खाद्यान्न महंगाई पर देश में सन्नाटा क्यों?

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श्रीराम तिवारी

साल-२०१२ का आगमन भारत के परिद्रश्य में हर नए साल की तरह ही हुआ,किन्तु आर्थिक मोर्चे पर एक विचित्र बदलाव आया जो पढने -सुनने में सुखद और फलितार्थ में बड़ा ही निराशाजनक मालूम होता है.सरकारी आंकड़ों के मुताबिक विगत २४ दिसंबर-२०११ को समाप्त हुए सप्ताह में खाद्द्य मुद्रा स्फीति दर -३.३६ फीसदी पर आ चुकी थी.उससे ठीक एक साल पहले यानि २४ दिसंबर-२०१० को यह आंकड़ा २०.८४ फीसदीथा.अमेरिका ,फ़्रांस,ब्रिटेन,यूरोप, और जापान आदि देशों में खाद्द्य मुद्रा स्फीति का आकलन उपभोक्ता मूल्य सूचकांक के आधार पर किया जाता है ,जबकि भारत में यह आकलन थोक मूल्य सूचकांक पर निर्धारित किया जाता है.वास्तव में अर्थव्यवस्था से सम्बंधित इस महत्वपूर्ण खबर पर जनता कीठोस प्रतिक्रिया का न होना गंभीर चिंता का विषय है.

इन दिनों ’भृष्टाचार’उन्मूलन ,पूंजी निवेश,आधारभूत अधोसंरचना और लोकतंत्र के सभी अंगों की अपनी-अपनी स्वायत भूमिका को लेकर मीडिया में काफी चर्चा है किन्तु महंगाई से जुडी इस सबसे महत्वपूर्ण खबर कि-खाद्द्य मुद्रा स्फीति दर गिरते-गिरते न केवल शून्य पर बल्कि ऋणात्मक स्तर तक जा गिरी है;कोई खास चर्चा इस सन्दर्भ में किसी भी सक्रीय और कारगर फोरम में नहीं हो पा रही है. खाद्द्य मुद्रास्फीति दर की गिरावट से मुझे एकबारगी खुशफहमी हुई कि चलो अब कमसे कम खाद्द्य वस्तुएं तो सस्ती मिलेंगी!लेकिन जब इस बाबत अर्थ शाश्त्रियों के बजाय बाज़ार की हकीकत से रूबरू हुए तो मालूम हुआ कि आम आदमी के लिए आसमान छूती महंगाई से बहरहाल इस पूंजीवादी अर्थ व्यवस्था में कोई राहत मिलने वाली नहीं है.

जिस वक्त खून को जमा देने वाली कड़ाके की ठण्ड में कोई वेसहारा,निर्धन,बीमार,अपाहिज और लाचार अपने अस्तित्व के लिए संघर्षरत होता है ;ठीक उसी कड़ाके की ठण्ड में किसी वातानुकूलित महंगे होटल में पूँजी के लुटेरों और भृष्टाचार की कमाई के अलंबरदारों की औलादें क्या कर रही होतीं है ?सूरा -सुन्दरी और अधुनातन भौतिक सुख संसाधनों पर गुलछर्रे उड़ाने वालों को महंगाई के इंडेक्स की फ़िक्र क्यूं होने लगी?आटे-दाल का भाव जानने की जिन्हें कभी जरुरत ही न पड़े ऐंसे अधम मनुज यदि राज्य सत्ता की द्योंडी पर मथ्था टेकते हों तो उन्हें बर्दास्त करना महा पाप है. इस मानव निर्मित दुरावस्था और अमानवीय असमानता के खिलाफ अंतहीन संघर्ष का सिलसिला बहुत पुराना है,किन्तु आधुनिकतम तकनीकी विकाश,लोकतंत्रात्मक व्यवस्था,स्वाधीनता के इस दौर में- जबकि संचार एवं सूचना प्रोद्द्योगिकी ने न केवल मानव मात्र की व्यष्टि चेतना को जागृत किया है अपितु कतिपय तानाशाही से आक्रान्त राष्ट्रों की जनता को आंदोलित भी किया है -स्वनामधन्य स्वयम्भू तथाकथित योगियों,बाबाओं ,समाज सुधारकों और जन-नायकों की विमूढ़ता धिकार योग्य है.ये ’वतरस के लालची’और ढपोरशंखी गैर जिम्मेदार लोग आवाम को उस सरकार के खिलाफ खड़ा करने के लिए कटिबद्ध हैं जिसका प्रधानमंत्री न तो सत्ता का लालची है और न ही भृष्टाचार में स्वयम लिप्त है.ये बात अलहदा सही है कि भारत राष्ट्र की आजादी के तत्काल बाद से ही सर्व व्यापी भृष्टाचार का वैक्टीरिया इस देश को खोखला करने में जुट गया थाऔर उसने पूरे तंत्र को अपनी चपेट में लिया था..वर्तमान सरकार कोतो विरासत में एक महाभ्रुष्ट व्यवस्था मिली थी.आज जो लोग अचानक भृष्टाचार के नाम पर राजनैतिक रोटियाँ सेकने की कोशिश कर रहे है उनसे मेरा अनुरोध है कि वे वर्तमान सरकार की सबसे बड़ी और भयानक गलती के खिलाफ आवाज बुलंद करें. वर्तमान सरकार का सबसे बड़ा अपराध है गलत आर्थिक नीति.आज भले ही भारत भर के गोदाम खाद्यान्न से ठसाठस भरे है किन्तु देश के २० करोड़ निर्धन -नंगे-भूंखों सर्वहारा जन अभी भी बंचित है.देश खाद्यान्न में कमोवेश वैश्विक स्थिति के सापेक्ष बेहतर स्थिति में है इसके लिए देश के किसानों और सरकार दोनों का शुक्रिया किन्तु जब सरकार की तथाकथि त उदारीकरण ,भूमंडलीकरण की नीतियाँ वांग दे रही हों तो दीगर मुल्कों द्वारा भारत के खादायान्न भंडारों पर उनकी कुद्रष्टि होना स्वाभाविक है.परिणाम स्वरूप खाद्यान्न निरंतर महंगा होकर खुदरा बाज़ार में आम जनता तक पहुँचता है.

