विदेशी भाषा और भारतीय भाषाओं के मीडिया की प्राथमिकताएं

लेखक : डा. कुलदीप चन्द अग्निहोत्री

भारत में मीडिया की दो समांतर धाराएं प्रत्यक्ष दिखाई देती हैं। एक धारा है विदेशी भाषा के मीडिया की और दूसरी धारा है भारतीय भाषाओं के मीडिया की। भारत में विदेशी भाषा का मीडिया मुख्य तौर पर अंग्रेजी भाषा तक ही सीमित है। पुदुच्चेरी और में फ्रांसीसी भाषा का भी थोड़ा बहुत मीडिया है और गोआ दमन दीव में पुर्तगाली भाषा की कुछ पत्र-पत्रिकाएं भी निकलती हैं। गोवा से प्रकाशित पुर्तगाली दैनिक ‘ओ हेराल्डो’ पिछले कुछ दिनों से अब अंग्रेजी में भी प्रकाशित होने लगा है। भारतीय भाषाओं की पत्रकारिता में सभी भारतीय भाषाओं की शमूलियत है।

पिछले दिनों की तीन घटनाओं को आधार बनाकर विदेशी भाषा के मीडिया और भारतीय भाषा के मीडिया की प्राथमिकताओं का विश्लेषण किया जाना आवश्यक है। ये तीन घटनाएं हैं गुजरात के विधानसभा चुनाव, रामसेतु आंदोलन, विशेषकर 30 दिसंबर को दिल्ली में रामेश्वरम रामसेतु रक्षा मंच की ओर से की गई विशाल राष्ट्रीय महासभा और उड़ीसा के कंधमाल जिला में स्वामी लक्ष्मणानंद सरस्वती जी महाराज पर क्रिसमस के दिन ईसाई संगठनों द्वारा किया गया घातक आक्रमण। इन तीनों घटनाओं का मीडिया में विवरण जिस प्रकार छपा या छप रहा है वह अपने आप में विदेशी भाषा के मीडिया और भारतीय भाषा के मीडिया की प्राथमिकताओं को स्पष्ट करता है। गुजरात के विधानसभा के चुनावों की घटना और उड़ीसा में स्वामी जी पर आक्रमण की घटना का विश्लेषण दिल्ली से प्रकाशित अंग्रेजी एवं गुजरात/उड़ीसा से प्रकाशित गुजराती और उड़िया भाषा के समाचार पत्रों में प्रकाशित विवरण को आधार बनाया गया है। जबकि रामसेतु की विशाल राष्ट्रीय सभा के लिए दिल्ली से ही प्रकाशित अंग्रेजी और हिन्दी भाषा के समाचार पत्रों को आधार बनाया गया है। दिल्ली में तीन प्रमुख अंग्रेजी समाचार पत्रों टाइम्स ऑफ इंडिया, हिन्दुस्तान टाइम्स और इंडियन एक्सप्रेस के हिन्दी संस्करण भी नवभारत टाइम्स, हिन्दुस्तान और जनसत्ता के नाम से निकलते हैं। ये समाचार पत्र ज्यादातर अंग्रेजी संस्करणों के अनुवाद पर ही आधारित है और अपने मूल अंग्रेजी अखबार की रसगंध को हिन्दी भाषा में परोसने को दोयम दर्जे का प्रयास है। इसलिए इन तीनों हिन्दी अखबारों का शुमार उनके अंग्रेजी संस्करणों में ही कर लिया है। अलग से उन्हें भारतीय भाषा के मीडिया में शामिल नहीं किया गया है।

सबसे पहले गुजरात के विधानसभा के चुनावों की घटना का विश्लेषण करें। उस काल के दो महीने के निम्न चार अंग्रेजी अखबारों, टाइम्स ऑफ इंडिया, हिन्दुस्तान टाइम्स, इंडियन एक्सप्रेस और दि हिन्दू को विश्लेषण के लिए प्रयुक्त किया जाएगा और इसी प्रकार गुजरात से प्रकाशित गुजराती भाषा के अखबारों-संदेश, गुजरात समाचार, दिव्य भास्कर, जय हिन्द और प्रभात को आधार बनाया गया है। उस विश्लेषण के आधार पर निम्न निष्कर्ष सहज ही स्पष्ट दिखाई देते हैं। इस विश्लेषण में अंग्रेजी और गुजराती के उपरोक्त समाचार पत्रों में प्रकाशित संपादक के नाम पत्रों को भी शामिल किया गया है।

