लेखक से पाठक तक…

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लेखक जो कुछ भी लिखता है, अपने मन से, अपनी भावनाओं की अभिव्यक्ति के लिये लिखता है, स्वान्तः सुखाय लिखता है ,फिर भी वह चाहता है कि उसकी बात अधिक से अधिक पाठकों तक पंहुचे। लेखन के बाद अपनी रचना को पाठकों तक पंहुचाना लेखक के लियें, लिखने से भी बड़ी चुनौती होता है।बहुत से, बहुत अच्छे लेखक होंगे जो अपनी निजी डायरी में सिमट कर रह गये होंगे, पाठक तक पंहुचे ही नहीं होंगें!

आज का लेखक सोशल मीडिया पर तो शुरुआत कर ही सकता है, पर जब ये सुविधा नहीं थी, तब सबसे पहले लेखक और कवि पत्रिकाओं और समाचार पत्रों में अपनी रचनायें सबसे पहले प्रकाशित होने का सपना देखते थे। उस समय स्टैंड पर मिलने वाली सुरुचिपूर्ण पत्रिकायें तो बहुत थीं, पर उन तक पंहुचने का रास्ता भी सरल नहीं था। हस्तलिखित प्रति की कई प्रतियाँ फ़ोटोस्टेट करवानी पड़ती थीं। संपादको के निर्देश भी कम नहीं थे, वो भले ही महीनो जवाब न दें , पर लेखक से अपेक्षा की जाती थी कि जब तक यह सुनिश्चित न हो जाये कि उनकी रचना अस्वीकृत हो गई है, तब तक किसी और जगह वह रचना न भेजी जाये। रचना अस्वीकृत होने का अर्थ है, उसका खेद सहित वापिस आना, और इसके लियें टिकट लगा, अपना पता लिखा लिफ़ाफा रचना के साथ पंहुचना भी ज़रूरी था। हस्तलिखित रचना अधिक स्थान लेती है, फिर संपादकों का आदेश….. कि काग़ज़ के एक तरफ़ पर्याप्त हाशिया छोड़कर लिखा जाये, की वजह से स्टेशनरी का ख़र्च तो बढ़ता ही था, डाकख़र्च भी अच्छा ख़ासा होता था। आम तौर पर शुरुआत में पाँच रचनाओं में से एक भी प्रकाशित हो जाये तो अच्छा ही माना जाता था। सभी व्यावसायिक पत्रिकायें कुछ न कुछ मानदेय देती थीं, भले ही वह स्टेशनरी, फ़ोटोस्टेट और डाकख़र्च के लियें भी पूरा न पड़ता हो। रचना का स्वीकार होना ही पर्याप्त नहीं होता था, स्वीकृति और प्रकाशन के बीच महीनो का समय लग जाता था। संपादक किसी लेखक को उसके पत्रों का जवाब नहीं देते थे, लेखक भूल भी जाता था कब उसने क्या लिखा था, उसका उत्साह ही ठंडा पड़ने लगता था।

पढ़ने वालों, ख़ासकर हिन्दी पत्रिकाओं के पढ़नेवालो की संख्या कम होने की वजह से ‘धर्मयुग’ और ‘साप्ताहिक हिन्दुस्तान’ जैसी बहुत सी पत्रिकायें बहुत पहले ही विलीन हो चुकी थीं। बाज़ार में सिर्फ महिलाओं के लियें घरेलू पत्रिकायें और लाइफस्टाइल पत्रिकाये रह गईं थीं।

