गांधी जी ने कभी टोपी नहीं पहनी और अगर पहनी भी हो तो सार्वजनिक रूप से उसकी चर्चा नहीं है।लेकिन बि्रटिश हुकूमत से लड़ने के क्रम में गांधी टोपी चर्चित हुर्इ।वह संघर्ष का प्रतीक बनी।टोपी देशी है।महाराष्ट्र के किसान आज भी काम करते हुए टोपी पहनते हैं। आजादी की लड़ार्इ लड़ते हुए गांधी टोपीवाले जेल गये, लाठियां खार्इं और गोलियों के शिकार बने।भगतसिंह ज्यादातर पगड़ी पहनते थे।पगड़ी देशी है,लेकिन युवाओं को पगड़ी नहीं भार्इ।युवाओं को भगतसिंह की हैट पसंद है।युवा भगतसिंह की उस तस्वीर को पसंद करते हैं जिसमें भगतसिंह ने हैट पहन रखी है।यह तस्वीर भगतसिंह ने दिल्ली के कश्मीरी गेट के एक छोटे से स्टूडियो में खिचवार्इ थी।उसके कुछ दिनों बाद ही उन्होंने एसेम्बली पर बम फेंका था।भगतसिंह की हैटवाली तस्वीर पर्चे-पोस्टर में तो मिलती ही हैं।वह वहां भी मिलती हैं,जहां-जहां भगतसिंह की प्रतिमाएं लगी हैं।पगड़ीवाली प्रतिमा मैंने आज तक नहीं देखी।
मन में प्रश्न उठता है कि ऐसा क्यों हुआ कि युवाओं को भगतसिंह की देशी पगड़ी नहीं भार्इ और उन्हें अंग्रेजी हैट पसंद आर्इ और यह हैट गांधी जी की देशी टोपी को टक्कर दे रही थी?क्या युवा यह मान रहे थे कि देशी साधनों के बूते आजादी की लड़ार्इ नहीं जीती जा सकती? ‘उदभावना के संपादक अजेय कुमार ने इस प्रश्न का उत्तर यों दिया है- ‘यह इसलिए हुआ क्योंकि इसमें वह अथारिटी झलकती थी जो अंग्रेजों में होती थी।अंग्रेज को टक्कर देने वाले के पास हैट होना उसकी ताकत का प्रतीक माना गया। उत्तर देते हुए उन्होंने एक पंकित और जोड़ी-‘यही कारण रहा होगा कि इस हैट ने गांधी की टोपी को पीछे छोड़ दिया।इसके दो अर्थ निकलते हैं।एक, गांधी जी की टोपी में अंग्रेजों की अथारिटी नहीं थी,इसलिए वह कारगर नहीं थी और दूसरे, देश के युवा अंग्रेजों को उन्हीं के तरीके से जबाव देना चाहते थे।अंगे्रजों की आक्रमकता का जबाव भारतीयों की आक्रमकता ही है।मगर यह आक्रमकता क्यों चुक जाती है,जब अंग्रेजी हुकूमत के खिलाफ जनता उफान पर थी ?क्या सिर्फ इसलिए कि उस विचारधारा से वे इतितफाक नहीं रखते थे?