निष्कर्ष :- अंग्रेजी भाषा के उपरोक्त समाचार पत्रों के आधार पर

1. नरेन्द्र मोदी घोर सांप्रदायिक व्यक्ति है।

2. वे गुजरात में मुसलमानों का विरोध करते हैं।

3. गुजरात में सरकार द्वारा मुसलमानों को प्रताड़ित किया जा रहा है और उन्हें दोयम दर्जे का नागरिक माना जा रहा है।

4. सोहराबुद्दीन की पुलिस मुठभेड़ में मृत्यु राज्य सरकार द्वारा किया गया एक कत्ल ही है।

5. मोदी की दृष्टि में मुसलमान आतंकवादी है जबकि ऐसा नहीं है।

6. मोदी गुजरात को हिन्दू और मुस्लिम के आधार पर बांट रहे हैं।

7. मोदी हिन्दुत्व का एजेंडा लागू कर रहे हैं।

8. नरेन्द्र मोदी जनजातिय क्षेत्रों में चर्च और इस्लाम का कार्य दूभर कर रहे हैं।

9. नरेन्द्र मोदी तानाशाह है।

10. नरेन्द्र मोदी अफजल गुरु और सोहराबुद्दीन का प्रश्न उठाकर मुसलमानों को अन्यायपूर्ण ढंग से बदनाम कर रहे हैं।

इसके विपरीत गुजराती भाषा के मीडिया के आधार पर निम्न निष्कर्ष सहज ही निकलते हैं।

1. नरेन्द्र मोदी ने गुजरात से आतंकवाद को समाप्त किया है।

2. नरेन्द्र मोदी के सख्त प्रशासन के कारण ही आतंकवादी गुजरात में घुसने और कोई घटना करने से घबराते हैं।

3. सोहराबुद्दीन की घटना के बाद दूसरे आतंकवादी गुजरात में कोई वारदात करने से डरने लगे।

4. तथाकथित सेकुलर पार्टियां मुसलमानों और आतंकवादियों को शह भी देती हैं और वोट की खातिर उनका तुष्टिकरण भी करती है। लेकिन मोदी वोट की खातिर किसी का तुष्टिकरण नहीं करते।

5. आतंकवाद से मुकाबला सख्ती से किया जा सकता है तुष्टिकरण से नहीं। गुजरात इस विषय में राह दिखा रहा है।

6. अफजल गुरू को फांसी न देकर कांग्रेस और सीपीएम मुसलमानों को राष्ट्रीय हितों को दरकिनार करते हुए भी प्रसन्न करने की कोशिश कर रही है।

