आधुनिक चीनी राष्ट्रवाद के सामने नतमस्त सेमेटिक भौतिकवाद

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गौतम चौधरी

बीती शताब्दी में एशिया ही नहीं दक्षिण अमेरिका एवं अफ्रिका के देश आजाद होने लगे। इसी कालक्रम में भारत भी आजाद हुआ। साथ ही भारत का पडोसी देश चीन भी अपना वर्तमान स्वरूप ग्रहण किया। प्रथाम चरण में चीन को पश्चिम के संयुक्त राज्य अमेरिका लॉबी के देषों ने मान्यता नहीं दिया और चीन की मान्यता ताईवान को दे दी गयी। यहां यह उल्लेख करना उचित रहेगा कि प्रथम चरण में चीन के स्थान पर ताईवान को ही संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद का स्थाई सदस्य भी बनाया गया, लेकिन भारत के सहयोग से पीपुलि डेमोक्रेटिक ऑफ चाईना को मान्यता मिली और फिर उसे संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद का स्थाई सदस्य भी घोषित किया गया। जब चीन को सुरक्षा परिषद् की स्थाई सदस्यता मिल गयी तो चीन ने अपना पैतरा बदला और भारत ही नहीं साम्यवादी रूस को भी परेशान किया जिसके कारण चीन के पडोसी चीन से खौफ खने लगे। चीन की साम्राज्यवादी एवं विस्तारवादी नीति से भारत आहत हुआ और तिब्बत के मामले पर भारत ने चीन का विरोध किया। चीन को यह अच्छा नहीं लगा और सन 1962 में चीन ने भारत पर आक्रमण कर दिया। हालांकि कुछ भारतीय माओपंथी साम्यवादी इस चिंतन में विश्‍वास नहीं रखते हैं। एक भावुक माओपंथी ने तो मुझे यहां तक बताया कि सन 62 में चीन ने नहीं भारत ने ही पूंजवादी संयुक्त राज्य अमेरिका के उकसाने से चीन पर आक्रमण कर दिया था। भारत का दावा है कि चीन उसका हजारों वर्ग किलो मिटर जमीन अबैध रूप से कब्जा किये हुए है। सन 62 की लडाई के बाद से चीन भरत को नम्बर एक का दुष्मन मान कर चल रहा है और हर समय भारत को घेरने की रणनीति में लगा रहता है। चीन भारत का एक अतिमहत्वपूर्ण पडोसी है। चीन दुनिया के सामने विकास का प्रतिमान बनकर उभरा है। साथ ही चीन का भारत के साथ सांस्कृतिक संबंध भी रहा है। इसलिए चीन में हो रहे परिवर्तन को समझे बिना भारत की सुरक्षा संदिग्ध है। ऐसा मानकर चलना चाहिए।

