भूल गया हूँ गाॉवं को,

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भूल गया हूँ गाॉवं को,

बड़े शहर की चकाचोंध में,

रखकर अपने पॉवं को ,

शायद अब कुछ याद नहीं ,

भूल गया हूँ गाॉवं को,

 

ए.सी. की हेर शीतलहर में

पेड़ घाना कहाँ दीखता हैं ,

ज्वर, बाजार ,मक्का नहीं

यंहा बर्गर- पिज्जा बिकता हैं ,

मिटटी के घर भूल गया

सब और बड़ी ईमारत हैं ,

शहर मेरे इस जीवन की

लिखता नई इबारत हैं ,

गम में भी हंसकर  कह जाता

अपने मन के भाओं को ,

शायद अब कुछ याद नहीं ,

भूल गया हूँ गाॉवं को,

 

धुंधली हैं तस्वीरें सारी

जो खेल घर आँगन में ,

यँहा कोई वो पेड़ नहीं

तोड़े थे फल जिन बागान मे,

दफ्फ़तर की केर भाग दौड़

थका हुआ घर आता हूँ ,

कल कलऔर कल की चिंता में

फिर जल्दी सो जाता हूँ

जो मेरे खुद के काटे

सींच रहा उन घावों को,

शायद अब कुछ याद नहीं ,

भूल गया हूँ गाॉवं को,

 

पक्की सड़को का जल यँहा

कच्ची गालियाँ सब धूल हुई,

घर आँगन सब छोड़ दिया

सोचा फिर भी क्या भूल हुई ,

नदियाँ, झरने, तालाब नहीं

पानी पैसे से बिकता हैं,

जिससे हैं पहचान हुमारी

वो अंजना लगता हैं ,

माँ की ममता को ना समझा

ना समझा पिता के भावो को,

शायद अब कुछ याद नहीं ,

भूल गया हूँ गाॉवं को,

 

 

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