता है.

अब ये जो दारुल ओलूम देवबंद का फतवा आया है कि ”बैंक में काम करने वाले भाई के साथ नहीं रहना चाहिए,” तो यह पूरी तरह बेबुनियाद है, क्योंकि इसमें उस शख्स की सामाजिक हालात की अनदेखी की गयी है. हदीस में आता है, कि आने वाले दिनों में एक दिन हमारे समाज में सूद इस कदर फैल जायेगा कि जब हम सांस लेंगे तो उसके साथ भी सूद हमारे साथ शामिल होगा. आज दुनिया के किसी कोने में कोई ऐसी जगह नहीं जहां बैंक और ब्याज का कारोबार न होता हो. हां, इस्लाम में सूद हराम है, लेकिन तब, जब हम जानबूझकर सूदखोरी करें. बैंक में काम करना भी आम कारोबार की तरह मेहनत करना है. ऐसे में यह फतवा बेबुनियाद हो जाता है, क्योंकि यह जिस कलम से लिखा गया है, उसमें भी कहीं न कहीं ब्याज शामिल है. हम जो कपडे़ पहनते हैं, हम जो खाना खाते हैं या हम जिन चीजों का इस्तेमाल करते हैं, उन सभी चीजों में कहीं न कहीं से सूद शामिल है. भले ही हमें लगता है कि हम जायज चीजों का इस्तेमाल करते हैं. हम इस सूद से नहीं बच सकते, क्योंकि जिन कंपनियों में हमारे उपभोग की चीजें बनती हैं, वो सब सूद और ब्याज के कारोबार से कहीं न कहीं से संबंधित हैं. ऐसे में सिर्फ बैंक में नौकरी करने वाला शख्स ही सूदखोर नहीं बल्कि सभी कंपनियों में काम करने वाले लोग सूद का पैसा खाते हैं. अगर गौर करें तो इस फतवे से हिंदुस्तान ही नहीं पूरी दुनिया के लोगों को अपने परिवार से अलग होना पड़ेगा, क्योंकि यह सिर्फ भाई पर ही नहीं बल्कि सारे रिश्तों के लिए होगा. इस तरह के फतवों से उन मुसलमानों के दिल में नौकरी को लेकर डर बैठ जायेगा जो बैंक या किसी और ऐसी जगह काम करना चाहते हैं. सबसे अहम बात यह है कि जहां आदमी मजबूर हो जायेगा वहां शरियत नहीं लागू होती.

पाकिस्तान में जियाउल हक के समय में बैंकों को बंद कर दिया गया था, जिससे वहां कई तरह की परेशानियां आ गयीं और लोग पैसों को बचा पाने में नाकाम होने लगे. यह जो माडर्न बैंकिंग है, वो आज की जरूरत है. इस तरह के फतवों से सामाजिक विकास रुकता है. इसलाम ऐसा धर्म है जो कानून, समाज, राजनीति और दूसरे सभी धर्मों को लेकर चलता है, लेकिन पता नहीं क्यों इसके धार्मिक विद्वान इसकी अच्छाइयों की बात नहीं करते. हमेशा ऐसे फतवे देते हैं जिससे लोग असमंजस में पड़ जाते हैं कि वो क्या करें? बारहवीं-तेरहवीं सदी में अरबिया में केमिस्ट्री को लेकर बहुत शोध हुए लेकिन आज विज्ञान पर भी इसलामी विद्वान उंगलियां उठाने लगते हैं.

कुछ दिनों पहले एक फतवा आया था कि मुसलमान लड़कियों और औरतों को मर्दों के साथ काम नहीं करना चाहिए. जहां तक लड़कियों या औरतों के मर्दों के साथ काम न करने का सवाल है, तो इसे फिर इस्लामी तारीख में झांक कर देखने की जरूरत है. शादी से पहले मुहम्मद साहब की बीवी खदीजा ने मुहम्मद साहब को अपने पास काम पर रखा. खदीजा को एक ईमानदार आदमी की जरूरत थी, जो उनके व्यापारिक काफिले को सीरिया और जार्डन तक ले जा सके. अगर मर्दों के साथ औरतों को काम करने से इस्लाम मना करता है, तो उस वक्त ही मुहम्मद साहब, बीवी खदीजा के प्रस्ताव को ठुकरा देते. अगर यह उस वक्त हो सकता था, तो आज आधुनिक समय में क्यों नहीं हो सकता. ये फतवे लोगों द्वारा पूछे गये सवाल के जवाब में मशवरा भर हैं. इन्हें फरमान की तरह लागू नहीं किया जा सकता.

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