साम्यवाद का ढहता दुर्ग

डॉ0 कुलदीप चंद अग्निहोत्री 

रूस में साम्यवादी संरचना के नष्ट को जाने से ही यह स्पष्ट संकेत मिलने शुरू हो गए थे कि लगभग एक शताब्दी पूर्व किया गया यह प्रयोग न तो अपने उददे्श्य की पूर्ति कर पाया और न ही आर्थिक व सामाजिक समानता के इतिहास में कोई नया अध्याय लिख पाया। साम्यवाद आर्थिक क्षेत्र में मनुष्य को पूंजीवाद के शोषण से मुक्त करवाने के लिए कार्ल मार्क्स द्वारा रचा गया एक नया अनुष्ठान था। शुरू-शुरू में ऐसा लगने भी लगा था कि साम्यवाद का यह वैचारिक प्रयोग पूंजीवाद के राक्षस को मारकर समानता के सुनहरी युग में प्रवेश करेगा। उस समय भी मानव मन की गुत्थियों को समझने का दावा करने वाले कुछ मनीषियों ने चेतवानी दी थी कि साम्यवाद और पूंजीवाद में कोई मौलिक अंतर नहीं है। दोनों भौतिकता के एकांगी धरातल पर खडे़ एक समान दुर्ग हैं। साम्यवादी दुर्ग की इतनी ही विशेषता है कि अभी उसका प्रयोग नहीं हुआ है। इसलिए उसमें प्रयोग से पहले का आकर्षण विद्यमान है। रूस ने इस दुर्ग में प्रवेश करके एक नये अध्याय का सूत्रपात किया था। परन्तु 70 साल के बाद जब रूस के लोग उस दुर्ग से बाहर निकले तो उनकी दशा पहले से भी शोचनीय थी। इसी काल में इस दुर्ग की सेना का अमानवीय चैहरा पूर्वी यूरोप के चैकोस्लवाकिया और हंगरी समेत अनेक देशों ने भी देखा। रूस में जब साम्यवाद का दुर्ग देखते देखते धराशायी हाने लगा तो पूर्वी यूरोप के जबरन बनाये गये साम्यवादी देशों ने भी उसकी प्रेत छाया से मुक्ति ग्रहण की।

चीन रूस से ज्यादा अक्‍लमंद निकला । उसने जैसे ही पड़ोसी रूस में साम्यवाद की दीवारों को गिरते हुए देखा और लेनिन के ताबूत को हवा में लहरते पाया तो उसने भी तुरन्त अपना चोला बदला और साम्यवाद की लम्बे अरसे से ओढ़ी गई खाल को जलाकर अमेरिका की पुंजीवादी अर्थ व्यवस्था में अपने दांत गढ़ा दिये। अलबता वहां के सत्ताधीशों ने सत्ता के लोभ में रूस की तर्ज पर शासन का लोकतंत्रीकरण नहीं किया। जब चीन में आर्थिक नीतियां पूंजीवाद को समर्पित हो गई, तो लोकतंत्र के भाव में वहां का साम्यवाद वास्तव में तानाशाही में बदल गया। माओ को चीन ने भी उसी तरह दुलत्ती मारी जिस तरह रूस कुछ साल पहले लेनिन को मार चुका था। चीन की तानाशाही इतिहास क्रम में नाज़ीवाद और फासीवाद के साथ जा खड़ी हुई। इस प्रकार रूस और चीन में साम्यवाद का लाल किला 70 साल के भीतर-भीतर बिखर कर धराशाही हो गया। इस पूरे घटनाक्रम में रूस और चीन के लोगों का कोई दोष नहीं है क्योंकि कार्ल मार्क्स ने पुंजीवाद के राक्षस के मुकाबले जो नया निर्माण किया था वह वास्तव में एक नये साम्यवादी राक्षस के रूप में विकसित हो गया। मुक्ति की आशा में जो लोग पुंजीवादी छोर से साम्यवादी छोर की ओर भागे थे उनकी सब आशायें उस समय मिट्टी में मिल गई जब उन्होंने पाया कि वह एक राक्षस के मुंह से छुटकर दूसरे राक्षस के मंझे में फंस गये हैं। फर्क इतना ही था कि पहला राक्षस आर्थिक शोषण करता था, दूसरे राक्षस ने उत्पादन के सब साधन अपने पैरों तले दबा लिये और विरोध कर रहे लोगों के बोलने पर भी पाबंदी लगा दी। इसी पाबंदी के चलते स्टालिन के रूस में और माओ के चीन में साम्यवादी राक्षस ने करोड़ों लोगों की निर्मम हत्यायें करवाई । साम्यवादी राक्षस ने वहां के राज्यों के लोगों का व्यक्तिगत जीवन भी स्वयं ही नियत्रित करन शुरू कर दिया। जाहिर था करोड़ों मानवों के रक्त सागर में तैरते हुए अस साम्यवादी दुर्ग को एक न एक दिन डूबना ही था।