चीन पुरानी संस्कृति का देश है। जिस प्रकार हम भारत वासियों को सिंधुघाटी सभ्यता पर गर्व है उसी प्रकार चीन की सभ्यता का विकास ह्वांगहो नदी के किनारे विकसित हुई। चीन पर कई प्रभावषाली राजबंषों ने शासन किया है और चीन को आर्थिक एवं सांकृतिक समृध्द बनाया। आज का वर्तमान चीन कहने के लिए भले साम्यवादी हो लेकिन जानकारों का मत है कि चीन सचमुच में हान जाति के द्वारा राष्ट्र चिंतन पर आधारित देश बनकर दुनिया के सामने उभरा है। बीती शताब्दी चीन में साम्यवादी क्रांति हुई और चीन ने अपने पूरे देश में अपने ढंग का साम्यवादी ढांचा खडा किया। उस दौर में चीन को साम्यवादी रूस का भरपूर सहयोग मिला, फिर चीन ने अपने हिसाब से उस समय के दोनों महाशक्ति रूस और अमेरिका का उपयोग किया। चीन के साथ जब भारत की लडाई हो रही थी तो चीन को रूस का समर्थन प्राप्त था लेकिन भारत को अकेला एवं अलग-थलग देख अमेरिका ने उस समय भारत का समर्थन किया और अमेरिकी समर्थन के डर से ही चीनी फौज भारतीय सीमा वापस गये। उस समय से चीन भारत के साथ न केवल आर्थिक अपितु कूटनीतिक स्पर्धा में भी लगा है। चीन ऐसा कोई मौका नहीं छोडना चाहता है जिससे भारत को लाभ हो। धीरे-धीरे दुनिया बदलती गयी, दुनिया में शक्ति का केन्द्र भी बदलता गया। दुनिया का सबसे ताकतबर देश साम्यवादी गणतंत्र, रूस आर्थिक विपन्नता के कारण कई भागों में विभाजित हो गया। तब अमेरिका की ताकत का बढना स्वाभाविक था। आज अमेरिका दुनिया के देषों के जिस लॉबी का नेतृत्व करता है वह दुनिया का सबसे ताकतबर समूह है। इधर चीन को जबतक अमेरिका का साथ चाहिए था तबतक उसने अमेरिका का सहयोग लिया बदले में अमेरिका को रूस की बास्तविकता बताता रहा। क्योंकि चीन को मालूम था कि जबतक रूस जिंदा रहेगा तबतक चीन की प्रगति में बाधा उत्पन्न करता रहेगा। रूस साम्यवादी है तो क्या, एक पडोसी भी है कभी भी सीमा विवाद उभर सकता है। इसलिए चीन ने रूस का कही परोक्ष तो कही प्रत्यक्ष विरोध भी करने लगा। रूस के धारासाई होने से अमेरिका को जो फायदा होना था सो तो हुआ ही इधर चीन को भी जबरदस्त फायदा हुआ। अब दुनिया का एक मात्र देश चीन साम्यवाद का झंडावदार होकर उभरा। यहां भी चीन ने रूस वाली रणनीति नहीं अपनायी। रूस में साम्यवाद की स्थापना के साथ ही दुनिया में साम्यवादी क्रांति को सहयोग करने के लिए अपने यहां अलग से बजट का प्राबधान किया गया, चीन ने ऐसा कुछ भी नहीं किया है। चीन का साम्यवाद चीनी राष्ट्रवाद के साथ समिश्रित हो चुका है। कुल मिलाकर देखें तो चीनी राष्ट्र चिंतकों ने चीनी राष्ट्रवाद के सामने साम्यवाद को घुटने टेकने के लिए मजबूर कर दिया है।

चीन ने केवल साम्यवाद को ही समिश्रित नहीं किया। चीन ने इस्लाम, ईसाईयत और पूंजीवाद को भी घुटने टेकने को मजबूर किया है। हालांकि मंगोल सम्राट चिंनगिज और कुब्लाई खां ने भी इस्लाम को परास्त किया था, उनके बंशजों का एक कुनवा इस्लाम भी कबूल किया। आज का चीन इस्लाम को साधने में लगा है। अपने देश के अंदर इस्लाम को तो उसने परास्त कर ही दिया है अब पाकिस्तान के माध्यम से अरब तक के इस्लामी देषों को चीन साधने लगा है। चीन जिस रणनीति पर काम कर रहा है उससे अंदाजा लगाया जा सकता है कि आने वाले समय में इस्लामी विश्‍व के नेतृत्व की कमान चीन के हाथों होगा और चीन इस्लाम का अपने राष्ट्रनीति के आधार पर उपयोग करेगा।

