स्त्री-पुरुष संबंध: पूर्व और पश्चिम

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(एक) साहस
भीड पर एक पत्थर मार कर कुछ कहना चाहता हूँ, कि रूको मेरी बात सुनो। आज, मैं तालियों के लिए नहीं लिख रहा । वैसे दुःख पर तालियाँ कैसी? एक दुःसाहस ही करता हूँ। यह मेरा अपना दृष्टिकोण है। आज ही सुन लो; कल देर हो जाएगी।
एक सुशुप्त ज्वालामुखी देश में उबाल पर है, कब विस्फोट करेगा, कहा नहीं जा सकता। इस लिए चेताना चाहता हूँ।
मेरे कहने का, आधार प्रामाणिक  निरीक्षण है।और, प्रत्येक निरीक्षण वैयक्तिक ही होता है। उसपर भी निरीक्षक की दृष्टि का अपना रंग चढा होता है। इस लिए सचेत हूँ।
पर आप सभी प्रबुद्ध पाठकों पर विचार करने का उत्तरदायित्व है। सोच के पश्चात, आलेख को कूडे में फेंक दे, आपने पढ लिया, यही काफी है। सच स्वयं अपनी शक्ति होता है। उसका बीजारोपण आप के मस्तिष्क में अपना स्थान स्वयं बनाएगा।  आप अपना स्वतंत्र अलग दृष्टिकोण और निरीक्षण भी रखें, तो, विषय की ठीक जानकारी उपलब्ध होगी। सभी को गम्भीर चेतावनी देना मेरा उद्देश्य है।
(दो) अमरीका में, स्त्री पुरुष संबंध:
अमरीका में, बलात्कार का विशेष समाचार नहीं सुनाई देता। यहाँ स्त्री-पुरुषों के दैहिक संबंधों को भी गम्भीरता से नहीं देखा जाता। समाज के मूल्य घटिया ही हैं।संवेदन-शीलता अलग है। और, पश्चिम की प्रथाएँ, रूढियाँ, रीतियाँ, चलन, व्यवहार इत्यादि भी बहुत कुछ अलग ही हैं।
(तीन) रूढियाँ, परम्पराएँ, भाषाका चलन, मान्यताएँ अलग।
पुरुषों के वसतिग्रहों के स्नानघरो में युवा (पुरुष) छात्र निर्वस्त्र स्नान करते दिखेंगे। स्नान घरो में पुरुषों की अलग व्यवस्था होती अवश्य है, पर, पुरुष पुरुष से कुछ छिपाता नहीं है। वैसी ही महिलाओं की भी व्यवस्था होती ही है। जहाँ हम पानी का प्रयोग किए बिना स्वच्छता अनुभव नहीं करते, वहाँ वे कागज के प्रयोग से स्वच्छ अनुभव कर सकते हैं।
ऐसे, रूढियाँ, परम्पराएँ, भाषाका चलन, मान्यताएँ भी अलग हैं। पश्चिम और पूरब में बहुत अंतर है। इस लिए भाषा से जो संप्रेषित होता है, उसका अर्थ अलग ना भी हो, पर उसकी संवेदन-शीलता की मात्रा अवश्य अलग होती है।ऐसी संवेदनशीलता की मात्रा का प्रमाण दिखाना संभव नहीं। फिर भी भारतीय पाठकों के लिए, कुछ निर्देशित किया जा सकता है। ऐसी बहुत सी रूढियाँ हैं, जो सर्व साधारण भारतीय के लिए बहुत महत्व रखती है, पर पश्चिम में उसका इतना महत्व नहीं होता।इस कठिनाई के उपरान्त, भी कुछ कहनेका साहस कर रहा हूँ। मानता हूँ, कि ऐसे आलेख से भारत को कुछ लाभ अवश्य होगा।

(चार)अपरिवर्तनीय प्रक्रिया:
मेरी दृढ मान्यता है, कि, बलात्कार अत्यन्त बुरा है। और मानता हूँ, कि, विवाहेतर संबंध भी बहुत घृणित और अनैतिक होते हैं, जो अंततः स्वस्थ समाज का विनाश करने की क्षमता रखते  है। वहाँ से वापस सुधर कर, समाज पुनः स्वास्थ्य प्राप्त  नहीं कर सकता।यह ( Irreversible Process) अपरिवर्तनीय प्रक्रिया है।यह ऐसा विष है,जिसे एक ही बार,पी कर मरा जा सकता है। मर कर वापस जीवित नहीं हुआ जाता।

