क्या भारतीय जनता पार्टी का कांग्रेस में विलय कर देना चाहिए? दरअसल यह सवाल इसलिए भी उठ रहा है क्योंकि देश में भ्रष्टाचार को लेकर उठे वैचारिक द्वंद्व के चलते दोनों राष्ट्रीय दलों की हालत चोर-चोर मौसेरे भाई जैसी नज़र आती है। संप्रग २ के कार्यकाल में जहाँ घोटाले की झड़ी लग गयी है तथा नित नए घोटाले उजागर हो रहे हैं वहीँ चाल, चेहरा और चरित्र की शुचिता का भाजपा का दावा हवा-हवाई साबित हो रहा है। भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष नितिन गडकरी की व्यापारी छवि पार्टी पर भारी पड़ रही है। उनकी कंपनी पूर्ति में बड़े पैमाने पर वित्तीय अमियामितताओं का आरोप लगा है। इन आरोपों के चलते जहाँ राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ने गडकरी को बीच मझधार में अकेला छोड़ दिया है वहीँ पार्टी का एक धड़ा भी उनकी मुखालफत कर रहा है। खबर है कि गुजरात में नवम्बर माह में होने जा रहे विधानसभा चुनाव में नरेन्द्र मोदी ने स्टार प्रचारकों की सूची में अव्वल नितिन गडकरी को गुजरात में चुनाव प्रचार की अनुमति देने से मना कर दिया है। मोदी को आशंका है कि गडकरी के प्रदेश में चुनाव प्रचार करने से केंद्र के भ्रष्टाचार का मुद्दा दब जाएगा तो कांग्रेस को गडकरी के बहाने भाजपा की छवि धूमिल करने का अवसर भी प्राप्त हो जाएगा। यह स्थिति किसी भी लिहाज से मोदी के पक्ष में नहीं जा रही। हाल ही में एक निजी मीडिया घराने के चुनाव पूर्व सर्वेक्षण में मोदी को तीसरी बार सत्ता सुख भोगते दिखाया है। ऐसे में भाजपा की एक भूल मोदी के हितों पर कुठाराघात कर सकती है। मोदी का गडकरी को गुजरात में आने से रोकना यह साबित करता है कि अब गडकरी के अध्यक्षीय कार्यकाल के दिन लदने वाले हैं। अपने तीन वर्षीय अध्यक्षीय कार्यकाल में गडकरी ने संघ कृपा के चलते पार्टी में मजबूत स्थान बना लिया था। दिल्ली चौकड़ी तक उनके फैसलों को पलटने की जहमत नहीं उठाती थी। किन्तु उत्तरप्रदेश विधानसभा चुनाव में पूर्व मंत्री बादशाह सिंह से लेकर तमाम दागियों को पार्टी में शरण देकर गडकरी अपनों के कोप का भाजन बने। फिर झारखंड में राज्यसभा चुनाव में अपने सहयोगी आशुतोष मिश्र को टिकट देने का उनका फैसला भी पार्टी में भूचाल ले आया। हालांकि टिकट एसएस अहलुवालिया को ही मिला किन्तु विवाद से पार्टी की छवि इतनी दागदार हुई कि अहलुवालिया चुनाव हार गए। महाराष्ट्र में भी गडकरी को राज्यसभा सांसद अजय संचेती का साथ भारी पड़ा। अजय संचेती कथित तौर पर गडकरी के फायनेंसर माने जाते हैं और गडकरी ने भी हर कदम पर उनका साथ दिया है। हालांकि इसी कीमत अब उन्हें चुकानी पड़ रही है।
महाराष्ट्र में लोकनिर्माण मंत्री रहते गडकरी ने पूरे प्रदेश में सड़कों का जो जाल बिछाया था और शायद उनके राजनीतिक जीवन की यही एकमात्र सफलता भी है, पर भी सवाल उठ रहे हैं। कहा जा रहा है कि उन्होंने जिस कंपनी को सड़क बनाने का ठेका दिया उससे भी गडकरी के व्यापारिक रिश्ते थे। यानी दोनों ने सड़क बनाने के बहाने जमकर माल बनाया। गडकरी की व्यापारिक बुद्धि को देखकर कांग्रेस महासचिव दिग्विजय सिंह का एक कथन याद आता है जिसमें उन्होंने कहा था कि व्यापारी यदि राजनीति में उतरे तो उसे व्यापार को पीछे छोड़ देना चाहिए और राजनीतिज्ञ यदि राजनीति करे तो व्यापार बंद कर देना चाहिए। पर गडकरी ने यही नहीं किया। उन्होंने राजनीति