विदेशी निवेश को आमंत्रित करती महंगाई

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प्रमोद भार्गव

शराबियों के खुमार को उतारे के लिए जिस तरह से नशे की एक और खुराक की जरुरत पड़ती है, कुछ ऐसे ही बद्तर हाल में हमारे आर्थिक सुधार पहुंचते दिखाई दे रहे हैं। केंद्र सरकार द्वारा मंहगाई बढ़ाते रहने का खेल ऐसे हालात बना देने का पर्याय रहा है, जिसके परिवेश में बहुराष्टीय कंपनियों और प्रत्यक्ष पूंजी निवेश को आमंत्रित किए जाने का वातावरण बना रहे इसलिए केंद्र द्वारा मंहगाई थामने के जो भी फौरी उपाय किए गए, आखिर में वे मंहगाई बढ़ाने वाले और रोजगार में लगे लोगों को रोजगार से बाहर कर देने के कारक ही साबित हुए। बीते कुछ दिनों में मानव विकास की मौजूदा स्थिति की हकीकत को बयान करने वाले जितने भी सर्वेक्षण सामने आए हैं, वे भारत के कथित आर्थिक विकास का ऐसा विद्रूप चेहरा सामने लाते हैं, जो भय और लाचारी की शिकनों से भरा है। विकास की ऐसी ही क्रूर सच्चाईयों पर पर्दा डालने के लिए प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह को बार-बार विदेशी पूंजी निवेश की जरुरत पड़ रही है। चूंकि अब निवेश आधारित कथित विकास के परिणाम, प्रत्यक्षरुप से घातक दिखाई देने लगे हैं, इसलिए इनसे बचने की जरुरत है, न कि इन्हें दोहराने की।

दरअसल केंद्र सरकार जान-बूझकर ऐसी नीतियां अपनाकर, ऐसे हालात उत्पन्न करने में लगी है, जिससे मंहगाई उत्रोत्तर बढ़ती रहे और बहुराष्टीय कंपनियों को आमंत्रण की पृष्ठभूमि तैयार होती रहे। नवउदारवादी नीतियों के अतंत: पूरी दुनिया में यही परिणाम निकले हैं। इसीलिए मौजूदा पन्द्रवी लोकसभा में मंहगाई पर कई मर्तबा चर्चा होने व सरकार द्वारा बार-बार भरोसा जताए जाने के बावजूद नतीजा शून्य ही रहा है। यह भी तब है जब भारत गेंहू, चावल और दूध उत्पादन में शिखर पर है। इसी बूते भारत इतना सक्षम है तथा उसके पास इतने प्राकृतिक संसाधन हैं कि उसे न तो विश्व बैंक और अंतरराष्टीय मुद्रा कोष से कर्ज लेने की जरुरत है और न ही अधो-संरचना के विकास व विस्तार के लिए विदेशी पूंजी निवेश की जरुरत है ?

मंहगाई पर नियंत्रण के लिए सबसे पहले उस विदेशी सोच से मुक्ति पाने की जरुरत है, जिस सोच को प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह, योजना आयोग के उपाघ्यक्ष मोंटेंक सिंह आहलूवालिया और गृहमंत्री पी.चिदंबरम् की तिगड़ी गलत नीतियां अपनाकर इसे आगे बढ़ाने का काम करती रही है। इन नीतियों पर अंकुश लगाने के साथ वायदा कारोबार और नकली नोटों के बढ़ते चलन पर भी लगाम लगाने की जरुरत है। किसानों की दुर्दशा और मंहगाई बढ़ने के प्रमुख कारणों में वायदा को जिम्मेबार बताया जा रहा है, बावजूद, ऐसी कौन-सी लाचारी है, जिसके चलते इस डब्बा-कारोबार को प्रतिबंधित नहीं किया जा रहा है ?

भूमण्डलीय नवउदारवादी मुक्त-अर्थव्यवस्था के चलते यह एक बार माना जा सकता है कि इस कारण भारतीय अर्थव्यवस्था को मजबूती मिली है। लेकिन इसके नतीजे समावेशी विकास के पर्याय नहीं रहे, नतीजतन बेतहाशा असमानता का सामना देश के उस गरीब को करना पड़ा जो सदियों से लाचारी और जिल्लत का जीवन जीने को मजबूर रहा है। भारत के परिप्रेक्ष्य में इस हकीकत को बयान उस पूंजीवादी ‘आर्थिक सहयोग व विकास संगठन’ ने भी किया है, जिसके सदस्यों में अमीर देशों के पूंजीपति बहुमत में हैं। इस रिपोर्ट के मुताबिक 1992 से पहले, मसलन उदारवादी नीतियों के देश में आगमन से पहले हमारे यहां उच्च और निम्न लोगों की आमदनी के बीच महज दोगुने का फर्क था, जो अब बढ़कर 12 गुना हो गया है। बतौर मिसाल यदि 1992 से पूर्व उच्च आय वर्ग का व्यक्ति 20 रुपए रोज कमाता था, तो निम्न आय वर्ग का व्यक्ति 10 रुपए आसानी से कम लेता था। जबकि मौजूदा दौर में उंची आय के लोग 120 रुपए रोज कमा रहे हैं। मसलन आय में अंतर 12 गुना बढ़ा है। इस रिपोर्ट की एक और खासियत यह है कि इस अध्ययन में उच्च आयवर्ग का व्यक्ति उसे माना गया है, जो उच्च आय वर्ग से थोड़ा नीचे और निम्न मध्य वर्ग से थोड़ा-सा उपर जीवन-यापन कर रहा है। यदि देश के उद्योगपति, राजनेता या नौकरशाह की आमदनी से निम्न आय वाले व्यक्ति की तुलना की जाए तो यह हैरतअंगेज अंतर रेखांकित करने वाली साबित होगी ? इसलिए इस तुलना को अव्यावहारिक नहीं कहा जा सकता है।