(पाँच) मूर्ख की निजी अनुभव से सीख:
बिस्मार्क कहते हैं, कि– **मूर्ख अपने निजी अनुभव से सीखते हैं। मैं दूसरों के अनुभव से सीखना, पसंद करता हूँ।**
**Fools learn from experience. I prefer to learn from the experience of others.**—Otto Von Bismarck
समाज मरने पर फिरसे जीवित नहीं होगा। अपनी सनातनता पर ऐसा अतिरेकी विश्वास रखकर गलती ना करें। इसी प्रकार के ढीले आचरण से कुटुम्ब टूटते हैं।  समाज को नष्ट करने में इसी का बहुत बडा योगदान होता है।
सम्मति से सम्भोग भी अंततः समाज को नष्ट करने की दिशा में ही गति कर रहा है। जब, एक कुटुम्ब टूटता है, तो दो व्यक्ति मुक्त हो जाते हैं। बिना संभोग, संयमित जीवन की कोई संकल्पना भी नहीं है। तो ये दो मुक्त प्राणी , दूसरे दो कुटुम्ब तोडने का संभाव्य  कारण बन जाते  हैं। ऐसा चारों ओर, हो रहा है, ये देखा जा सकता है। इसी प्रक्रिया के बढने से, समाज की सुगठित व्यवस्था  नष्ट हो रही है।  आज अमरिका में,
उन कुटुम्बों की संख्या, जिसमें माता पिता अपनी सगी सन्तानों के साथ रहते हो, मात्र २०-२१ % बची हैं।
(छः) परम्परा वापस खडी नहीं हो सकती।
कुछ प्रगतिवादी इसे स्वीकार नहीं करेंगे।सारे विज्ञापन, दूरदर्शन, समाचार पत्र, संगणक जिन चित्रों को आज कल, प्रसारित करते हैं; ये हमारी अगली पीढियों को नष्ट करने की क्षमता रखते हैं। दुश्चरित्र  और संस्कारहीन, वयस्कों को भी प्रभावित कर सकते हैं। सत्य कटु होता है, कटु ही, लिख रहा हूँ। मुझे लोक प्रियता (पॉप्युलॅरीटी कंटेस्ट) की स्पर्धा जीतनी नहीं है।
(सात) संस्कार कैसे करें?

इन समाचार पत्रों को रोका निश्चित नहीं जा सकता। पर आप अपने सम्पर्क में आये युवाओं को, अपनी सन्तानों को, प्रभावित कर सकते  हैं।

कैसे?
आर्य-समाज और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ इत्यादि की विभिन्न शाखाओं में बालकों को भेजा जा सकता है। अन्य बालकों को, युवाओं को, प्रोत्साहित कर सकते हैं।
आ.विश्व मोहन तिवारी, एयर वाइस मार्शल (से नि) भारत विकास परिषद,चलाते हैं। मैं आप के कार्य से बहुत प्रभावित हूँ। आप को भी चटका कर देखने का आग्रह भरा अनुरोध है। कडी देता हूँ।
https://www.youtube.com/watch?v=Fjuw0hH38lQ .
पहचान के, युवाओं को भी प्रोत्साहित करे।

(आठ) संस्कार की प्रक्रिया
६-७ वर्ष तक बालक अनुकरण से संस्कार ग्रहण करता है। ७ से १२-१३ तक मित्रों (संगत)की देखा देखी। १३  से आगे उसे तार्किक उत्तरों से संस्कारित किया जा सकता है।बाल-किशोर-युवा-मानस, कोमल होता है।