इन दोनों निष्कर्षों के अवलोकन से प्रश्न उठता है कि एक ही घटना पर विदेशी भाषा का मीडिया और भारतीय भाषाओं का मीडिया लगभग परस्पर विरोधी खेमे में ही खड़ा क्याें दिखाई देता है? ऐसा क्यों है कि सोहराबुद्दीन की मुठभेड़ की घटना को लेकर गुजराती भाषा के अखबार और अंग्रेजी भाषा के अखबार अलग प्रकार से करते हैंघ् इसका मुख्य कारण विभिन्न मुद्दों और विभिन्न स्थितियों को लेकर अंग्रेजी मीडिया की मानसिकता जिस धरातल पर अवस्थित है वह गुजराती भाषा के मीडिया से या फिर भारतीय भाषा के मीडिया से बिल्कुल अलग है। एक बात और भी ध्यान में रखनी चाहिए कि भारतीय भाषाओं के मीडिया और विदेशी भाषाओं के मीडिया के पाठक वर्ग भी लगभग अलग-अलग ही है। भारतीय भाषाओं के मीडिया का पाठक आम आदमी है जिसमें खबर की भूख दिन-प्रतिदिन बढ़ती ही जा रही है। विदेशी भाषा के मीडिया का वर्ग खास आदमी है, उसकी संख्या सीमित है परंतु उसका प्रभाव ज्यादा है। विभिन्न मुद्दों से संबंधित अवधारणाओं के स्तर पर भी ये दोनों पाठक वर्ग काफी अलग-अलग है। उदाहरण के लिए सांप्रदायिकता को लेकर इन दोनों वर्गों की अवधारणा में जमीन आसमान का फर्क है। विदेशी भाषा के मीडिया का पाठक वर्ग ऐसी जगहों पर रहता है जहां आदमी-आदमी के बीच संपर्क भी कम है और संबंधों के स्तर पर एक और औपचारिकता बनी रहती है। इन स्थानों पर भीड़ कम है स्थान ज्यादा है। एक खुलापन भी है। आपसी संपर्क और संबंध न्यूनतम स्तर पर ही विद्यमान है। इसलिए इस वर्ग के लिए सांप्रदायिकता किताबों में पढ़ा हुआ शब्द है जिसको उसके समग्र रूप में देखपाना इनके लिए संभव ही नहीं है। यदि और ढंग से कहें तो कहा जा सकता है यह पाठक वृंद गांधीनगर का पाठक वृंद है। इसके विपरीत भारतीय भाषाओं के अथवा गुजराती भाषाओं के मीडिया का पाठक वृंद ठेठ अहमदाबाद में रहता है। उसके लिए सांप्रदायिकता महज कागज पर छपा हुआ शब्द नहीं है बल्कि नित्यप्रति के परस्पर व्यवहार और अनुभव के भीतर से उपजा और निर्मित एक यथार्थ है। उस यथार्थ में सोहराबुद्दीन नित्यप्रति मूर्त रूप में घूमता है। अफजल गुरू भी घूमता है। उनकी ऑंखें घूरती हैं और कर्म भय पैदा करते हैं। इस सांप्रदायिकता के बीच में से ही उसे नित्यप्रति गुजरना है। इसलिए उससे वह बच भी नहीं सकता। ये नित्यप्रति की संकरी गलियां हैं। जहां सांप्रदायिकता से नित्य-नित्य मुठभेड़ होती है। इन पाठकों का क्रोध इस बात से उपजता है। यह सांप्रदायिक चेहरा कभी हाजी मस्तान के रूप में प्रकट होता है, कभी दाऊद अब्राहिम के रूप में प्रकट होता है, कभी सोहराबुद्दीन के रूप में प्रकट होता है और कभी अफजल गुरू के रूप में प्रकट होता है। कभी यह तस्लीमुद्दीन बनकर आता है और कभी ईश्रतजहां बनकर रात्रि के अंधकार में निशाचरों की तरह घूमता है। राज्यसत्ता इन निशाचरों से वोट की खातिर हाथ मिला लेती है। आम आदमी का यह पाठक वर्ग इस मिलते हुए हाथ को देखता भी है और उससे सहमता भी है। आम आदमी का इस बात से कोई सरोकार नहीं है कि सोहराबुद्दीन को किसने मारा और कैसे मारा? उसके मरने की खबर पर वह राहत महसूस करता है जैसे गली-मोहल्ले में घूमता हुआ कोई पागल कुत्ता मरता है तो लोग खुश होते हैं कि जीवन सुरक्षित हो गया है। लेकिन जब जीवजंतुओं के प्रति करूणा की वकालत करने वाला कोई संगठन पागल कुत्ते को मारने के खिलाफ अभियान चला दे तो स्वभाविक है यह पाठक वृंद अभियान चलाने वालों की ओर आश्चर्य भरी नजरों से ही देखेगा। विदेशी भाषा के मीडिया और भारतीय भाषाओं के मीडिया की प्राथमिकताओं और दृष्टिकोण के अलग होने का रहस्य भी यही है। दूर से बैठकर पागल कुत्ते के प्रति करूणा की मांग करना एक बात है और उस कुत्ते के साथ रहते हुए एक दिन उसे मरा हुआ देखकर भयमुक्त होने के एहसास से प्रसन्न होना दूसरी बात है। अंग्रेजी भाषा का मीडिया इस देश में घट रही घटनाओं को दूर बैठकर केवल द्रष्टा के रूप में देखता है और भारतीय भाषाओं का मीडिया उन स्थितियों को भोक्ता के रूप में देखता है। इसका कारण भी स्पष्ट है। पहले मीडिया का पाठक केवल द्रष्टा है और दूसरे मीडिया का पाठक स्वयं भोक्ता है।

