फलती-फूलती रहेगी गठबंधन की राजनीति

politicsप्रमोद भार्गव
देश में तेजी से बदल रहे राजनीतिक परिदृष्य के परिप्रेक्ष्य में पांच राज्यों के आए चुनाव परिणामों ने साफ कर दिया है कि गठबंधन की राजनीति आगे भी चलती रहेगी। राष्ट्रीय दलों द्वारा क्षेत्रीय दलों को पराभव का रास्ता दिखाना दूर की कौड़ी ही है। दरअसल 2014 के लोकसभा चुनाव के दौरान प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी समेत भाजपा के अन्य वक्ताओं ने कांग्रेस मुक्त और क्षेत्रीय दलों से मुक्त भारत की बात जोर-शोर से की थी। लेकिन ताजा नतीजों ने साफ कर दिया है कि क्षेत्रीय दलों की राजनीतिक ताकत और पुख्ता हुई है। अखिल भारतीय मानी जानी वाली कांग्रेस और भाजपा को क्षेत्रीय दलों से मेल-बेमेल गठबंधन भविष्य में भी करने पड़ेंगे। भाजपा के लिए पूर्वोत्तर का द्वार गठबंधन की गाड़ी पर बैठकर ही खुला है। वहीं पांडिचेरी में कांग्रेस सहयोगी दल के बूते ही सरकार बनाने जा रही है। हालांकि भाजपा जिस तरह से दसों दिशाओं में अपना वर्चस्व फैला रही है,उससे सबसे ज्यादा संकट कांग्रेस के सामने खड़ा हुआ है,क्योंकि भाजपा,कांग्रेस जमीन पर अपनी राजनीति की फसल लहलहा रही है। केंद्रीय सत्ता में होने के बावजूद क्षेत्रीय दलों से सीधे मुकाबले में उसे मुंह की ही खानी पड़ी है। साफ है,प्रांतीय क्षत्रपों का राष्ट्रीय दलों के पास फिलहाल कोई तोड़ नहीं है।
करीब चार दशक पहले देश में गठबंधन की राजनीति की शुरूआत हुई थी। राष्ट्रीय और क्षेत्रीय दलों में परस्पर समन्वय गठबंधन की राजनीतिक के रूप में एक स्वस्थ्य परंपरा के साथ उभरा था। आपातकाल के बाद जयप्रकाश नारायण के नेतृत्व में उभरा जनता दल राष्ट्रीय फलक पर इस किस्म की राजनीति की पहली शुरूआत थी। इसके बाद पीवी नरसिंह राव और डाॅ मनमोहन सिंह ने कांग्रेस नेतृत्व वाले संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन के तहते केंद्र में सफल सरकारें चलाईं। वहीं अटल बिहारी वाजपेयी ने राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन के तहत सरकार चलाई। वर्तमान में नरेंद्र मोदी सरकार भी इसी गठबंधन के बूते वजूद में आई है। हालांकि गठबंधन होने के बावजूद मोदी के करिश्माई चुनावी नेतृत्व के बूते भाजपा लोकसभा में 282 सीटें जीतकर स्पष्ट बहुमत लाने में सफल हो गई थी। बावजूद भाजपा के चाहने के बाद भी गठबंधन के रास्ते बंद नहीं हुए। बल्कि राजनीति का स्वरूप कुछ इस ढंग से बदला कि राष्ट्रीय स्तर की राजनीति,राज्य स्तर की राजनीति के गठजोड़ करने लग गई। इसका सबसे ज्यादा हैरानी में डालने वाला उदाहरण जम्मू-कश्मीर में पीडीपी के साथ मिलकर भाजपा की सरकार बनना है। जबकि इन दोनों दलों के बीच चुनाव पूर्व कोई तालमेल नहीं था। किंतु किसी भी दल के पास सरकार बनाने लायक बहुमत नहीं होने की लाचारी ने दो धुर विरोधी दलों को साझेदारी के लिए मजबूर कर दिया।
