विश्व हिन्दू परिषद के पचास वर्ष

vhpडा० कुलदीप चन्द अग्निहोत्री

दुनिया भर में रहने वाले हिन्दू समाज की पिछले सौ साल में स्पष्ट ही दो श्रेणियाँ हो गईं हैं । हिन्दुस्तान का हिन्दू समाज और हिन्दोस्तान से बाहर रहने वाला हिन्दू समाज । हिन्दोस्तान के बाहर रहने वाला हिन्दु समाज वह है जिसे भारत के यूरोपीय विदेशी शासकों ने लालच देकर एशिया और अफ़्रीका के उन देशों में भेजा , जहाँ उन्होंने अपना साम्राज्य स्थापित किया हुआ था । दरअसल यूरोपीय साम्राज्यवादियों को इन देशों में काम करने के लिये सस्ते या बंधुआ मज़दूर चाहिये थे । यह पूर्ति उन्होंने भारत से की और इस प्रकार हिन्दोस्तान से बाहर भी अनेक देशों में हिन्दू समाज स्थापित हो गया । इस बाहरी हिन्दू समाज पर दोहरी मार पड़ रही थी । यूरोपीय जातियों की ग़ुलामी तो यथावत थी ही । जैसे वे भारत में रहते हुये यूरोपीय साम्राज्यवादी शासकों के ग़ुलाम थे , वैसे ही इन नये देशों में उनकी स्थिति थी । लेकिन नई जगह में उनके आगे अपनी सांस्कृतिक थाती , जीवन मूल्यों , आस्थाओं व पूजा पद्धति को भी बचाये रखने की चुनौती थी । सबसे बड़ा संकट यह कि हिन्दोस्तान से बाहर जाकर बस रहा यह हिन्दू समाज मोटे तौर पर निरक्षर था । यह श्रमिक वर्ग था । इसलिये उसे अपनी हिन्दू सांस्कृतिक थाती को मौखिक परम्परा के माध्यम से ही बचाये रखना था । इतना ही नहीं अमानवीय आर्थिक शोषण के बीच उसे अपनी यह परम्परा सही सलामत आगे आने वाली पीढ़ी को भी सौंप कर जाना था । युगांडा , घाना , मारिशस , त्रिनिनाद , सूरीनाम , फ़ीजी इत्यादि सब देशों की कथा एक जैसी ही है ।
विदेशों में बसे हिन्दू समाज को इस बात की दाद देनी होगी कि उन्होंने अपनी इस सांस्कृतिक थाती की सफलता पूर्वक रक्षा ही नहीं की बल्कि अगली पीढ़ियों तक इसे स्थानान्तरित भी किया । १९४७ में हिन्दोस्तान से भी विदेशी अंग्रेज़ी शासन का अन्त हो गया और सत्ता भारतीयों के ही हाथ आ गई । भारत में तो इस ऐतिहासिक पर्व का जश्न मनाया ही गया लेकिन सबसे ज़्यादा ख़ुशी तो उस हिन्दू समाज को हुई जिसे लालच से दूसरे देशों में ले जाकर बसा दिया गया था । यह ठीक है कि अब इस समाज ने उन्हीं देशों को अपना लिया था और वहाँ ही धरती माँ से भावात्मक भाव से जुड़ गये थे । लेकिन वे इस बात से प्रसन्न थे कि अब वे अपने मूल देश के सांस्कृतिक प्रवाह से जुड़ जायेंगे और जिस सांस्कृतिक थाती की , तमाम विपरीत परिस्थितियों में भी रक्षा की थी , अब उस के बन्धन और भी सुदृढ़ हो जायेंगे ।
इतिहास के इस मोड़ पर हिन्दू समाज दो अलग मोड़ों पर खड़ा नज़र आने लगा । सबसे पहले हिन्दोस्तान के हिन्दू समाज की चर्चा करें । अंग्रेज़ों के चले जाने के बाद , हिन्दोस्तान में शासन पद्धति के लिये , देश में प्रचलित शताब्दियों पुरानी लोकतांत्रिक परम्परा को ही पुनर्जीवित किया गया । ज़ाहिर है इससे भारत के हिन्दू समाज में अलग अलग विचारधारा वाले अलग अलग राजनैतिक दल विकसित होते और ऐसा हुआ भी । हिन्दु समाज अनेक राजनैतिक दलों में बँट गया , इसका अर्थ यह नहीं था कि हिन्दू समाज में फूट पड़ गई थी ।