रामसेतु बचाने के लिए दिल्ली में विशाल राष्ट्रीय महासभा-दूसरी घटना 30 दिसंबर 2007 को दिल्ली के स्वर्णजयंती पार्क में रामसेतु को बचाने के लिए की गई विशाल राष्ट्रीय महासभा है। इस सभा में देश के प्रत्येक हिस्से से लाखों लोगों ने शिरकत की। लद्दाख से लेकर अरूणाचल प्रदेश तक के लोग आए थे। केरल से लेकर पंजाब तक से लोग स्वयं अपना किराया खर्च कर इस राष्ट्रीय सभा में भागीदारी करने के लिए आए थे। हजारों दिल्लीवासी भक्तिभाव से इन रामभक्तों के लिए भोजन तैयार करने में लगे हुए थे। अनेक मोहल्लों में रामभक्तों को रोक-रोक कर लोग आग्रहपूर्वक फल खाने को दे रहे थे। इस पूरे घटनाक्रम की रपट विदेशी भाषा के मीडिया और भारतीय भाषा के मीडिया में बिल्कुल ही अलग-अलग प्रकार से हुई। टाइम्स ऑफ इंडिया की रपट इस प्रकार की थी कि लाखों लोगों के आ जाने से दिल्लीवासियों को बहुत कष्ट हुआ, सड़कों पर जाम लग गया और लोग रविवार का आनंद नहीं मना सके। दिल्ली शोर शराबे को माहौल में डूब गई। परिवहन व्यवस्था में अफरा-तफरी मच गई। टाइम्स ऑफ इंडिया ने एक करोड़ की आबादी वाले दिल्ली प्रदेश में से किसी एक महिला से इस राष्ट्रीय सभा के बारे में पूछा भी। उसने कहा कि मैं हर रविवार को मेट्रो से अपनी बहन को मिलने के लिए शाहदरा जाती हूँ लेकिन इस अव्यवस्था के कारण नहीं जा सकी। रपट का स्वर कुछ ऐसा था कि इस महिला के अपनी बहन से न मिल पाने के कारण इस राष्ट्रीय महा सभा ने बड़ा ही अहित किया है। एक अन्य अंग्रेजी अखबार ने मानो एक बहुत बड़ा रहस्योद्धाटन किया। एक सज्जन ट्रेन पकड़ने के लिए आए थे। टिकट लेना उनकी आदत में शुमार नहीं था। वे टीटी को कुछ पैसे देकर सुखपूर्वक यात्रा करूँगा यह सोच कर चले थे। लेकिन रामसेतु पर हो रही इस राष्ट्रीय सभा में भाग लेने वालों की भीड़ के कारण टीटी इन सज्जन की सहायता नहीं कर सके। अंग्रेजी अखबार के अनुसार इस राष्ट्रीय सभा के कारण जनता को हो रहे कष्ट की यह पराकाष्ठा है।

इसके विपरीत दिल्ली से प्रकाशित हिन्दी भाषा के समाचार पत्रों पंजाब केसरी और दैनिक जागरण की रपट का स्वर बिल्कुल भिन्न था। इनके अनुसार इस राष्ट्रीय सभा से सारी दिल्ली राममय हुई। रामभक्तों का स्वागत करने के लिए उमड़ पड़े हजारों दिल्लीवासी। दिल्ली में जगह-जगह उनका स्वागत हो रहा था और लोग उनके ठहरने और भोजन की व्यवस्था में संलग्न थे। दिल्ली की भारतीय भाषाओं के अखबारों ने तो कई दिन पहले से ही खबरें देनी शुरू कर दी थी कि इस राष्ट्रीय सभा में भाग लेने के लिए आ रहे रामभक्तों का स्वागत करने के लिए दिल्ली के लोग किस प्रकार की तैयारियाँ कर रहे हैं।