५ इंद्रियों से वह बाहर का वातावरण झेल कर स्मृतियाँ इकठ्ठी करते रहता है। इन स्मृतियों के आधार पर, उसकी इच्छाएँ और व्यवहार बनकर आदत (संस्कार) हो जाता है। जैसा बीज बोया जाएगा, वैसा ही फल प्राप्त होगा। बबूल बोकर आम नहीं मिलता।
आप अनुकरण के लिए वातावरण -और प्रत्यक्ष उदाहरण उपलब्ध कराएं।अच्छे  मित्रों का चयन करें।और महान विभूतियों के चरित्र सुनाए- पढवाएं। सोचिए।
विवेकानन्द जी ने अलग शब्दो में,कहा है;  **मुझे एक शिशु दीजिए, मैं उसे महान बना के दिखा दूंगा।** यह अति संक्षिप्त प्रक्रिया दिखाई है। (वैसे विषय अलग आलेख की सामग्री है )  युवा सन्तानों के बिगडने पर,जीवन भर पछताते हुए मित्र देखें हैं।
(नौ) कुटुम्ब नष्ट होते ही समाज नष्ट होगा।
रोम और यूनान की सभ्यताएँ (संस्कृतियाँ तो वे थी ही नहीं ) नष्ट होने का एक प्रमुख कारण वहां की कुटुम्ब संस्था की अवनति बताया जाता है। हमारी सनातनता का भी एक प्रबल और प्रमुख कारण हमारी सुदृढ  विवाह और कुटुम्ब संस्था है। विवाह को,  हमने संस्कार माना है; और समर्पण भाव को प्राधान्य देकर उसे अभेद्य बनाया है। साथ साथ हमारा कर्तव्य पर भार भी उसे अटूट बनाता है। बाहर का दुष्ट प्रभाव निम्नतम करने के लिए, “पर स्त्री मातृ समान” के आदर्श से, हमने उसे परोक्ष रीति से भी दृढ किया है।
अधिकार के आधार पर विवाह करनेवाले अधिकारों की पूर्ति न होने पर अलग हो जाएंगे। कर्तव्यों की संकल्पना से विवाह करनेवाले परस्पर कर्तव्य करते करते प्रेम और कृतज्ञ भाव की वृद्धि करते रहेंगे। ऐसे, विवाहित जोडे परस्पर हितकारी कर्मों का अनुभव कर, तृप्ति का अनुभव कर सकते है। अधिकार की संविदा से साथ आये हुए जोडे प्राप्ति की इच्छा से पीडित होते हैं। जब अधिकार की पूर्ति नहीं होती, तो, अस्वस्थ और असंतुष्ट हो जाते हैं, और संघर्ष होने लगता  है।
कर्तव्य की भावना, साथ आये हुओं को, एक दूसरे के प्रति आंतरिक प्रेम, और त्याग करने की प्रेरणा देती है। फिर संघर्ष हुआ, तो भी न्यूनतम होता है।
ऐसे ही, हमारी परम्परा ने आज तक हमारी रक्षा ही की है।

(दस) जाति भारत की रक्षक (मिशनरी गुप्त पत्र)
उद्धरण मिशनरियों के। Castes Of Mind-Prof. Dirks से लिए हैं।

{क}
42-W B Addis,letter to Church Board, Coimbatore, (Jan 6 1852)
हरेक मिशनरी के सैंकडों अनुभव थे, जिसमें, उन्हें धर्मांतरण, संभव लगता था, पर जैसे ही जाति हस्तक्षेप करती थी, तो धर्मांतरण रूक जाता था, और निराशा हाथ लगती थी।
पादरी बाबा W B Addis चर्च बोर्ड को लिखे १८५२ के पत्र में यह लिख रहे हैं। (पृष्ठ १४१ डर्क्स)

कि, ”जाति ऐसी बुराई ( उनके लिए) है, जो लम्बे अरसे तक सोय़ी पडी होती है, पर जैसे इसाइकरण की खबर फैली कि, सचेत हो जाती है, और इसाइकरण रुकवा देती है। कभी उसका परिवार ही इसाइकरण रूकवाने के लिए, जाति को बुला लाता है। इस लिए, जाति को हमेशा धर्मांतरण के, प्राथमिक शत्रु के रूप में देखा गया।
{ख}
इतिहास साक्षी है, जहां, जातियां बची नहीं थी, जहां के हिन्दू पहले बौद्ध बन चुके थे, वहां, धर्मांतरण हो गया। [यह बात, नेहरू जी की Discovery of India में, और विवेकानंद जी की, Caste Culture and Socialism में लिखी स्मरण है।]

[ग]
मिशनरी Dubois का कथन page #25 पर लिखा है। उसके अनुसार, जाति के नीति-नियमों ने ही, हमें काम वासना के ( Pornographic )खजुराहो और कोणार्क प्रेरित विकारों से भी बचाया है। यह आज के स्वच्छंद-स्वैर-वातावरण में विशेष ध्यान देने योग्य बिंदू है।

