खुरदरा हुआ खुदरा व्यापार

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डॉ. आशीष वशिष्ठ

खुदरा क्षेत्र में प्रत्यक्ष विदेशी निवेश को मंजूरी देकर सरकार ने सदियों से चले आ रहे करोड़ों रुपये के खुदरा भारतीय बाजार को खुरदरा कर दिया है। देश में खुदरा बाजार का टर्नओवर प्रति वर्ष करोड़ों रुपये का है जिससे लाखों परिवार अपना भरण.पोषण करते हैं। सरकार ने यह फैसला लेकर लाखों छोटे, मझोले और पटरी दुकानदारों के पेट पर लात तो मारी ही है, वहीं देसी उद्योग.धंधों और कुटीर उद्योग का गला घोटने का काम भी किया है। विपक्ष और व्यापारी संगठन सरकार के इस कृत्य की निंदा कर रहे हैं। निर्णय के पक्ष में सरकार और अर्थशास्त्रियों का अपना तर्क है, उद्योग जगत और संगठनों को इसमें भविष्य की संभावनाएं नजर आ रही हैं लेकिन इन सब के बीच खुदरा बाजार के कारोबारियों, छोटे और मझोले व्यापारियों के वर्तमान और भविष्य का क्या होगा इसकी चिंता किसी को नहीं है। बिना कोई विकल्प सुझाए खुदरा बाजार का गला रेंतने की सरकारी कोशिश का विरोध तो हो रहा है लेकिन इसे जनसमर्थन नहीं मिल रहा है। खुदरा व्यापारियों और दुकानदारों के बाद अगर किसी पर इस निर्णय का असर पड़ेगा तो वो आम आदमी है जो उपभोक्ता और ग्राहक भी है। लेकिन तमाम दूसरे मुद्दों और मसलों की भांति इस काले निर्णय के विरोध में आम आदमी की चुप्पी हैरान करने वाली है।

देश के कर्ताधर्ता, नीति निर्माता, भविष्य नियंता फिलहाल नफाखोरों, बिचौलियों, दलाल और अमेरिकी पूंजीपतियों के दबाव में हैं। एफडीआइ की नीति लागू करना इसी दबाव का परिणाम है। वॉल मार्ट जैसी कंपनिया अपने पक्ष में नीति बनाने के लिए लॉबिंग करती हैं। खुदरा व्यापार के लिए वालमार्ट ने अब तक 650 करोड़ रुपये लॉबिंग पर खर्च किए हैं। एफडीआइ देश के 4ण्40 करोड़ खुदरा व्यापारियों, 17 करोड़ किसानों और ग्रामीण क्षेत्र में रहने वाली 60 प्रतिशत जनता को तबाह करने वाली नीति है। महज विदेशी मुद्रा भंडार को बढ़ाने के लिए विदेशी कंपनियों को अपने यहा बुलाकर देश को महान नहीं बनाया जा सकता। सरकार कहती है कि एफडीआइ से 30 प्रतिशत लघु उद्योगों को फायदा होगा, एक करोड़ लोगों को रोजगार मिलेगा, महंगाई कम होगी, किसानों को फायदा मिलेगा, किसानों के बीच से बिचौलिए गायब हो जाएंगे। लेकिन यह कोरी बयानबाजी है। एक वालमार्ट करीब चालीस दुकानों को प्रभावित करेगा। कहा कि देश में खाद्यान्न के मूल्य और नीति निर्धारण 24 से 26 व्यापारियों के हाथ में हैं। ये वायदा बाजार करते हैं। देश में महंगाई इसी वायदा बाजार से बढ़ी हैं। देश में किसान अपनी मेहनत, पराक्रम से पूरे देश का पेट भर रहे हैं। रिकार्ड खाद्यान्न उत्पादन हो रहा है. लेकिन वायदा बाजार के कारण महंगाई कम नहीं हो रही।