इन दोनों रपटों को पढ़ने के बाद प्रश्न पैदा होता है कि क्या कारण है एक ही घटना पर रपट देते हुए मीडिया का एक वर्ग कहता है कि इससे दिल्ली के लोग प्रसन्न हो रहे हैं और दूसरा वर्ग कहता है कि इससे दिल्ली के लोगों का कष्ट बढ़ रहा है। इसका कारण भी उसी मानसिकता में खोजना होगा जो विदेशी भाषा के मीडिया और भारतीय भाषा के मीडिया के पाठक वर्ग को अलग-अलग करती है। विदेशी भाषा के मीडिया का पाठक वर्ग नई कालोनियों में है। डिफे न्स कालोनी, डीएलएफ कालोनी में है, अंसल प्लाजा में है, टीडीआई में है और सरकारी बाबुओं में है। (बाबुओं से हमारा अभिप्राय प्रशासनिक सेवा अधिकारियों से है।) जैसा कि ऊपर हमने संकेत किया है कि दोनों वर्गों की अवधारणाओं में स्पष्ट ही अंतर है। एक वर्ग ऐसा है जो प्रात: काल ब्रह्ममुहर्त में समीप के मंदिर में हो रही आरती को सुनकर प्रसन्न होता है और दूसरा वर्ग ऐसा है जो उसी आरती को सुनकर नाक भौं सिकोड़ता है कि इससे सुबह की नींद में खलल पड़ता है। यह वही वर्ग है जो रामजन्मभूमि पर मंदिर बनाने को नकार कर वहां एकता के लिए पार्क बनाने का सुझाव देता है। लेकिन वह यह नहीं जानता कि पार्क से उपजी एकता एक ही खुरचन में खत्म हो जाती है। आरती से उपजी एकता लंबे अरसे तक चलती है। अंग्रेजी अखबारों और भारतीय भाषाओं के अखबारों द्वारा इस राष्ट्रीय महा सभा पर की गई रपट उनकी प्राथमिकता भी निश्चित करती है। अंग्रेजी मीडिया के लिए भारतीयता से जुड़ी चीजें और क्रियाकलाप अंग्रेजों द्वारा स्थापित सभ्यता और जीवन पध्दति में खलल पैदा करती है।

उड़ीसा के कंधमाल की घटना-उड़ीसा के कंधमाल में क्रिसमस की पूर्व संध्या पर स्वामी लक्ष्मणानंद सरस्वती जी महाराज पर 24 दिसंबर को ईसाई संगठनों ने घातक आक्रमण कर दिया। स्वामी जी घायल हुए और उन्हें अस्पताल में भर्ती करवाना पड़ा। स्वभाविक ही उड़ीसा के लोगों में इस पर प्रतिक्रिया हुई। उन्होंने 4 घंटे का शांतिपूर्ण बंद रखा। गुस्से में आए कुछ लोगों ने चर्च की कुछ झोपड़ियां भी जला दीं। इन झोपड़ियों पर सलीव का निशान भी लगा हुआ था। इसलिए इनको चर्च का जलाना कहा गया। ब्राह्मणी गांव में ईसाइयों ने दो सौ लोगों के घर जला दिए। इस घटना की रपट अंग्रेजी मीडिया और उड़िया भाषा के मीडिया में बिल्कुल अलग-अलग प्रकार से आनी प्रारंभ हुई और अभी तक आ रही है। दिल्ली में स्थित लगभग विदेशी भाषा का समग्र मीडिया (एक आध अपवाद को छोड़कर) की रपट का मुख्य स्वर निम्न प्रकार से सारणीबध्द किया जा सकता है।

1. उड़ीसा में ईसाइयों पर अत्याचार हो रहे हैं। उनके घरों को जलाया जा रहा है और चर्च फूंके जा रहे हैं।

2. सरकार ईसाइयों की रक्षा करने में बुरी तरह असफल रही है।

इसके विपरीत उड़ीसा के उड़िया भाषी समाचार पत्रों यथा-संवाद, समाज, धरित्री, प्रजातंत्र, अमरी कथा, उड़ीसा भास्कर, पर्यवेक्षक इत्यादि में कंधमाल की घटना को लेकर जो रपटें छप रही है उनका मुख्य स्वर निम्न प्रकार से है।