चीन में लगातार ईसाइयों की संख्या बढ रही है। इधर अमेरिका और उसके मित्र देषों का आरोप है कि चीन साम्यवादी खोल में पूंजीवादी राष्ट्र बन गया है। चीन ने इस मोर्चे पर भी राष्ट्रवाद को महत्व दिया और पूंजीवाद एवं ईर्सायत को घुटने टेकने के लिए मजबूर कर दिया है। यही कारण है कि पष्चित के देश चीन पर इस प्रकार के आरोप लगा रहे हैं। सबसे पहली बात तो यह है कि चीनी चिंतकों ने चीनी राष्ट्रवाद को बडे सातिराणा ढंग से खाडा किया है। जब चीन को रूस का समर्थन चाहिए था तो उसने साम्यवाद का सहारा लिया। जब चीन को संयुक्त राज्य अमेरिका का सहयोग चाहिए था तो उसने पूंजीवाद का सहारा लिया और जब चीन को इस्लाम और ईसाइयत का सहयोग चाहिए था तो उसने बडी चतुराई से ताईवान, हांकांग जैसे ईसाई देशों को साधा और इधर इस्लाम को साधने के लिए उसने पाकिस्तान के साथ दोस्ती गांठ ली। लेकिन याद रहे चीनी राष्ट्रवाद की शर्तों पर चीन के कूटनीतिज्ञों ने कुछ भी मानने से मना कर दिया है। आज का चीन न तो पूंजीवादी चीन है, न ही साम्यवादी,। न तो वह इस्लाम के पदचिंहों पर चल रहा है, न ही चीन ने ईसाई मान्यता को मानना स्वीकार किया है। चीन का राष्ट्रवाद सर्वोपरी है। चीन ने दुनिया के चारो भौतिवादी चिंतनों का उपयोग कर नये रूप से आधुनिक चीनी राष्ट्रवाद को खडा किया है। उन्न्ति हो या पतन लेकिन आने वाला विष्व चिंनी राष्ट्रवाद के सामने नतकस्तक जरूर होगा। चीन का वर्तमान राष्ट्रवाद भारत के लिए कितना खतरनाक है, यह राष्ट्रवाद पष्चिम के देषों के लिए कितना खतरना है या यह राष्ट्रवाद दुनिया के देषों के लिए कितना घातक है यह आधुनिक चीनी राष्ट्रवाद का दूसरा पहलु हो सकता है, लेकिन चीन के चिंतन को दाद देना तो पडेगा ही। आज चीन पर पष्चिमी मीडिया का अरोप है कि वह पूंजीवादी देश बन गया है। बिहार के रहने वाले लोहिवादी चिंतक सच्चिदानंद सिंह की एक पतली सी पुस्तक है जिसका नाम है नक्सलवाद का वैचारिक संकट। पुस्तक में सिंह लिखते हैं कि पूंजीवाद और साम्यवाद में कोई अंतर नहीं है। दोनों पूंजी के केन्द्रीकरण में विश्‍वास रखते हैं। एक की पूंजी अनियंत्रित समूह के पास होती है तो दूसरे की पूंजी सत्ता नियंत्रित समूह के पास। मंदी से पहले अमेरिका और अमेरिकी समूह के देश चीन पर आरोप लगाते थे कि चीन पूंजीवादी हो गया है। वही आरोप चीन ने मंदी के समय अमेरिका और अमेरिकी मित्र देषों पर लगाया जब अमेरिका ने अपने बैंकों को डूबने से बचाने के लिए उसे राष्ट्रकृत कर सहायता देना प्रारंभ किया तो चीन ने कहा कि अमेरिका अब साम्यवाद की शक्ति को समझने लगा है। यह देखकर सिंह के कथन की सत्यता साबित हो जाती है।