बल्कि यह उसकी स्वस्थ्य चिन्तन स्वतंत्रता का प्रतीक था । राजनैतिक चिन्तन के मामले में विभिन्न धरातलों पर अवस्थित , देश का हिन्दू समाज सामाजिक व सांस्कृतिक धरातल पर सुदृढ़ता से एक था । हिन्दू समाज की इस अभूतपूर्व सांस्कृतिक एकता का संकेत डा० भीम राव आम्बेडकर ने भी भी अपने शोध प्रबन्ध में दिया है । लेकिन लम्बे काल की पराधीनता के कारण इस सामाजिक-सांस्कृतिक में अनेक कुरीतियाँ भी आ गईं थीं और अनेक व्यवस्थाएँ या तो विकृत हो गईं थीं या फिर काल बाह्य हो गईं थीं । इसलिये सामाजिक-सांस्कृतिक धरातल पर हिन्दू समाज के प्रक्षालन की नितान्त आवश्यकता थी । यह तो हुई देश के भीतर के हिन्दू समाज की बात ।
उधर देश के बाहर का हिन्दू समाज एक अलग प्रकार की समस्या से जूझ रहा था । भारत के विदेशी दासता से मुक्त होने पर उन को लगा था कि अब वे अपनी मूल सांस्कृतिक धारा के उद्गम से जुड़ कर , अपने सांस्कृतिक परिवेश को सुरक्षित ही नहीं बल्कि सुदृढ़ भी कर सकेंगे । उनको विश्वास था कि हिन्दोस्तान की नई सरकार इसमें उनकी सहायता करेगी । लेकिन उनके इस विश्वास को शंभुनाथ कपिलदेव -पंडित जवाहर लाल नेहरु की घटना ने धक्का ही नहीं पहुँचाया बल्कि निराश भी किया । शंभुनाथ कपिलदेव त्रिनिनाद के सांसद थे । त्रिनिनाद में हिन्दू समाज में विधिपूर्वक पौरोहित्य कर्म करा सकने वाले विद्वानों का नितान्त संकट था । इसलिये वहाँ के हिन्दू समाज ने उनको भारत भेजा ताकि वे इस काम के लिये कुछ प्रशिक्षित विद्वानों को त्रिनिनाद भिजवा सके । त्रिनिनाद के हिन्दू समाज को विश्वास था कि हिन्दुस्तान में हिन्दोस्तानियों की सरकार आ गई है , इसलिये वे त्रिनिनाद के अपने बान्धवों की सहायता करेंगे ही । लेकिन पंडित नेहरु ने उनके इस विचार को ही दक़ियानूसी बताया और भारत सरकार की पंथनिरपेक्षता की दुहाई देते हुये उनके इस प्रार्थना पत्र को चिमटी से छूने से भी इन्कार कर दिया ।
इस घटना ने हिन्दुस्तान के भीतर के हिन्दू समाज और देश के बाहर के हिन्दू समाज को एक जुट होकर अपनी समस्याओं पर विचार करने के लिये एकत्रित किया । इसकी पहल उस समय के राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सरसंघचालक माधव राव सदाशिव गोलवलकर ने की । इसका दायित्व उन्होंने दादा साहिब आप्टे को दिया था । उसके फलस्वरूप १९६४ में जन्माष्टमी के दिन विश्व हिन्दू परिषद का गठन हुआ था । इस विचार विमर्श में विभिन्न राजनैतिक दलों से ताल्लुक़ रखने वाले वाले विद्वान भी प्रत्यक्ष या परोक्ष रुप से शामिल थे । अकाली दल के मास्टर तारा सिंह इस विमर्श का हिस्सा थे । भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के अनेक लोगों के साथ दादा साहिब आप्टे ने विचार विमर्श किया था । समाजवादी और जनसंघ चिन्तन के लोगों को भी इस प्रक्रिया में शामिल किया गया था । लेकिन ये सभी उस बैठक में किसी राजनैतिक दल के प्रतिनिधि के रुप में एकत्रित नहीं हुये थे बल्कि वे समग्र हिन्दू समाज के प्रतिनिधि के रुप में ही एक स्थान पर दुनिया भर में हिन्दुओं को दरपेश समस्याओं से सामना करने के लिये एक आसन पर बैठे थे । यदि उन्हें इसके राजनैतिक उत्तर ही तलाशने होते तो उन सभी का एक आसन पर आ पाना ही सम्भव न होता । राजनीति किसी भी समाज अथवा राष्ट्रजीवन