उसके अनुसार ”जाति-व्यवस्था की प्रतिभा ने ,और उसके नीति नियमों, और बंधनों ने ही, भारत को उसी के मंदिरों पर बनी , कामुक शिल्पकला के बुरे परिणामों से भी में बचाकर रखा है।

आगे कहता है, कि यह जाति ही थी, जिसकी प्रतिभा ने, भारत को, परदेशी (सत्ता और ) प्रभाव से बचा कर रखा था ; और साथ साथ अप्रत्यक्ष रूपसे से, हिंदु-धर्म की भी रक्षा की।

[घ] सुवर्ण अक्षरों में लिखता हूँ।

जिसकी , रूढियां और (कानून )नियम, वगैरा बिल्कुल अलग थे; ऐसे पराए धर्म के हुकम तले से हिंदू अनेकानेक बार, गुज़रा हैं, पर फिर भी, उसकी रूढियों में बदलाव लाने की सारी कोशिशे, नाकामयाब साबित हुयी।और पराया शासन, कोई भारतीय परंपरा ओं पर खास प्रभाव नहीं कर पाया।

उसके कथन के अनुसार==>

सबसे पहले और सबसे ज्यादा जाति-व्यवस्था ने ही उसकी(भारतकी) रक्षा की । जाति व्यवस्थाने ही, हिंदुओं को बर्नरता में गिरने से बचाया , और यही कारण है, कि इसाई मिशनरी भी उनके धर्मांतरण के काम में सफल होने की संभावना नहीं है। —– Dubois

सारे उद्धरण Nicholas Dirks की पुस्तक Castes of Mind से लिए गए हैं।

अनुरोध: मुक्त टिप्पणी दें।

8 COMMENTS

  1. श्रीमान, आपके सभी लेख पढ़ने के लिए मैं लालायित रहता हूँ| हर बार की तरह यह भी श्रेष्ठ और जागरण वाला लेख है| बधाई| आपकी बात का हम पूरी तरह समर्थन करते हैं|

    क्या आप कभी आमंत्रण पर हमारे सरकारी उपक्रम में (Nuclear Power Corporation of India Ltd.) आयोजित राजभाषा वार्ता के लिए समय निकाल सकते हैं|

    कृपया email से अवश्य बताएं|

  2. आपने बहुत हि सुन्दर और सार ग्र्भित लेख लिखा है मै आज ये हि सोच र्हा था आप्ने प्रमान स्वारुप जो प्रमाण दिये है वो भि बहुत सहि है।संघ कि शाखा मे संस्कर दिये जाते है पर बोल कर न्हि देते उंनके सामने विवेकनन्द आदि का आद्र्श रखा जाता है और उस्का प्रतिमान ररुप खुद प्रचारक होता है जिस्को देख देख कर स्वय्म्सेवक बहुत सिख्ता है

    • अभिषेक पुरोहित जी—नमस्कार।
      अच्छा लगा-आप की टिप्पणी पढकर।
      वैसे, बहुत समय के पश्चात आप की टिप्पणी दिखाई दी।

      सही कहा आपने। मैं भी उन्हीं संस्कारों का प्रत्यक्ष साक्षी हूँ। और अपने आप को भाग्यवान मानता हूँ।
      क्रिया, बर्ताव और व्यवहार ही जहाँ भाषा बन जाती है, तो, संस्कार गहरा हो जाता है।
      यही अंतर है, संघ में और अन्य संस्थाओं में।

      संघ मे जानेवाला किसी भी जाति का हो, वह हिन्दू बन कर ही बाहर आता है। अन्य राजनीतिज्ञ इसे समझ भी पाते नहीं है।

      शुभेच्छाएँ।

  3. माननीय मधु जी,

    आपके आलेख के सभी बिन्दुओं पर पूर्ण सहमति व्यक्त करता हूँ । ऐसा महत्त्वपूर्ण लेख लिखने के लिए आपको बहुत बहुत धन्यवाद ।

    आज प्राथमिक विद्यालय में भी अध्यापक उद्दण्ड छात्र का ताडन (पिटाई) नहीं कर सकता । क्यूँकि यह विद्यालय के नियम के विरुद्ध है । इस कारण, छात्रों के स्वैर भागते हुए मनों को नियन्त्रित करना असम्भव हो गया है । ऐसे नियम, हमने प्रायः पश्चिमी प्रभाव में ही बना डाले हैं । पश्चिमी विचारधारा, जो स्वयं ही स्वैर है, हमारी संस्कृति को हानि पहुँचा रही है । और इससे बचना भी अत्यन्त कठिन है । आखिर ये स्वैर मानसिकता के बच्चे भी आगे जाकर माता पिता बनेंगे । तब ये अपने बच्चों को क्या सिखाएँगे ?

