गरीबों के साथ मजाक

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सतीश सिंह
गरीबी हमेशा से भारत के लिए एक गंभीर समस्या रही है। अभी हाल ही में योजना आयोग ने एक नया शगूफा छोड़ा है। आयोग के अनुसार शहर में प्रति दिन 20 रुपये कमाने वाले को गरीब नहीं माना जा सकता है। ग्रामीण इलाकों में इस संदर्भ में आय की सीमा को 15 रुपये रखा गया है।
सरकार के इस नये फरमान से बहुत से अर्थशास्त्री भी हैरान हैं। आम आदमी के लिए सरकार का गरीबी को मापने का यह नया फार्मूला चौंकाने वाला है। वे न तो ठीक से हँस पा रहे हैं और न ही रो।
गौरतलब है कि पहले भी तेंदुलकर समिति और सरकार के गरीबी को मापने के आँकड़े भ्रामक रहे हैं। इस तरह से देखा जाए तो अभी तक भारत में गरीबों की संख्या का ठीकठीक पता किसी को नहीं है। सभी अंधेरे में तीर चला रहे है। बावजूद इसके सरकार के नुमाइंदे, अर्थशास्त्री और राजनेता अक्सर बयान देने से बाज नहीं आते हैं कि भारत में गरीबों की संख्या कम हुई है।
लगता है सरकार गरीबी को सचमुच कम करना नहीं चाहती। लेकिन वह आंकड़ों की बाजीगरी के द्वारा भारत को संपन्न देश जरुर बनाना चाहती है। उसका सारा खेल इस मुद्दे को केंद्र में रखकर चल रहा है। दरअसल भारत में भेड़चाल में चलने की सबको आदत पड़ गई है। चमचागिरी, दलाली (लाबिंग) और रिश्वत के बिना यहाँ कोई काम ही नहीं होता।
वित्त मंत्रालय का कार्यभार संभालने के बाद से प्रणव मुखर्जी के संसदीय चुनाव क्षेत्र जंगीपुर में 2008 से जून 2011 तक में सरकारी बैंकों की 22 शाखाएँ खुल चुकी हैं। ऐसी जगह पर 22 शाखाओं का खोला जाना, जहाँ पर बैंकों को कारोबार मिलने की कोई संभावना नहीं है, चमचागिरी का अद््भूत उदाहरण है।