चीन के वर्तमान स्वरूप को देखकर ऐसा कहना ठीक रहेगा कि उसने दुनिया के चारो भौतिकवादी सेमेटिक चिंतन को अपने राष्ट्रवाद के साथ समिश्रित कर आधुनिक चीन का निर्माण किया है जो बिल्कुल चीन का अपना स्वदेषी चिंतन है। दुनिया के देषों को भले चीन एक बंद घर लगे लेकिन चीन ने दुनिया के वर्तमान सभी प्रचलित विचारों को अपने ढंग से उपयोग किया है। चीन के निर्माण में प्राकृतिक संसाधनों का कम मानव संसाधनों का उपयोग ज्यादा हुआ है। चीन की जनसंख्या चीन की ताकत है। चीन अपने कुशल मजदूरों के बदौलत दुनिया में अपना डंका पीट रहा है। भारत को अगर जिन्दा रहना है तो चीन से सीखना पडेगा। चीन भारतीय चिंतक मगध महामात्य विष्णुगुप्त चाणक्य की कूटनीति पर ही तो चल रहा है। चाणक्य ने भी उस समय के प्रचलित सभी चिंतकों को भारतीय राष्ट्रवाद के सामने घुटने टेकने को मजबूर कर दिया था आज चीन ने भी वहीं किया है। वर्तमान भारत की समस्या भारतीय राष्ट्रवाद की विफलता को चिंहित करता है। चीन हमारा दोस्त हो या दुष्मन लेकिन एक महत्वपूर्ण पडोसी तो है ही जिसे भारत नजरअंदाज नहीं कर सकता है। इसलिए जिस प्रकार चीन ने अपने आधुनिक राष्ट्र को दुनिया के सामने प्रस्तुत किया है उसी प्रकार भारत को भी अपने सांस्कृतिक स्वरूप को बचाते हुए दुनिया के स्थापित चिंतन को राष्ट्रवाद के साथ जोडकर एक शक्तिषाली राष्ट्र बनाना चाहिए। याद रहे जब ताकत होती है तो दुनिया नतमस्तक होती है। कमजोर को कोई सहयोग नहीं करता है। एक हफीमची देश आज दुनिया को धमका रहा है तो उसे दाद दिया जाना चाहिए। उसके पास कुछ है तो उसका अनुशरण भी करना चाहिए। फिर चीन का तो भारत के साथ सदियों से संबंध रहा है। रही बात चीन के दुष्मनी की तो हमारे पास ऐसे कई हथियार हैं जिससे चीन को परास्त किया जा सकता है लेकिन पहले भारत को अपने चिंतन के आधार पर सचमुच का भारत बनना होगा। आज का भारत भारत नहीं इण्डिया है। चीन इस्लाम, ईसाइयत, पूंजीवाद और साम्यवाद को अपने ढंग से उपयोग कर रहा है। भारत को भी ऐसा ही करना चाहिए लेकिन चीन से थोडा भिन्न भारत को होना पडेगा। चीन ने भौतिकवाद का जवाब भौतिकवाद से दिया है जबकि भारत को भौतिकवाद का जवाब आध्यात्मवाद से देना चाहिए। भारत को अपने ढांचागत निर्माण के लिए गांधी, लोहितया और पं0 दीनदयाल के चिंतन को आत्मसात करना चाहिए चीन को भी लंबे समय तक जिंदा रहना है तो भारत के चिंतन को अपनाना चाहिए।

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  1. मेरा व्यक्तिगत मानना है कि दुनिया की हर क्रांति के पीछे राष्टवादी चिंतन और ताकत ने काम किया है। मार्क्स के चिंतन को जब लेनिन ने धरती पर उतारने का प्रयास किया तो उनके सामने सबसे बडी समस्या थी कि मार्क्स के चिंतन का ढांचा क्या होना चाहिए। लेनिन खुद अपने मुह से कहते हैं कि कोई मंत्री सरकार नहीं चलाता है, सरकार तो प्रषासक ही चलाता है। इसलिए किसी को भी मंत्री बनाया जा सकता है। लेकिन प्रथम बोलसेविक मंत्रिमंडल में किसान एवं मजदूरों के प्रतिनिधियों को नहीं रखा गया। इसे किस प्रकार का साम्यवाद कहा जाना चाहिए? साम्यवादियों को इसपर विचार करना चाहिए। अपनी आंखों से मैने देखा है मैंने माओवादी नेताओं की आईयासी। माओवादी कम्यूनिस्ट सेंटर के प्रमुख प्रमोद मिश्र का मकान देखना है तो कोई जाकर देख ले। क्या आलिषान बंग्ला बनवाया है काम्रेड ने। बिहार के मार्कवादी कम्यूनिस्ट नेता गणेष शंकर विद्यार्थी को हजारों एकड जमीन था। जितने भी नक्सली नेता है वे सब के सब सामंत और अभिजात्य परिवार से आते हैं। मेरा मानना है कि साम्यवाद शुरू से एक विफल चिंतन रहा है। यह जहां भी थोडा सफल हुआ है वहां साम्यवाद ने राष्टवाद को अपना औजार बनाया है। खालिस साम्यवाद दुनिया में कही नहीं है। जो लोग खालिस साम्यवाद की बात करते हैं उसे साम्यवादी ही गटर में डाल देते हैं। बंगाल के साम्यवादी निवट गये यह बडा विषय नहीं है बडा विषय तो यह है कि लालू प्रसाद और नीतीष कुमार जैसे जातिवादी समाजवादियों ने बडी शालीनता से साम्यवाद को पचा लिया। मेरा मानना है कि जो साम्यवादी इधर उधर के मार काट में अपना समय बरवाद कर रहे हैं उन्हें भारतीय परिप्रेक्ष में एक साम्यवादी राष्टवादी की परिकल्पना प्रस्तुत करनी चाहिए। इससे निकट भविष्य में न केवल भारत के संघीय ढाचा को फायदा होगा अपितु साम्यवादियों को भी जमीन उपलब्ध होगा।