जैसे ही इस साम्यवादी दुर्ग के डूबने से उठी लेहरें हिन्दुस्तान के तटों पर पहुंची तो यहां इका-दुका स्थानों पर रूस और चीन के साम्यवादी दुर्गों की नकल पर अपनी झोपडि़यां बना रहे कम्युनिस्टों के हाथ पांव फुलने लगे। जिन दुर्गों से इन भारतीय साम्यवादी दलों के पास पैसा आता था और जहां से उन्हें भारत में अपनी गतिविधियां चलाने के लिए दिशा निर्देश प्राप्त होते थे वह दुर्ग अब समाप्त हो गये थे। सीपीआई और सी0पी0एम0 की स्थिति अनाथ होने की हो चुकी थी लेकिन दुर्भाग्य से वह खुलकर रो भी नही सकते थे क्योंकि लोक लज्जा के करण उन्होंने रूस,चीन को सार्वजनीक रूप से अपना माईबाप भी तो घोषित नहीं किया था। भारत में साम्यवादी प्रयोग अभी भ्रुणावस्था में ही थे कि उपर से यह जबरदस्त आघात लगा। अधकचरी अवस्था में जो प्रतिक्रिया होती है यहां भी वही हुई। साम्यवादियों को लगा कि रूस और चीन में साम्यवाद का प्रयोग वहां के नीति निर्धारिकों की मूर्खता के कारण असफल हुआ है। वह यह मानने को तैयार ही नहीं थे कि साम्यवाद वैचारिक रूप में एक एकांगी और अमानवीय प्रयोग है जिसे संघर्षशील और परिश्रम करने वाले किसान और श्रमिक किसी रूप में भी लम्बे समय तक स्वीकार नहीं कर सकते। लेकिन भारतीय साम्यवादियों को शायद यह मुगालता रहा कि रूस में साम्यवादी शासक वहां के लोगों के मन से वहां के इतिहासबोध और सांस्कृतिक पहचान को पूरी तरह समाप्त नही कर पाये इस लिये वहां साम्यवाद को पौधा लहलहा नहीं सका। अपने इस अधकचरे विश्लेषण के कारण भारत में साम्यवाद वामपंथी आतंकवाद के रास्ते पर चल पड़ा । पश्चिमी वंगाल और केरल में साम्यवाद के अवशेषों को लोकतंत्र के अखाडे़ में प्रास्त कर दिया। लेकिन वामपंथी आतंकवाद के लिए लोकतंत्र का रास्ता ही फिजूल है उन्हें तो भारत से भारतीयता को समाप्त करके उसकी लाश पर साम्यवाद के केकटाई रोपित करनी है। अपने इस अभियान में वांमपंथी आतकंवादी इतनी दूर तक वढ़ गये कि उन्होंने भारतीयता के खिलाफ इस्लामी आतंकवादियों और चर्च के आतंकवादियों तक से हाथ मिला लिया। उड़िसा में स्वामी लक्ष्‍मणानंद सरस्वती की जन्माष्टमी के दिन हत्या वामपंथी आतांकवादियों और चर्च के आतंकवादियों के बीच वढ़ते तालमेल का सबूत है।