का एक पक्ष होता है लेकिन उससे भी महत्वपूर्ण होता है उस समाज का सामाजिक और सांस्कृतिक पक्ष । वह सामाजिक-सांस्कृतिक पक्ष राजनैतिक पक्ष से कहीं ज़्यादा प्रभावी और व्यापक होता है । विश्व हिन्दू परिषद का कार्यक्षेत्र हिन्दू समाज का यही पक्ष है । विभिन्न सम्प्रदायों के साधु संत तो इस पूरी प्रक्रिया का हिस्सा थे ही । संकेत स्पष्ट था । हिन्दू के राजनैतिक हित अलग अलग हो सकते हैं लेकिन उसके सांस्कृतिक-सामाजिक उदगम अलग अलग नहीं हैं ।
एक और प्रसंग का ज़िक्र करना जरुरी है । परिषद की स्थापना मुम्बई में हुई थी । अत इसका केन्द्रीय कार्यालय भी वहीं था । बीच बीच में कार्य की सुविधा के लिये कार्यालय दिल्ली ले जाने की बात भी उठती रहती होगी । दादा साहिब आप्टे ने स्पष्ट किया कि दिल्ली देश की राजनैतिक राजधानी है । वहाँ परिषद का कार्यालय ले जाने से परिषद के राजनीतिकरण का भी ख़तरा हो सकता है । इसलिये कार्यालय वहाँ ले जाना उचित नहीं है । क्योंकि विश्व हिन्दू परिषद सामाजिक-सांस्कृतिक स्तर पर विश्व भर के हिन्दुओं की , चाहे उनकी राजनैतिक प्रतिबद्धता कुछ भी हो , प्रतिनिधि संस्था बननी चाहिये । यह दुनिया के सभी हिन्दुओं का एक साँझा व्यास आसन बनना चाहिये । दरअसल राजनैतिक प्रश्नों पर हिन्दू अलग अलग खेमों में दिखाई दे सकते हैं लेकिन जहाँ तक हिन्दू समाज के सामाजिक और सांस्कृतिक प्रश्नों का सम्बंध है वहाँ तो सभी हिन्दू उन प्रश्नों पर एक ही व्यास आसन पर बैठ कर विचार कर सकते हैं । परिषद के संस्थापक महासचिव दादा साहिब आप्टे अच्छी तरह जानते थे कि हिन्दू समाज को सामाजिक-सांस्कृतिक क्षेत्र में मिल रही चुनौतियों का राजनैतिक उत्तर हिन्दू समाज को बचा नहीं पायेगा । यदि सही सामाजिक सांस्कृतिक उत्तर तलाश लिये गये तो हिन्दू समाज समय के क़दम से क़दम मिलाता हुआ आगे बढ़ता ही नहीं जायेगा बल्कि युगानुकूल विश्व के संस्कृतिकरण में अपनी महत्वपूर्ण भूमिका भी निभायेगा । यह हिन्दू समाज का सामाजिक ताना बाना ही था कि वह हज़ार साल तक इस्लाम और चर्च के आक्रमणों का सामना , बिना किसी बड़ी क्षति के कर सका । हिन्दू समाज सदा से गतिशील रहा है । इसमें दार्शनिक प्रश्नों पर तो बहस होती है और मत भिन्नता होने के कारण अलग अलग दार्शनिक समुदाय भी जन्म लेते रहते हैं । कालान्तर में यही दार्शनिक सम्मुदाय विभिन्न सम्प्रदायों का रुप भी धारण कर लेते हैं । लेकिन यह मत भिन्नता हिन्दू समाज की गतिशीलता को बनाय रखती है और उसमें जड़ता को व्याप्त नहीं होने देती । हिन्दू समाज की यह गतिशीलता ही उसकी जीवन्तता और प्राण शक्ति है । लेकिन इसके बावजूद हिन्दू समाज के सामाजिक-सांस्कृतिक उद्गम स्रोतों की निरन्तर सफ़ाई की प्रक्रिया भी चलती रहनी चाहिये । सफ़ाई न हो तो धीरे धीरे कूड़ा कर्कट इक्कठा होने लगता है और भीतर भी काई जमने लगती है । यह प्रक्रिया लम्बे काल तक चलती रहे तो पहचान का ही संकट खड़ा हो सकता है । आज विश्व हिन्दू परिषद के इस व्यास आसन को बने हुये पचास साल हो गये हैं , इसलिये जरुरी है कि इस पचास साल की यात्रा का निष्पक्षता से लेखा जोखा किया जाये

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