धीरे धीरे इंटरनैट के पैर पसरने लगे तो रचनायें भेजना आसान हो गया, पर न हर एक के पास कम्प्यूटर थे, न टाइप करना आता था। नौजवानो के लियें उस दौर में संभवतः इतनी मुश्किल नही रही होगी जितनी पुराने लेखकों को हुई। अधिकतर लेखकों ने ये चुनौती स्वीकार की और आगे बढ गये, जो नहीं स्वीकार कर सके उन्हे औरों की मदद लेनी पड़ी या लेखन को विदाई देनी पड़ी। इंटरनैट से लेखकों को बहुत लाभ भी हुआ, एक नया माध्यम मिल गया। वैब मैगज़ीन, ब्लौग पर बहुत सारे लेखकों को पहचान मिली। वैब पत्रिकाओं का निकालना प्रिंट के मुक़ाबले सरल था, पर यहाँ भी सब शौक के लियें काम कर रहे हैं, इन वैब पत्रिकाओं को विज्ञापन तो मिलते नहीं हैं, इसलियें लेखक और संपादक में कोई पैसे का लेन देन नहीं होता न कौपीराइट का झंझट होता है। वैब पत्रिका या ब्लौग की पंहुच भी पूरे विश्व में है । रचना पर पाठकों की तुरन्त प्रतिक्रिया मिलने से लेखक को संतोष भी बहुत मिलता है, फिर भी जो मान प्रिंट मीडिया लेखक को देता है वो वेब मीडिया नहीं दे पाता। संभवतः इसलियें बहुत सी साहित्यिक पत्रिकायें भले ही वो त्रैमासिक हों उपलब्ध हैं, परन्तु इनकी जानकारी लोगों को नहीं है… इनके संपादको के पास इतने संसाधन नहीं हैं कि प्रचार पर ख़र्च कर सकें। सोशल मीडिया पर हिन्दी जगत के लोगों से जुड़ने पर ये जानकारी सहज मिलने लगती है। ये सभी पत्रिकायें गैर व्यावसायिक हैं। संपादक इन्हे कड़ी महनत और साधनो के अभाव में निकालते हैं। इनका वितरण कितना है यह कह पाना मुश्किल है। वैब पत्रिकाओं की तरह ये भी लेखक को कोई मानदेय देने की स्थिति में नहीं हैं, लेखक इसकी अपेक्षा भी नहीं कर सकते। कुछ संपादक लेखक को पत्रिका की प्रति भेज पाते हैं, कुछ के लियें यह भी संभव नहीं हो पाता। ऐसी स्थिति में कौपीराइट लेखक का ही रहता है।

पत्रिकाओं के अतिरिक्त प्रिंट मीडिया में दैनिक समाचार पत्रों में प्रकाशित होने से भी लेखक की पहचान बनती है। राष्ट्रीय स्तर के दैनिक में स्थान मिलना कुछ अनुभव और पहचान बनने के बाद ही संभव हो पाता है, परन्तु छोटे बड़े सभी शहरों से स्थानीय छोटे और मंझोले समाचार पत्र निकलते हैं, जिन्हे अच्छे लेखकों की तलाश रहती है। ये पूर्णतः व्यावसायिक हैं और स्थानीय विज्ञापन इन्हे काफ़ी मिल जाते है। लेखकों को प्रिंट मीडिया में ये अच्छा अवसर दे सकते हैं, परन्तु मेरा और कुछ अन्य लेखक मित्रों का अनुभव इनके साथ संतोषजनक नहीं रहा है। ये दैनिक व्यावसायिक हैं, तो इन्हे लेखकों को कुछ न कुछ मानदेय तो देना ही चाहिये, पर ये किसी आचारसंहिंता में विश्वास ही नहीं रखते। यहाँ तक कि जब रचना इनको भेजी जाती है, तो ये लेखक की सभी शर्ते, जैसे प्रकाशन की सूचना, अख़बार की प्रति भेजना, उचित मानदेय देने जैसी सभी बातें मान लेते हैं, पर रचना कब प्रकाशित हो गई, लेखक को पता ही नहीं चलता! लेख पढकर जब पाठक व्यक्तिगत रूप से लेखक को प्रतिक्रया देंने लगें या लेखक का कोई मित्र वह समाचार पत्र देखले तभी लेखक को पता चलता है कि उसकी रचना प्रकाशित हो गई है। संपादक बाद में मेल का न जवाब देते हैं. न फ़ोन लेते हैं। कभी कभी कोई संपादक थोड़ी शराफ़त दिखाकर कह देते हैं कि वो मानदेय तो नहीं दे पायेंगे, पर अख़बार की प्रति अवश्य भेज देंगे, पर ऐसा होता नहीं है। यही नहीं वैब पत्रिका से सीधे उठाकर लेख अख़बार में छप जाते हैं और लेखक को पता ही नहीं चलता जब तक कि कोई मित्र वह लेख न देखेले और बताये।

कोई भी लेखक चाहता है कि उसकी किताबें प्रकाशित हों, पर प्रकाशक आसानी से मौक़ा नहीं देते, क्योंकि किताब छपने में काफ़ी ख़र्चा आता है, उन्हे किताब की बिक्री से लाभ कमाना है, वो व्यवसाय कर रहें हैं, जिनके नाम की अभी ‘ब्रैन्ड वैल्यू’ न बनी वो उन्हे क्यों छापेंगे! उभरते लेखकों को किताब भी अपने ख़र्चे पर छपवानी होती है, प्रचार का ख़र्चा भी करना पड़ता है, किताब को बेचने या बाँटने का काम भी करना पड़ता है। लेखक तो लेखक होता है, किताब के चक्कर मे ‘डोर टु डोर सेल्समैन’ बन जाता है!