दरअसल क्षेत्रीय दल जाति, संप्रदाय के साथ कुछ अन्य क्षेत्रीय समस्याओं के मुखर पैरोकार होते हैं। भाषा और क्षेत्रीय संस्कृति को भी वे उपराष्ट्रीयताओं के रूप में भुनाने का काम करते हैं। ममता बनर्जी का तो मां,माटी और मानुष मंत्र ही रहा है। इस मंत्र के बूते उन्होंने 2011 में पश्चिम बंगाल से विचारधारा आधारित 34 साल से सत्ता में काबिज रहे वामदलों को उखाड़ फेंका था। तब ममता ने कांग्रेस के साथ गठबंधन किया था। किंतु अब बाजी पलटी हुई थी। कांग्रेस वामदलों से मिलकर चुनाव लड़ रही थी,जबकि तृणमूल कांग्रेस अपने बूते चुनाव लड़ी। इस बार ममता के सामने बंगाल में उभरती हुई नई राजनीतिक ताकत के रूप में भाजपा भी थी। भाजपा ने गोरखा मुक्ति मोर्चा से गठबंधन करके सभी सीटों पर चुनाव लड़ा था। वामपंथियों को पराजय की धूल ममता 2011 में ही चटा चुकी थीं। इस मर्तबा वाम और कांग्रेस के गठजोड़ के मंसूबों पर भी उन्होंने पानी फेर दिया। पिछली बार की तुलना में उनका वोट प्रतिशत भी बढ़ा और सीटें भी 184 से बढ़कर 211 हो गईं। ममता के करिश्मे के आगे भाजपा गठबंधन का भी कोई जादू नहीं चला। उसे मात्र 6 सीटों पर संतोष करना पड़ा। नेताजी सुभाष बोस के परिजनों को भी जनता ने नकार दिया। बावजूद बंगाल में भाजपा को पैर रखने लायक जगह मिलना भी एक बड़ी कामयाबी है।
पूर्वोत्तर के असम में भाजपा ने बड़ी जीत हासिल करके यह संकेत दे दिया है कि सात बहनों के नाम से जाने वाले इस पर्वतीय क्षेत्र के अन्य राज्यों में भी उसकी राजनीति का विस्तार होने जा रहा है। दिल्ली और बिहार से चोट खाई भाजपा ने असम में अपनाई राणनीति को गंभीरता से लिया। यहां शुरूआत में ही अमित शाह ने कांग्रेस के बागी हेमंत शर्मा को भाजपा में शामिल करके तरुण गोगोई की धड़कने बढ़ा दी थीं। इसके बाद असम गण परिषद्,बोडो पीपुल्स फ्रंट और दो अन्य क्षेत्रीय दलों से गठबंधन करके अपनी शक्ति बढ़ा ली। इन बहुदलों के एकरूप हो जाने के नतीजतन ही भाजपा असम में मुस्लिमों की 34 फीसदी आबादी होने के बावजूद मुकाबले में सफल रही। मुस्लिमों के बूते असम की राजनीति में दखल बनाए रखने वाले यूडीएफ के अध्यक्ष बद्रूद्दीन अजमल को स्वयं मुंह की खानी पड़ी। हालांकि बदरूद्दीन ने आरजेडी और जेडीयू के साथ गठबंधन करके चुनाव लड़ा था। राम माधव भी यहां भाजपा के प्रमुख रणनीतिकारों में से एक थे। भाजपा ने यहां दिल्ली और बिहार की भूल न दोहराते हुए बतौर मुख्यमंत्री सर्बानंद सोमोवाल का चेहरा आगे करके चुनाव लड़ा और बांग्लादेश घुसपैठियों द्वारा राज्य का जनसंख्यात्मक घनत्व बिगाड़ने के हालात को मुख्य मुद्दा बनाया। अब भाजपा गठबंधन ने 87 सीटें जीत कर पूर्वोत्तर के अन्य राज्यों में अपने पैठ को बढ़ाने के अवसर बढ़ा लिए हैं।