को अपने व्यापार का अड्डा बना डाला। अब जबकि उनपर भ्रष्टाचार के गंभीर आरोप लग रहे हैं और कई केंद्रीय जांच एजेंसियां भी उनकी जांच कर रही हैं, उनका बचना मुश्किल ही है। गडकरी के बहाने कांग्रेस केंद्र का भ्रष्टाचार दो दबा ही लेगी, मंत्रिमंडल और संगठनात्मक फेरबदल के चलते छवि निर्माण और डैमेज कंट्रोल भी कर लेगी। कांग्रेस का विकल्प बनती नज़र आ रही भाजपा के लिए गडकरी का भ्रष्टाचार नासूर बन गया है जिसे यदि उसने जल्द ही नहीं हटाया तो इसका उसे दीर्घकालीन नुकसान होना तय है। वहीँ संघ मुखिया मोहन भागवत ने निजी जिद के चलते गडकरी को राष्ट्रीय अध्यक्ष तो बनवा दिया किन्तु अब वे स्वयं गडकरी के गडबडझाले पर चुप हैं। भगवत की चुप्पी से यह सवाल उठ रहा है कि क्या गडकरी के बहाने संघ के हितों को भी संरक्षण मिल रहा था? नागपुर से पांच बार के कांग्रेस सांसद विलास मुत्तेमवार की माने तो यह आरोप यही लगते हैं। चूँकि नागपुर में गडकरी विशुद्ध रूप से व्यावसायिक व्यक्तित्व के रूप में जाने जाते हैं और संघ का उनके प्रति झुकाव भी अतिरेक की सीमा को पार करता है लिहाजा गडकरी-संघ रिश्तों पर तो सवाल उठने ही हैं। गडकरी पर विवाद के चलते अब भाजपा में नेतृत्व संकट खड़ा हो गया है और जहाँ तक पार्टी को जानने वालों की राय है तो अंदरखाने गडकरी की कुर्सी पर कई दिग्गजों की नज़र गड गयी हैं। कुल मिलकर आने वाले दिनों में भाजपा भले ही गडकरी छाया से मुक्त हो जाए किन्तु भ्रष्टाचार को लेकर जो मुखरता उसने दिखलाई थी उसकी असमय मौत में गडकरी का योगदान ही अधिक है।
सिद्धार्थ शंकर गौतम
सच पूछिए तो मुझे श्री गडकरी द्वारा किये हुए गए अनियमितताओं में कुछ भी नयापन नहीं दिख रहा है.भारत के वर्तमान नेताओं में शायद ही कोई ऐसा हो जो इस रंग में नहीं रंगा हो.भारत में वास्तविक ईमानदारों के संख्या भले ही नगण्य हो,पर यहाँ का अभी तक का मापदंड यही है कि जो पकडे नहीं गए ,वे सब ईमानदार हैं और उन्हें दूसरों पर कीचड़ उछालने का पूर्ण अधिकार है.अगर पकडे भी गए तो इसे राजनैतिक बदला कहकर तब तक अपना दामन बचाते रहेंगे,जब तक क़ानून उनको दोषी न करार कर दे,जिसकी संभावना बहुत ही कम होती है.राजनैतिक नेताओं के बारे में जो कहा जा रहा है कि चोर चोर मौसेरे भाई,वह एक दम सही है.इस मामले में दिग विजय सिंह ने कहा ही है कि हम लोगों में एक अलिखित समझौता है कि हमलोग एक दूसरे के परिवारों पर कीचड नहीं उछालते.अब देखना तो यह है कि गडकरी को कर्नाटक के पूर्व मुख्य मंत्री यदरूपा वाला रास्ता दिखाया जाता है या नहीं
आलेख पर केवल इतना ही कहा जा सकता है कि व्यापर व उद्योग चलने के लिए पारदर्शिता कि कमी और नियमों व अव्यवहारिक कानूनों के चलते बहुत से समझौते चाहे अनचाहे करने पड़ते हैं इसी कारन भ्रष्टाचार के खेल में प्रवीण कांग्रेस ने धनपतियों से लाभ तो उठाया लेकिन कभी भी उन्हें पार्टी का अध्यक्ष या प्रमुख पदाधिकारी नहीं बनाया.यहाँ तक कि महात्मा गाँधी जी के घनश्याम दास बिडला जी से घनिष्ट संबंधो के बावजूद उन्हें या कृष्ण कुमार बिडला जी को या जमाना लाल बजाज जी को कभी कांग्रेस का अध्यक्ष या प्रमुख पदाधिकारी नहीं बनाया गया. इस वास्तु स्थिति का भाजपा ने ध्यान नहीं रखा इसी कारण से मौजूदा स्थिति का सामना करना पड रहा है.समझदारी से काम लेने पर भाजपा इस स्थिति से उबर कर सफलता का नया अध्याय लिख सकती है.