किताब चाहें प्रकाशक छापे चाहें लेखक अपने ख़र्चे से छपवाये, किताब की पाण्डुलिपी तैयार करना भी कोई आसान काम नहीं है। हस्तलिखित या  टाइप की हुई रचनायें आजकल पाण्डुलिपी नहीं होतीं, न ही आपके हार्ड डिस्क का फोल्डर पाण्डुलिपी होता है। अपनी रचनाओं को सिलसिलेवार लगाकर उनकी प्रूफ़ रीडिंग करवानी पड़ती है, किसी चित्रकार से दोनो कवर पेज बनवाने पड़ते हैं, तब कोई डिज़ाइनर उनकी फ़ाइल की pdf फ़ाइल  बनाता है, जो कि आजकल की पाणडुलिपि होती है। लेखक ख़ुद किताब छपवाये तो संभवतः समय कम लगता है अन्यथा ये पाण्डुलिपी प्रकाशक के विचाराधीन सालों पड़ी रह सकती है। किताब छप कर बिक्री अच्छी हो जाये तो लेखक को कुछ रौयल्टी मिल सकती है और उसकी अगली किताब छपना कुछ आसान हो जाता है। कुछ लेखक जो किसी ऊंचे सरकारी ओहदे पर हों, किसी विश्वविद्यालय के व्याख्याता हों या किसी अन्य क्षेत्र में सैलिब्रिटी स्टेटस पा चुके हों तो उनकी किताब छपना और बिकना अपेक्षाकृत सरल होता है।

यदि किसी लेखक को समाचार पत्रों में नियमित कौलम लिखने का अवसर मिले, कोई टी.वी. धारावाहिक लिखने का या फ़िल्म की कहानी, पटकथा, संवाद और गाने का अवसर मिल जाये तो उसकी नियमित आय हो सकती है। ऐसा करने पर लेखक को निर्माता या संपादक की ज़रूरतों के अनुरूप लिखना पड़ता है।

एक बार लेखक की कुछ किताबें बाज़ार में आ जायें, राष्ट्रीय स्तर के समाचार पत्रों में दिखता रहे और कुछ सम्मान व पुरुस्कार मिल जायें तो वह प्रतिष्ठित होने लगता है। इस पडाव पर भी अपनी जगह बनाये रखना, टिके रहना आसान नहीं होता क्योंकि यहाँ एक और दौर शुरू होता है ईर्ष्या, द्वेश और आरोप और प्रत्यारोप का। कोई कहता है, कि अमुक लेखक ने पैसे देकर अपनी प्रशंसा भरी समीक्षाये लिखवांई हैं, किसी पर सम्मान और पुरुस्कार ख़रीदने का आरोप लगता है, तो किसी के बारे में सुनने में आता है कि पैसे और राजनीतिक संबंधो के बल पर रचनायें स्कूली पाठ्यक्रम में लगाई गईं हैं, अथवा विश्व विद्यालय के कार्यक्रम में उपन्यास लगवा दिया है, उस पर शोध भी हो रहे हैं। मेरे कहने का यह तात्पर्य कदापि नहीं है कि सब लेखक ऐसा करके ही उठे हैं, सभी ने भ्रष्ट तरीक़े अपनाये हैं। बहुत सारे लेखक अपनी प्रतिभा, लगन और परिश्रम के बल पर ऊँचे उठे हैं, पर इस बात से भी इंकार नहीं किया जा सकता कि साहित्य सृजन में भी और क्षेत्रों की तरह भ्रष्टाचार अपने पाँव फैला रहा है।

लेखक से पाठक तक पंहुचने की प्रक्रिया बहुत जटिल है, इसे शौक की तरह निभाया जाना तनाव नहीं देता, बल्कि अभिव्यक्ति तनाव कम ही करती है। शौक पर हर व्यक्ति कुछ ख़र्च कर सकता है… लेखक और कवि भी कर सकता है पर इसे आय का या रोटी रोज़ी का साधन बना  पाना लगभग नामुमकिन है और ये कोशिश भी तनाव के अलावा कुछ नहीं देती। कम से कम हिन्दी में लिखने वालों की यही स्थिति है।

 

1 COMMENT

  1. काफी अच्छा लिखा आपने बस, पूरा आलेख एक सांस में पढ़ गया। काफी कुछ पता चला पर अंतिम पैराग्राफ छोड़ दीजिये और खासकर वह शब्द “नामुमकिन “

    • नामुमकिन कुछ नहीं होता मैने लगभग नामुमकिन लिखा है।साथ ही उन युवक युवतियों को एक इशारा दिया है जो लिख रहें है….. कि लिखो बहुत अच्छी बात है पर पढ़ाई लिखाई और कैरियर बनाने मे भी जुटे रहो।

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