तमिलनाडू में जयललिता ने लगातार दूसरी बार जीत हासिल करके नया इतिहास रचा है। यहां जयललिता ने पांच दलों से गठबंधन करके 7 सीटें उन्हें दी थीं। एम करूणानिधि की पार्टी द्रमुक ने कांग्रेस और दो छोटी पार्टियों के साथ गठबंधन किया था। वहीं भाजपा ने तीन लघु-दलों के साथ चुनाव लड़ा था। यहां आर्थिक विकास दर गिरने के बावजूद अन्नाद्रमूक ने जीत हासिल की तो इसलिए कि उसने गरीबों को मुफ्त उपहार खूब बांटे और सस्ती दरों पर अम्मा ने बोतलबंद पानी भी पिलाया। 2011 की तुलना में अन्ना द्रमुक का यहां 2.5 प्रतिशत वोट बढ़ना इस बात की तस्दीक है कि तमिलनाडू में द्रमुक के युग का अंत होने जा रहा है। वैसे भी करूणानिधि अब उम्र के जिस पड़ाव पर हैं,वहां उन्हें जब तीन पत्नियों से जन्में पुत्रों को एक रखना संभव नहीं हो रहा है, तो भला गठबंधन का नेतृत्व कैसे संभालेंगे ?
केरल में एक बार फिर से परंपरा दोहराई गई है। यहां 1982 से हर पांच साल में सत्ता बदल रही है। यहां कांग्रेस के नेतृत्व में यूडीएफ की सरकार थी। ओमान चांडी मुख्यमंत्री थे। कांगे्रस गठबंधन की सरकार को 92 साल के अच्युतानंदन ने पराजय का स्वाद चखा दिया। लेफ्ट डेमोके्रटिक फ्रंट की जीत के बाद लगता है,वामदलों की राजनीतिक ताकत देश के नक्शे पर अभी बनी रहेगी। हालांकि उसे नई चुनौती के रूप में भाजपा से सामना करना होगा। केरल में भाजपा ने एक सीट जीत कर अपना खाता खोल लिया है। साफ है,सुदूर दक्षिण के इस प्रांत में दक्षिणपंथी विचारधारा भी अब उबाल मारती रहेगी। हो सकता है,कांग्रेस के सिमटते दायरे के चलते कालांतर भाजपा कांग्रेस की जगह ले ले।
कांग्रस ने केंद्र शासित प्रदेश पांडिचेरी में 15 सीटें जीत कर अपनी थोड़ी लाज बचा ली है। डीएमके सहयोग से उसकी सरकार बनना तय है। मसलन गठबंधन की महिमा बनी रहेगी। बदलते राजनीतिक परिदृष्य में भाजपा कांग्रेस की जगह लेती जा रही है। भाजपा क्षेत्रीय दलों से किए गठबंधन के सहारे उत्तरी, पष्चिमी और दक्षिणी भारत में अपनी जगह बनाती जा रही है। जम्मू-कश्मीर में पीडीपी के साथ उसकी सरकार है तो आंध्र-प्रदेश में वह चंद्रबाबू नायडू के साथ है। कर्नाटक में जनता दल के साथ मिलकर ही उसने दक्षिण का द्वार अपने लिए खोला था। असम में भी भाजपा ने क्षेत्रीय दलों के साथ मिलकर विजय पताका फहराई है। इससे लगता है न तो तत्काल भारत कांग्रेस मुक्त होने वाला है और न ही क्षेत्रीय दलों की महिमा घटने वाली है। दिल्ली, बिहार, उड़ीसा, महाराश्ट्र, पश्चिम बंगाल, तमिलनाडू पंजाब और उत्तर-प्रदेश जैसे प्रमुख राज्यों में क्षेत्रीय दल ही सत्ता पर काबिज हैं और उनके क्षत्रपों का जलवा बरकरार है। इस लिहाज से फिलहाल तो यही कहा जा सकता है कि राष्ट्रीय दलों के पास अभी क्षेत्रीय दलों का कोई तोड़ नहीं है।

2 COMMENTS

  1. एक दलीय शासन का समय बाईट युग की बात हो गयी है , जब तक जनता शिक्षित नहीं थी , राजनीतिक करती थी तब तक ही कांग्रेस ने मनमानी से राज कर लिया अब विभिन्न विचारों के लोग राजनीती में आ गए हैं , समाज को भी धर्म , जाति व सम्प्रदाय के आधार पर कांग्रेस ने सत्ता में रहकर इतना बाँट दिया है कि राजनीति को इन्होने जकड लिया है , अब कोई बड़ा परिवर्तन ही इसको बदल सकेगा

  2. भाजपा ने सिर्फ कांग्रेस मुक्त भारत का नारा दिया था श्रेत्रिय दलों से मुक्त भारत की बात आप बढाचढाकर कर रहे हैं ।

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