1. ईसाई मिशनरियां व्यापक स्तर पर उड़ीसा के जनजातीय लोगों के घरों को जला रही है। लोगों को धमकाया जा रहा है।

2. मंदिरों में तोड़फोड़ की जा रही है।

3. सरकार उड़ीसा के लोगों की ईसाई मिशनरियों के आक्रमणों से रक्षा नहीं कर पा रही।

4. ईसाई मिशनरियों के इशारे पर एक सांसद इन आक्रमणों को भड़का रहा है।

5. माओवादी और चर्च उड़ीसा के लोगों पर आक्रमण करने में आपस में मिल गए हैं।

6. जनजाति के लोगों पर आधुनिक हथियारों से आक्रमण किये जा रहे हैं।

विदेशी भाषा के मीडिया की प्राथमिकताएं और भारतीय भाषाओं के मीडिया की प्राथमिकताएं अलग-अलग हैं। उदाहरण के लिए जब किसी मंदिर में लोग भजन कीर्तन के लिए एकत्रित होते हैं तो भारतीय भाषा के मीडिया के लिए यह भक्ति का ज्वार उमडना है लेकिन अंग्रेजी मीडिया के लिए यह शोर शराबा और सामान्य जीवन में होने वाला खलल है। उसका कारण शायद भारत में अंग्रेजों के शासन काल से ही खोजना होगा। अग्रेजों के लिए मंदिर के भीड खलल भी है और खतरा भी है। उसी मानसिकता को आज तक विदेशी भाषा अंग्रेजी का मीडिया ढो रहा है और इसी प्राथमिकता के आधार पर अंग्रेजी मीडिया किसी भी घटना की रपट करता है।

इस मानसिकता और प्राथमिकता का एक और कारण भी है। जिन दिनों अंग्रेज इस देश पर राज करते थे, वे यहां के भारतीय समाज को अपने लिए खतरा समझते थे और मुस्लिम समाज एवं ईसाई समाज को अपना पक्षधर मानते थे। इसलिए बहुसंख्यक भारतीय समाज का कोई भी कृत्य उनकी दृष्टि में निंदनीय और ईसाई व मुस्लिम समाज के लिए खतरनाक माना जाता था। अंग्रेजी मीडिया आज भी उसी मानसिकता को ढो रहा है। यही कारण है कि गुजरात का जननिर्णय,रामसेतु को लेकर हुई राष्ट्रीय महासभा और उडिया अस्मिता के लिए संघर्षरत ओडिया लोग अंग्रेजी मीडिया की दृष्टि में खतरनाक कृत्य हैं और मुस्लिम व ईसाई समाज के हितों के विपरीत हैं।

सारत: विदेशी भाषा के मीडिया की जडें ब्रिटिश शासनकाल की मानसिकता में गहरे धंसी हुई हैं। इसके विपरीत भारतीय भाषाओं के मीडिया की जडें उसी संघर्ष में से उपजी हैं जो ब्रिटिश शासन के खिलाफ आम भारतीय ने किया था।

(लेखक हिंदुस्‍थान समाचार एजेंसी से जुडे हैं)

7 COMMENTS

  1. दो खेमों में बंटे मीडिया के इस व्यवहार को लेकर हमारे मन में वर्षों से उठ रहे भावों और कसक को इतने तार्किक रूप में , इतने स्पष्ट और सशक्त ढंग से इससे पूर्व कभी प्रस्तुत किया गया होगा, ऐसा मुझे नहीं लगता. यह इस विषय पर एक श्रेष्ठ लेख है. विद्वान लेखक इसके लिए साधुवाद के पात्र हैं.

  2. माताको दुध शिशुलाई शिक्षा मात्री भाषामा प्रभाव पर्छ श्रीष्टिलाई प्रकाशको गतिमा |

  3. आपका लेख सही है यह लेख विदेशी और भारतीय भाषा के पत्रकार एवं तंत्री को भेजना चाहिए

  4. एक गंभीर और सार्थक वेबसाईट के लिए प्रवक्ता मंडली को हार्दिक शुभकामनाएं.

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here