लोकसभा के चालू सत्र में बढ़ती मंहगाई पर सफाई देते हुए वित्त मंत्री प्रणव मुखर्जी ने कहा कि विभिन्न वैश्विक घटनाओं का प्रभाव भारतीय अर्थवयवस्था पर पड़ने की वजह से सकल घरेलू उत्पाद की वृध्दि दर नौ फीसदी से घटकर 5.8 फीसदी रह गई। जबकि जीडीपी में यह गिरावट बेलगाम हुए भ्रष्टाचार के कारणों से आई है। घोटालों की निरंतरता ने देश के उभरते स्वरुप पर जबरदस्त आघात किया है। घोटालों के कारण न केवल आर्थिक विकास की रफतार सुस्त हुई, साथ ही सरकार प्रशासनिक दखल को महत्व देने में भी विवश नजर आई। नतीजतन आर्थिक क्षेत्रों में चहूं ओर गिरावट दिखाई दे रही है।

खनिज उत्खनन के क्षेत्र में तीन फीसदी की गिरावट कर्नाटक, उड़ीसा और गोआ जैसे राज्यों में न्यायालयों द्वारा लौह अयस्कों के खनन पर पाबंदी लगा देने के कारण आई है। ये हालात गैर-कानूनी ढंग से उत्खनन किए जाने के पैदा हुए। यही हालत मध्यप्रदेश और छत्तीसगढ़ में निर्मित होने जा रहे हैं। खनिज के बाद विकास दर में जो गिरावट दर्ज की गई है, वह विनिर्माण क्षेत्र है। उंची बैंक ब्याज दरें और बेलगाम मंहगाई की वजह से इस क्षेत्र में वृध्दि दर 8 फीसदी से गिरकर 2.7 फीसदी पर आ गई। कृषि क्षेत्र में भी बद्तर हालात हैं। 2010 में इसी अवधि के दौरान कृषि विकास दर 5.4 फीसद थी, जो घटकर 3.2 फीसदी रह गई है। यही कारण है कि किसान कर्ज के जाल से उभर नहीं पा रहा है।

राष्टीय नमूना सर्वेक्षण की ताजा रिपोर्ट के मुताबिक देश के आधे से ज्यादा किसान कर्ज में इस हद तक डूबे हैं कि केंद्र द्वारा राहत पैकेज दिए जाने के बावजूद वे ऋण-मुक्त नहीं हो पा रहे हैं। ऐसे किसानों की सर्वाधिक संख्या उत्तर-प्रदेश में है। हाल ही में सुषमा स्वराज ने संसद में जानकारी दी कि विदर्भ में 13 कपास किसानों ने कपास के वाजिब मूल्य न मिल पाने के कारण आत्महत्या की है। इन्हीं सब हालातों की पड़ताल करके अंतरराष्टीय पारदर्शिता संस्थान ने भी यह तस्दीक की है कि भारत में भ्रष्टाचार लगातार बढ़ रहा है। भ्रष्टाचार संबंधी 183 देशों की वार्षिक रिपोर्ट में, पिछले साल भारत जहां 87 वें अनुक्रम पर था, वह अब गिरकर 95 वे नंबर पर आ गया है। जब देश भ्रष्टाचार से जुड़े किसी भी मुद्दे पर मुस्तैदी से लड़ता दिखाई नहीं दे रहा है, तो विकास को पारदर्शिता की कसौती पर कसने से तो यही परिणामों की उम्मीद की जाएगी ? बहरहाल केंद्र सरकार यदि भ्रष्टाचार पर पुरजोरी से लगाम कसने का वीड़ा उठाले तो उसे आर्थिक सुधारों के लिए विदेशी पूंजी की जरुरत नहीं रह जाएगी। क्योंकि आखिरकार तो हमारी मांग और आपूर्ति स्थानीय खनिज संसाधनों और कृषि से ही पूरे होते हैं ? किंतु अन्ना हजारे के जनलोकपाल की जिस तरह से उसने उपेक्षा की है उससे तो लगता है केन्द्र सरकार भ्रष्टाचार से मुक्ति के उपायों की अनदेखी कर रही है।

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  1. मैं आज भी इस प्रश्न को दुहरा रहाहूं कि मुझे अभी तक यह समझ में नहीं आया कि जब विश्व के सभी राष्ट्र जिसमे अमेरिका और चीन भी शामिल हैं, डाईरेक्ट विदेशी पूंजी निवेश का स्वागत करते हैं तो हम लोग इसके इतने विरुद्ध क्यों हैं?

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