दुनिया जानती है कि बन्दूक अथवा तलवार तभी उठती है जब वैचारिक आधार खोखला हो जाता है। पश्चिमी बंगाल में जिस तरह साम्यवादी दलों की भयंकर पराजय हुई, उससे तो लगता है मानों बंगाल के प्रवुद्ध लोग साम्यवादियों को सबक सिखाने के लिए तड़प रहे थे। वैसे भी बंगाल में शासन, साम्यवाद के मुखौटे में, अंततः लोक विरोधी हो गया था। नन्दीग्राम और सिंगुर इसके मुंह बोलते प्रमाण हैं। साम्यवाद की विचार धारा मनुष्य को पूंजीवाद की ही तरह संवेदनाविहीन तो बना सकती है, उसके एकात्म विकास का रास्ता प्रशस्त नहीं कर सकती। पश्चिमी बंगाल का मानुष संवेदना विहीन हो जाएगा- इसकी कल्पना तो उसके विरोधी भी नहीं कर सकते। जन समाज के हाथों पिट रहे और वैचारिक आधार पर खोखले हो चुके गिरोहों का अतिंम रास्ता आतंकवाद ही होता है। भारत में साम्यवाद भी उसी वामपंथी आतंकवाद के अतिंम रास्ते पर चल पड़ा है। बन्दूक के बल पर कायर जातियों पर राज्य किया जा सकता है चेतनशील जातियों पर नहीं। वामपंथी आतकंवाद भारत में साम्यवाद की मृत्यु की पूर्व सूचना है – इससे कोई इंकार नही कर सकता।

इतिहास इस बात का गवाह है कि वैचारिक फिसलन के बाद, आतंकवादी गिरोह अततः अपराधियों के गिरोह में ही परिवर्तीत हो जाते है। उनका वैचारिक मुखौटा केवल साधारण जन को धोखा देने के लिए होता है। यही कारण है कि झारखण्ड, आन्ध्र प्रदेश, छत्तीसगढ़ और ओड़ीशा में वामपंथी आतंकवादी माओवाद के नाम पर उन्हीं निर्धन लोगों एवं वन वासी समुदाय को मार रहे है, जिनके हितों के लिए वह लड़ने का दावा करते है। छत्तीसगढ़ और ओड़ीशा में विरोध करने वाले वनवासियों का वांमपंथी आतंकवादी सफाया कर रहे है। इस पाखंड से तंग आकर जिन वांमपंथी आतंकवादी महिलाओं ने पुनः पारिवारिक जीवन में आने की इच्छा व्यक्त की है, उनके अनुसार आतंकवादी साम्यवाद के नाम पर महिलओं का यौन शोषण कर रहे है। वामपंथी आतंकवाद के पुरोधा अपनी सुख सुविधा के लिए बन्दूक के बलपर धन सम्पति अर्जित कर रहे हैं।

लेकिन प्रश्न यह है कि केन्द्रीय सरकार वामपंथी आतंवाद का मुकाबला करने से भाग क्यों रही है ? स्पष्ट है, सोनिया काग्रेस जानती है कि वामपंथी आतंकवादी अपने अन्धे भारतीयता विरोध के कारण चर्च की अभारतीयकरण की योजनाओं में सहायता कर रहे है। सोनिया कांग्रेस को भी भारत में चर्च का एजेंडा लागू करना है, अतः वह भी अपनी इसी रणनीति के अनुसार वांमपंथी आतंकवाद के खिलाफ षड्यंत्रकरी ढंग से मौन है। लेकिन भारत के लोग तो चुप नही रह सकते । वह विदेशी शक्तियों से प्रेरित और संचालित साम्यवाद के इस ढहते दुर्ग को अंतिम धक्का देंगे ही। छत्तीसगढ़ के जनजाति सामाज द्वारा वामपंथी आतंकवादियों के खिलाफ किया जा रहा संघर्ष इसका प्रमाण है।

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