इस तरह के प्रतिकूल स्थिति में यदि कोई बैंककर्मी बजट को पूरा नहीं करने के कारण आत्महत्या कर लेता है तो उसके लिए कौन जिम्मेदार होगा? नि:संदेह 100 फीसदी वित्तीय समग्रता के लिए दबाव बनाने वाले रिजर्व बैंक की भूमिका भी इस मामले में संदेहास्पद है। एक लोकतांत्रिक देश में इस तरह की दोहरी और भेदभाव वाली नीति निश्चित रुप से शर्मनाक है।
इस तरह के अराजकतापूर्ण माहौल में हम गरीबी को कैसे खत्म कर सकते हैं ? मनरेगा दो जून की रोटी की तो व्यवस्था कर सकता है, लेकिन आम आदमी की आय में कोई इजाफा करने में असमर्थ है। मजदूरों को यह योजना स्वरोजगारी कदापि नहीं बना सकता। हाँ, इस मामले में कुछ सरकारी योजनाएँ मसलन, स्वर्ण जयंती शहरी रोजगार योजना, स्वर्ण जयंती ग्रामीण स्वरोजगार योजना और पीएमईजीपी की भूमिका सकारात्मक हो सकती है। पर इसके लिए लाभार्थी, बैंक और राज्य सरकार को अपने काम के प्रति ईमानदार होना होगा।
जीवन में पैसों का महत्व क्या है ? यह किसी को बताने की जरुरत नहीं है। इस बाबत बैंक की भूमिका समाज में अतुलनीय है। बैंककर्मी अपनी रणनीति व सुझबूझ से चाहें तो समाज का कायाकल्प कर सकते हैं। अपनी वित्तीय ताकत से वे एक अच्छे समाज सेवक बन सकते हैं। परन्तु इसके लिए उनको अपना काम सच्चाई एवं ईमानदारी से करना होगा। इसमें दो मत नहीं है कि बैंककर्मी अपना काम ईमानदारी से नहीं कर रहे हैं। भ्रष्टाचार के पंक पयोधि में सभी आकंठ डूबे हुए हैं।
पर्यावरण मंत्रालय का मुखिया रहते श्री जयराम रमेश ने अपने बिंदास निर्णयों से उद्योग जगत को गहरा झटका दिया था। अपने अच्छे कामों का उन्हें जल्दी ही खामियाजा भी भुगतना पड़ा।
लाबिंग के दबाव में मनमोहन सिंह ने मंत्रियों के ताजे फेरबदल में उन्हें ग्रामीण विकास मंत्रालय की कमान पकड़ा दी है। बावजूद इसके उन्होंने अपने पुराने तेवर को नहीं बदला है। नये मंत्रालय की कुर्सी पर बैठने के साथ ही उन्होंने मंत्रालय के अधिकारियों को निर्देश दिया है कि वे स्वंय सहायता समूहों को बैंकों के द्वारा दिये जाने वाले ऋणों पर प्रभारित ब्याज दर को किसान क्रेडिट कार्ड के समकक्ष लाने के लिए संभावना तलाश्ों। उल्लेखनीय है कि वर्तमान में किसान क्रेडिट कार्ड धारकों को महज 5 फीसदी ब्याज अदा करना पड़ता है।
जाहिर है स्वंय सहायता समूह वह हथियार है जिसकी सहायता से गरीबी को निश्चित रुप से कम किया जा सकता है। इस तरह के समूह में एक समान विचारधारा एवं समान कामधंधे करने वाले लोग शामिल रहते हैं। इनकी मूल समस्या आर्थिक होती है। काम के मामले में ये लोग पारंगत होते हैं। बांगला देश और भारत के आंध्रप्रदेश और केरल में स्वंय सहायता समूह के माघ्यम से ग्रामीण क्षेत्रों में स्वरोजगार का एक सशक्त दीवार खड़ा किया गया है। अब बिहार भी आंध्रप्रदेश के नक्शोकदम पर चलते हुए स्वयं सहायता समूह का विशाल नेटवर्क खड़ा करने की दिशा में तेजी के साथ अग्रसर है। इस संबंध में सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि इस पूरी कवायद में महिलाओं की भागीदारी प्रशंसनीय है। आंध्रप्रदेश में महिलाओं ने पहले ही अपनी सफलता का झंडा गाड़ दिया था। अब इतिहास के पन्नों पर नई इबारत लिखने की बारी बिहार के महिलाओं की है।
फिलहाल राज्य सरकार के द्वारा चिन्हित समूह को बैंक ़सामान्य ब्याज दर पर ऋण देती है। सरकार की तरफ से समूह को सिर्फ सबसिडी का फायदा मिलता है। वह भी खाता का संचालन सही तरीके से करने की शत्तर पर।
बहरहाल श्री रमेश चाहते हैं कि आगामी 10 सालों में स्वयं सहायता समूह की पहुँच 40 मिलियन गरीबों तक पहुँचे। ज्ञातव्य है कि फिलहाल तकरीबन 3 करोड़ महिलाएँ स्वयं सहायता समूह में काम कर रही हैं। श्री रमेश की योजना आगामी 10 वर्षों में 7 करोड़ महिलाओं को स्वयं सहायता समूह से जोड़ने की है।
अपने इस सपने को साकार करने के लिए श्री रमेश चाहते हैं कि बैंक इस काम को अमलीजामा पहनाने के लिए ग्रामीण क्षेत्रों में प्रतिबद्ध शाखा खोले। जरुरत पड़ने पर श्री रमेश की वित मंत्री श्री प्रणव मुखर्जी से भी बात करने की योजना है।
कोशिश करने से समाधान निकलता है, न कि शुर्तूरमूर्ग की तरह रेत में मुहँ छिपाने से। कांग्रेसनीत सरकार का व्यवहार आज की तरीख में शुर्तूरमूर्ग की तरह का है। गरीबी को कम करने के लिए हमें गरीबों को आत्मनिर्भर बनाना होगा। इस सबंध में सरकारी योजनाएँ और स्वंय सहायता समूह की संकल्पना कारगर हो सकता है। बशत्तेर ईमानदारी पूर्वक काम किया जाए।

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