गांधी जी ने योरोप में शिक्षा ली थी।अंगे्रजी नहीं जानते रहें होंगे,ऐसा सोचना भी सर्वथा गलत होगा।अंगे्रजी वस्त्रों को पहनने का वे शौक रखते थे।योरोप में बिताये गये दिनों में वे अंग्रेजी कल्चर के प्रति भी आकर्षित थे।उन्होंने हैट भी पहनी थी।दक्षिण अफि्रका जाते हुए भी अंग्रेजी वस्त्रों और उसके कल्चर से वे मुक्त नहीं हुए थे।दक्षिण अफि्रका में जब उनका अंग्रेजों से मुठभेड़ प्रारंभ हुआ तो वे धीरे-धीरे अंग्रेजी वस्त्रों से वे मुक्त होने लगे और अंग्रेजी कल्चर को त्याग दिया।लगता है कि वे यह समझने लगे थे कि जिस कल्चर ने दुनिया के अनेक देशों को गुलाम बना रखा है,वह सही नहीं हो सकता और उससे मानव का कल्याण संभव नहीं है। इसलिए संघर्ष के रास्ते के लिए उन्होंने देशी वस्त्र, विचार और प्रतिकार के देशी हथियारों की खोज और उसका इस्तेमाल करना प्रारंभ किया। दक्षिण अफि्रका से भारत आये और कांग्रेसी सभाओं में भाग लिया तो वे अजनबी की तरह थे।वहां जो लोग मौजूद थे,वे कोट-पतलून में थे और गांधी देहाती वस्त्र में।तबतक देहाती मन, उसकी समस्याएं और उसकी चेतना कांग्रेस के चरित्र में शामिल नहीं थी।इसलिए गांधी उपेक्षित भी रहे।
उसके बाद गांधी देश घूमने लगे और देशवासियों की हालत देखकर उन्होंने देशी वस्त्रों में और भी कमी की।एक गरीब देश की जरूरतें क्या हैं,इसे जानने-समझने की कोशिश की।देश गांधी के रंग में रंगने लगा और गांधी देश के रंग में। गांधी देशी भाषा की पैरवी करने लगे।देश की आवो-हवा को पहचान कर अंगे्रजी हुकूमत के खिलाफ लड़ने लगे और समाज की पुनर्रचना के लिए देशी औजारों का इस्तेमाल करने लगे।वे यह कहने लगे कि अंग्रेजों को रहना हैं तो रहें,लेकिन देश में उनकी आदतें और उनका स्वभाव नहीं रहेगा।उनके विचारों का जो देशीपन है,वही उन्हें आज तक प्रासंगिक बनाये हुए है।गांधी और पंडित जवाहरलाल का वैचारिक झगड़ा इसी देशीपन को लेकर है।वैसे कुछ लोग यह भी कहते हैं कि गांधी के विचार पर विदेशी विचारकों का पर्याप्त प्रभाव है।मगर उन्होंने उन विचारों को देश की सीमाओं में ही स्वीकार किया।
भगतसिंह की पगड़ी की जगह हैट का आ जाना भी कम गूढार्थ नहीं है।भगतसिंह की परंपरा में आज भी देशी वस्त्र और बोली को ज्यादा अहमियत नहीं दी जाती।भगतसिंह और उसके साथियों ने देश के लिए शहादत दी।उन्होंने बि्रटिश साम्राज्यवाद को चुनौती दी।युवाओं ने उन्हें प्यार किया और अपना आइकन माना।आज भी वे प्ररेणा के स्रोत हैं।भगतसिंह और उनके साथियों को अंग्रेजों ने जिस क्रूर तरीके से सजा दी,उसे कोर्इ सभ्य समाज नहीं स्वीकारेगा।पंडित नेहरू ने गांधी के विचारों को तवज्जो नहीं दी।वे अपने देश की उन्नति के लिए विदेशी उपकरणों और संसाधनों का इस्तेमाल किया।यहां तक कि देशी भाषाओं की जगह अंग्रेजी को रानी बनाकर रखा।नतीजा है कि आज देश के पास न अपना वस्त्र है,न खाना है और न विचार है।युवाओं के अंदर विदेशी वस्त्र,खाना,भाषा और विचारों के लिए ललक है।उदारीकरण के विदेशी विचार और संस्कृति से सामना करने के लिए हमारे पास क्या है?वामपंथी दल आजकल देशी समाजवाद की तलाश कर रहे हैं,विदेशी भाषा में।देशी समाजवाद का रास्ता देशी आवो-हवा से ही गुजरेगा।
जो भी हो,नियति का व्यंग्य देखिए।आज गांधी टोपी को देखकर कोर्इ अच्छी राय नहीं बनाता।भारतीय बाजार और घरों में विदेशी वस्त्रों की धूम मची है।अगर आप चटपट प्रगतिशील बनाना चाहते हैं तो विदेशी वस्त्र पहन लें।अपनी भाषा के बजाय अंग्रेजी में बात करें तो आपको ज्यादा बड़ा विद्वान माना जायेगा।पशिचमी दुनिया के दोयम दर्जे के विचार उगलने लगें तो आपको सर्वश्रेष्ठ माना जायेगा।भाषा कैसे शोषण का औजार बनती है,इसे आप अंग्रेजी की दास्तान से समझ सकते हैं।जिन्हें देश में समाजवाद लाना है ,उन्हें इस तथ्य को नोट करना चाहिए।समाजवाद की धारणा देश में तभी आकार लेगी,जब उसकी अवधारणा देश की आवो-हवा से पुष्ट होगी।