जिनकी क्रय शक्ति गाँव में २० और शहर में २६ रुपया रोज़ हो उनका बाज़ार की ताकतों से मुकाबला कैसा?इसीलिये निरंतर बड़ी तेजी से गरीब वर्ग भुखमरी के गर्त में धकेला जा रहा है. ये बात सही है कि दुनिया भर में बढ़ रही अनाज की कीमतों के लिए एक ओर कतिपय मुल्कों में जनसंख्या विस्फोट और दूसरी ओर मासाहार ,जैव ईधन,सट्टेबाजी तथा उत्पादन में कमी इत्यादि को जिम्मेदार ठहराया जा सकता है ;किन्तु भारत में लगभग हर आवश्यक खाद्यान्न के रिकार्ड उत्पादन के वावजूद,खाद्यान्न के इंडेक्स में गिरावट के वावजूद खुदरा बाज़ार में चीजों के दाम नहीं घटाए जाने पर आम जनता की चुप्पी और विपक्ष का इस मुद्दे पर आंदोलित नहीं होना किस बात को इंगित करता है?

भृष्टाचार ,कालाधन,लोकपाल ,आरक्षण तथा विदेशी पूँजी विनिवेश जैसे मुद्दों पर तब तक कोई कारगर सफलता नहीं मिल सकेगी जब तक देश की एक तिहाई आबादी को कम से कम एक जून का भोजन नसीब नहीं हो जाता.सत्ता पक्ष और प्रमुख विपक्ष के हाथ से जन सरोकारों की लगाम छूट चुकी है.महंगाई का घोडा वेलगाम हो चूका है ,सभी उपभोक्ता वस्तुओं की कीमतों पर सरकार का कोई नियंत्रण अब नहीं रहा.सब कुछ बाज़ार के हवाले और बा ज़ार के रहमोकरम पर छोड़ दिया गया है.जनता के प्रति कोई जबाब देही नहीं रही.सवाल उठाना चाहिए कि जब सब कुछ बाज़ार को तय करना है तो सरकार के होने का क्या मतलब है?यह सवाल उनसे जो सत्ता में हैं ,यह सवाल उनसे भी जो सत्ता में आने के लिए बेताब है और राज्यों की विधानसभाओं के चुनावों में आम जनता के वोट के याचक हैं ; जो गैर राजनीतिक बिसात पर शुद्ध राजनीती के तलबगार हैं उनसे भी यह सवाल किया जाना चाहिए कि मुनाफाखोरों,सटोरियों ,मिलावातियों,जमाखोरों से उनका ऐंसा क्या रिश्ता है कि उनके खिलाफ एक शब्द नहीं निकलता ….

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