स्वतंत्र भारत की उषाकाल के कवि ‘मुक्तिबोध’

0
208

muktibodhरमेश पाण्डेय

11 सितंबर का दिन आता है तो साहित्य जगत में अनायास ही गजानन मानव मुक्तिबोध नाम जीवंत हो उठता है। सच कहा जाए तो मुक्तिबोध स्वतंत्र भारत की उषाकाल के कवि थे, लेकिन उनकी कविता में सुकून नहीं है, कहीं पहुँच जाने की तसल्ली नहीं है। मुक्तिबोध मार्क्सवादी थे। लेकिन अस्तित्ववादी अतीत के कारण उनमें स्वतंत्रता और उत्तरदायित्व के बीच के रिश्ते का बोध इतना तीव्र था कि मार्क्सवाद उपलब्ध हो जाने के बाद वे निश्चिंत नहीं हो पाए। मुक्तिबोध विचारधारा के हामी होते हुए भी उसके इत्मीनान का लाभ नहीं लेते। उनकी बेचैनी और छटपटाहट का कारण यही है। मुक्तिबोध के काव्य जीवन की शुरूआत रोमांटिक जमीन पर हुई, लेकिन बीसवीं सदी के पांचवें और छठे दशक तक आते-आते उनका अपना कंठ फूटने लगा और छायावादी शब्दावली और मुद्राओं से वे मुक्त होने लगे। मुक्तिबोध का काव्य संसार घटनापूर्ण है, लेकिन वे बाहरी दुनिया में, ऐतिहासिक अवकाश में नहीं घटतीं। वे मनुष्य की आत्मा के भीतर यात्रा करते हैं और उसके जख्मी होने या ध्वंस की खबर लाते हैं। मुक्तिबोध की कविताओं में जहां आत्मध्वंस की खबर है, वहीं दूसरी ओर मानवीय संभावनाओं की मर्माहत से भरी जागरूकता भी है। इसलिए दूसरी बड़ी बेचैनी है दोस्तों की तलाश, सहचर मित्र की खोज और अपने अंतरूकरण का विस्तार करने का यत्न। मुक्तिबोध की कविता इस तरह एक अजीबोगरीब तरीके से खत्म होने से इंकार करने लगती है। वह शिल्प और रूप के दायरे से निकल जाती है। संघर्ष ही है और कवि के पास इस संघर्ष में भाग लेने के अलावा कोई विकल्प नहीं और उससे सुखकर काम भी नहीं क्योंकि इसी के दौरान वह खुद को भी हासिल करता है। मुक्तिबोध संघर्ष में निजी भागीदारी के दायित्व बोध के कवि हैं। 13 नवंबर 1917 को जन्में इस कवि को 47 वर्ष की अल्प आयु में ही काल के कू्रर हाथों ने 11 सितंबर 1964 को अपना शिकार बना लिया। इस अल्प अवधि में ही इस कवि ने साहित्य जगत में जो छाप छोड़ी वह आमिट हो गयी है। मुक्तिबोध के साहित्य में जो आत्मसंघर्ष दिखाई देता है, वह सिर्फ उनका ही नहीं है। वह उनका होते हुए भी पूरे मध्यवर्ग का है। एक टीले और डाकू की कहानी शीर्षक की कविता में चंबल की घाटी शीर्षक कविता का प्रथम प्रारुप है। इस कविता में…

हवा टीले से कहती है

तुममे जो द्वंद है

वह द्वंद बाहरी स्थिति का ही बिंब

अपने मूल द्वंद को पहचानो

उसे तीव्र करो और

उसमें जीवन स्थिति को बदल दो

इस महान कार्य में तुम अकेले नहीं।

इन पंक्तियों में समाज के वंचित वर्ग का दर्द झलकता है। 11 सितंबर 2014 मुक्तिबोध जी की 50 पुण्यतिथि है। मृत्यु के इन 50 सालों के बाद भी लगता है कि मुक्तिबोध की कविता अभी पूरी नहीं है। वह अधूरी है और साहित्य समाज उसे पूरा होने की बाट जोहता नजर आ रहा है।

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here