सरकार अपने निर्णय के पक्ष में सुनहरी तस्वीर और उजला पक्ष ही रखेगी ये बात लाजिमी है। दुनिया के सबसे बड़े बाजारों में शुमार भारत में खुदरा व्यापार देश की अर्थव्यवथा की रीढ़ की हड्डी है जिस पर सरकार ने हथौड़ा चलाया है। देश में खुदरा व्यापार से जुड़े लाखों व्यापारी बरसों से कम मुनाफे में आम आदमी की रोजमर्रा की जरूरतों को पूरा करते आ रहे हैं। थोक व्यापार में एफीडीआई की मंजूरी सरकार पहले ही दे चुकी है। खुदरा बाजार में देसी कंपनियों के स्टोर ने खुदरा बाजार और व्यापारियों पर सीधे असर डाला है। आकर्षक ऑफर और कम दाम के कारण इन स्टोर में जुटने लगी है. जिसका सीधा असर गली, मोहल्ले की किराना और सब्जी की दुकानों पर दिखने लगा है. वहीं फेरी वाले और गांव.देहात से कस्बों और गांवों में सब्जी, फल और अनाज बेचने वाले छोटे व्यापारी पर तो इसका सबसे अधिक असर हुआ है। मल्टी ब्रांड की देसी कंपनियों के सैंकड़ों स्टोर देशभर में खुले हैं जिनमें शहरी इलाके की आबादी का छोटा हिस्सा ही खरीददारी करता है। छोटे शहरों, कस्बों और गांव में बसने वाली आबादी जो देश की जनसंख्या का बड़ा हिस्सा है अभी भी परंपरागत हाट, बाजार से ही रोजमर्रा की खरीददारी करती है। स्थानीय बाजार और आसपास के इलाकों से थोक माल खरीदकर खुदरा व्यापार करने वाले कारोबारी स्थानीय जरूरतों और मांग के अनुसार माल खरीदते बेचते हैं जिससे कीमते कंट्रोल में रहती हैं और लोगों को अपनी जरूरत के हिसाब से मनमाफिक उत्पाद भी उपलब्ध हो जाते हैं।

आजादी के 65 वर्षों में सत्ता चाहे जिस भी दल के हाथ में रही लेकिन किसान, छोटे व्यापारी और खुदरा कारोबारियों के बारे में किसी ने भी गंभीरता से नहीं सोचा और उदारवादी नीतियों के नाम पर देसी उद्योग धंधों को नाश करने का काम किया। पिछले छह दशकों में सरकार ने छोटे कारोबारियों के लिए कोई पुख्ता नीति नहीं बनाई कि जिससे देसी उत्पाद अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर अपनी धाक जमा पाते और किसानए उत्पादनकर्ताओं और छोटे कारोबारियों को उनकी मेहनत और लागत का उचित मुनाफा मिल पाताए सरकार का सारा ध्यान कारपोरेट घरानों के हितों पर ही रहा।

सत्तासीन दलों ने हमेशा विदेशी कंपनियों और शक्तिशाली देशों के समक्ष घुटने टेकते हुए उदारवादी नीतियों, विदेशी मुद्रा और अंतर्राष्ट्रीय बाजार के दबाव के तमाम बहाने बनाकर देश के आम आदमी को तो ठगा ही वहीं देसी उद्योग.धंधे और हाट.बाजार को तबाह करने का कुचक्र रचने में कोई कसर नहीं छोड़ी। बदलते वैश्विक माहौल और बढ़ती जरूरतों के हिसाब से अपने घर के दरवाजे विदेशियों के लिए किसी हद तक खोलना तो ठीक हो सकता है लेकिन महत्वपूर्ण बात यह है कि हम मेहमानों को किस कीमत पर अपने यहां बुला रहे हैं। जब विपक्षी दल, व्यापारी संगठन चिल्ला-चिल्लाकर कह रहे हैं कि खुदरा बाजार में एफडीआई की मंजूरी से छोटे व्यापारियों और किसानों को भारी नुकसान होगा लेकिन सरकार मुद्दे की गंभीरता और व्यापकता पर विचार करने की बजाए हठ और कुतर्क पर उतारू है।

विदेशी कंपनियां बेहतर रणनीतिए प्रबंधन और संग्रहण क्षमता के चलते देसी व्यापार और कारोबारियों पर बीस साबित होगी ये बात साफ है। विदेशी उत्पादों के प्रति देशवासियों की मानसिकता भी किसी से छिपी नहीं है. ऐसे में यह तय हो गया है कि आने वाले समय में विदेशी कंपनियां देसी हाट और बाजार पर कब्जा जमा लेंगी और देसी उद्योग.धंधे, किसान और खुदरा कारोबारियों के लिए बाजार में कोई जगह नहीं बचेगी। आम उपभोक्ता को भी विदेशी कंपनियों से मनमाफिक दामों पर वस्तुएं खरीदने के लिए मजबूर होना पड़ेगा। लबोलुबाब यह है कि सरकार ने देसी खुदरा व्यापारियों और दुकानदारों का शटर बंद कराने की पूरी तैयारी कर दी है, जिसका खामियाजा आने वाले समय में पूरा देश भुगतेगा।

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