  2. सोवियत पराभव के उपरान्त एक ध्रुवीय जागतिक व्यवस्था ने अंतर -राष्ट्रेय्तावादियों को निराश किया है.अब भारतीय परिप्रेक्ष्य में एक धर्मनिरपेक्ष संघीय राष्ट्रवाद की ओर रुझान बढ़ रहा है.चीन भले ही कितना ही ताकतवर क्यों न हो किन्तु भारत को उसके बहु पार्टी प्रजातंत्र की वजह से सारे संसार का समर्थन हासिल है. halaki pashchimi rashtron की saamrjywadi lipsa के kaaran भारतीय poonjiwadi प्रजातंत्र में itnee taakat nahin की देश की रक्षा कर सके ,इसीलिये अब यह सिद्धांत पेश किया जा रहा है की चीन को निपटाना है तो चीन बन जाओ.

  3. चीन की राष्ट्रवादी सरकार केवल एक राष्ट्रवादी भारत सरकार की बात ही सुनेगा.भ्रष्टाचार में डूबे भारत के वर्तमान शाशकों की चीन कोई परवाह नहीं करता है.उलटे इन भ्रष्ट नेताओं ढुलमुल रवैये के कारन और अधिक मनमानी करता रहेगा.चीन भी अपने सिंकियांग प्रान्त में मुस्लिम अलगाववाद की वैसी ही समस्या झेल रहा है जैसी भारत में कश्मीर की है.एक रिपोर्ट के अनुसार सिंकियांग के विद्रोहियों को भी पाकिस्तान की आई एस आई द्वारा प्रशिक्षण दिया गया है. फिर भी चीन केवल भारत को परेशां करने तथा सीमा वार्ता में भारत से अधिक से अधिक लाभ प्राप्त करने के लिए पाकिस्तान को जरूरत से अधिक सहयोग का नाटक कर रहा है ताकि भारत दवाब में अधिक से अधिक बात चीन की मान ले.जिस दिन भारत एक मजबूत राष्ट्रवादी देश के रूप में नज़र आएगा चीन क्या दुनिया के सभी देश भारत का सम्मान करेंगे. यह नहीं भूलना चाहिए की सोविएत संघ व चीन का टकराव वास्तव में रूसी राष्ट्रवाद व चीनी राष्ट्रवाद का टकराव था. दुसरे विश्व युद्ध में जब हिटलर की सेना रूस में घुस गयी तो सर्वहारा की क्रांति का नारा नाकाम हो गया. तब स्टालिन ने रूसी राष्ट्र नायकों का सहारा लेकर लोगों में प्रेरणा जगाई. पीटर दी ग्रेट का नाम लेकर उत्साह भरा तब जाकर हिटलर की फौजों को खदेड़ा जा सका. हेराल्ड ट्रिबुने के संवाददाता मौरिस हिंदस ने उस समय की स्थिति का वर्णन मदर रसिया नमक अपनी पुस्तक में किया है और लिखा है की उस समय पूरे सोविएत संघ में रुसी राष्ट्रवाद का ही सर्वत्र बोलबाला था. भारत को भी यदि अपने साइज़ के अनुरूप अपना स्थान प्राप्त करना है तो राष्ट्रवाद से ही प्राप्त हो सकता है.

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