    आपने लेख में जो विशाल समस्या दर्शाई है, उस के समाधान हेतु क्या किया जा सकता है, इस पर गम्भीर विचार होना चाहिए । आर्य समाज, सङ्घ इत्यादि से जुडने का सुझाव अच्छा है । इस को अत्यन्त प्रोत्साहन देना चाहिए ।

    • प्रिय मानव–
      सही कहा।

      पूर्ण सहमति। आगे प्रतीक्षा कीजिएगा।
      हिमपात के कारण घर बैठे समय मिल गया। आगे देखता हूँ। अभी व्यस्तता कुछ अधिक है।

      शुभेच्छाएँ -साधुवाद।

      मधुसूदन

  4. अच्छा हुआ आपने इस विषय पर अपने विचारो को लेख के रूप मे साझा किया । मै ऐसा सोचती हूँ की एक समझदार व्यक्ति दूसरो की गलतियों से, अनुभवो से ज्यादा सीख सकता है क्योकि अपनी गलतियो और अनुभवों से सीखने के किये स्वयं की जिंदगी छोटी पड जाएगी ।

    • आदरणीया रेखा जी,

      दूसरों के अनुभवों से सीखने का विचार उत्तम है, परन्तु इसे कर पाना कदापि सरल नहीं है ।

      जीवन में अनेकों बार हमें २ मार्ग दिखाई देते हैं, और २ में से एक मार्ग चुनना होता है । पहला मार्ग, जो हमारी अन्तरात्मा को सही लगता है । जो दूसरों के अनुभवों को देख कर शान्त मन से चुना जा सकता है । और दूसरा मार्ग, जो तत्कालीन सुख प्राप्त करा सकता है । जिसके लिए मन मचल जाता है । कहना सरल है, कि शान्त मन से निर्णय लेना चाहिए । परन्तु, करना अत्यन्त कठिन है । क्यूँकि मन के दास हम बन जाते हैं । फिर भी, वर्तमान चर्चा के समय क्यूँकि सभी के मन शान्त होने की सम्भावना अधिक है, इसलिए २ शब्द इस पर कहता हूँ, कि मन का दास होने से कैसे बचा जाए । मेरे मत में, कुछ प्राप्त करने की कामना हमें मन का दास बना देती है । अतः हमें कामना के प्रति सचेत रहना चाहिए और कर्तव्य पालन पर ध्यान देना चाहिए । जब निर्णय लेने का समय आए और २ मार्ग दिखें, तब अपने मन में उछलती हुई कामना पर दृष्टि रखनी चाहिए । कामना पर नियन्त्रण रखते हुए विवेकानुसार मार्ग चुनते हुए तत्कालीन सुख की इच्छा के त्याग का अभ्यास करते रहना चाहिए । आरम्भ में कामना से प्रायः हम पराजित होंगे, परन्तु सचेत होकर उस पर दृष्टि तो अवश्य रख सकते हैं । इस अभ्यास से धीरे धीरे हम विजयी हो सकते हैं ।

    • बहन रेखा जी—-

      समाज की जो सच्चाईयाँ आज सामने दिखती है; प्रारंभ में थीं तो सही; पर उस समय दिखती नहीं थीं। ऊपर ऊपर से ये तथ्य दिखाई नहीं देते।
      आप की टिप्पणी इसी लिए, मेरे आकलन को सत्त्यापन प्रदान करती है; जो मेरे लिए आवश्यक है।

      आप से सहमति ही है। किसी नए स्थान पर प्रवास के लिए भी आप दूसरों से परामर्श करते हैं। इसी लिए पुरखों ने नीतिशास्त्र और सुभाषित बनाकर विवेक की परम्परा गठन की है।
      जब आप रामायण और महाभारत पढते हैं, तो, आप ही आप सीख मिल जाती है।

      बहुत बहुत धन्यवाद।

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