राजनीति गांधी दर्शन से प्रेरित हो

संसद में देश की मौलिक समस्याओं की उपेक्षा हो रही है। पवित्र सदन में असभ्य टिप्पणियां हो रही हैं। पूर्व प्रधानमंत्री अटल जी के विरूध्द अमर्यादित बातें कही गयीं। गांधी जी ने ब्रिटिश तर्ज की संसदीय परम्परा से आगाह किया है। भारत को गांधी की, गांधी दर्शन की, गांधी जी द्वारा स्मरण कराई गई प्राचीन सभ्यता के अनुसरण की जरूरत है। गांधी जी राष्ट्रधर्मनिष्ठ थे। उन्होंने एक-एक विचार पर गम्भीर चिंतन किया था लेकिन सतही विद्वानों ने गलत निष्कर्ष निकाले कि उन्होंने सर्वोदय का सिध्दांत रस्किन से, ग्रामसभाओं का सूत्र हेनरी मेन से और सत्याग्रह का विचार टोलस्तोय से ग्रहण किया था। गांधी जी ने हिन्द ‘स्वराज की प्रस्तावना’ में लिखा हैं जो विचार यहां रखे गये हैं, वे मेरे हैं और मेरे नहीं भी हैं। वे मेरे हैं, क्योंकि उनके मुताबिक बरतने की मैं उम्मीद रखता हूँ, वे मेरी आत्मा में गढ़े-जुड़े हुए जैसे हैं। वे मेरे नहीं हैं, क्योंकि सिर्फ मैंने ही उन्हें सोचा हो सो बात नहीं।

गांधी जी दक्षिण अफ्रीका में सत्याग्रह कर रहे थे। वे पश्चिमी सभ्यता से परिचित थे। प्रत्येक विचारधारा से उनका परिचय था। उन्होंने लिखा है, लन्दन में रहने वाले हर एक नामी अराजकतावादी हिन्दुस्तानी के संपर्क में मैं आया था। उनकी शूरवीरता का असर मेरे मन पर पड़ा था, लेकिन मुझे लगा कि उनके जोश ने उलटी राह पकड़ ली है। मुझे लगा कि हिंसा हिन्दुस्तान के दुखों का इलाज नहीं है और उसकी संस्कृति को देखते हुए उसे आत्मरक्षा के लिए कोई अलग और ऊँचे प्रकार का शस्त्र काम में लाना चाहिए। गांधी जी हिंसा से बड़ा शस्त्र खोज चुके थे। उन्होंने स्पष्ट किया है 1909 में लंदन से दक्षिण अफ्रीका लौटते हुए जहाज पर हिन्दुस्तानियों के हिंसावादी पंथ को और उसी विचारधारा वाले दक्षिण अफ्रीका के एक वर्ग को दिये गये जवाब के रूप में हिन्दस्वराज लिखी गयी थी। गांधी विचार उनके अपने निजी अनुभव, चिन्तन, और सोंच विचार की उपज हैं। वे कतिपय देशी-विदेशी विद्वानों की किताबों की प्रेरणा नहीं है।

रस्किन ने स्वयं ही ‘अन टू दिस लास्ट’ का विचार बाईबिल के ‘मैथ्यू’ से उठाया था। मेन ने ‘विलेज कम्युनिटीज’ में जर्मनी की प्राचीन ग्राम सभाओं मार्क की तुलना में भारतीय ग्राम सभाओं को ज्यादा अच्छा बताया है। ग्राम सभा और सत्याग्रह का विचार वेदों में है। गांधी बहुपठित थे। उन्होंने भारत की श्रेष्ठता सिध्द करने के लिए विलियम विल्सन हंटर की किताब ‘इण्डियन एम्पायर’ से तमाम उध्दरण दिये हैं। (गांधी वाड्.मय खण्ड 1 पृष्ठ 181-83) उन्होंने मैक्सम्यूलर के लेखन से भारतीय दर्शन की श्रेष्ठता सिध्द करने वाले अनेक अंश छांटे थे। (वही) उन्होंने हंटर और एच.एस. मेन की किताबों से पाणिनी के व्याकरण और भारतीय भाषा विज्ञान की प्राचीनता वाले हिस्से उध्दृत किए (वही, 184) गांधी जी ने दर्शन, योग वेदान्त को निजी जीवन जिया। वे आदर्श को व्यवहार में उतारने वाले विश्व इतिहास के प्रथम और संभवतः आखिरी जननेता हैं। वे भारतीय तत्वदर्शन, संस्कृति और अध्यात्म को समझ चुके थे, जी रहे थे। गांधी का मन अंतरंग परिशुध्द भारतीय था। सन् 1902 में वे काशी विश्वनाथ मंदिर में दर्शन करने भी आये थे। कलकत्ता में कांग्रेस का अधिवेशन (1901) में था। यहां गांधी जी की गोखले से अंतरंगता बढ़ी। वे यहां से रंगून गए। फरवरी 1902 में फिर कलकत्ता लौटे। गोखले ने उन्हें भारत का ठीक अध्ययन करने का परामर्श दिया। उन्होंने भारत भ्रमण का निश्चय किया। वे 21 फरवरी को कलकत्ता से चले, काशी, आगरा, जयपुर और पालमपुर में रूके। आधुनिक राजनीतिज्ञों को भी उनके मार्ग पर चलना चाहिए।

काशी भारत की सांस्कृतिक राजधानी है। गांधी जी काशी आए। उन्होंने काशी का वर्णन किया सुबह मैं काशी उतरा। कई ब्राह्मणों ने मुझे चारों ओर से घेर लिया। उनमें से जो मुझे साफ-सुथरा दिखाई दिया, उसके घर जाना मैंने पसन्द किया। मैं यथविधि गंगा-स्नान करना चाहता था और तब तक निराहार रहना था। पण्डे ने सारी तैयारी कर दी। मैंने पहले से कह रखा था कि सवा रूपये से अधिक दक्षिणा मैं नहीं दे सकूंगा, इसलिए उसी योग्य तैयारी करना। पण्डे ने बिना किसी झगड़े के मेरी बात मान ली। कहा- ‘हम तो क्या गरीब और क्या अमीर, सबसे एक ही-सी पूजा करवाते हैं। यजमान अपनी इच्छा और श्रध्दा के अनुसार जो दक्षिणा दे दे वही सही।’ मुझे ऐसा नहीं मालूम कि पण्डे ने पूजा में कोई कोर-कसर रखी हो। (उत्तर प्रदेश में गांधी जी, पृष्ठ 18, सूचना विभाग उ.प्र.) भारत की तीर्थ सान्त्वनादायी रहे हैं। तीर्थ दर्शन को अंधआस्था कहकर खारिज नहीं किया जा सकता। गांधी जी काशी विश्वनाथ में दुःखी हुए, लिखा है, सन् 1891 ई. में जब मैं बम्बई में वकालत करता था, एक दिन प्रार्थना समाज मन्दिर में काशी-यात्रा पर एक व्याख्यान सुना था। पर प्रत्यक्ष देखने पर जो निराशा हुई वह तो धारणा से अधिक थी। संकरी-फिसलनी गली से होकर जाना पड़ता था। शान्ति का कहीं नाम नहीं। मक्खियां चारों ओर भिनभिना रहती थीं। (वही) लिखते हैं मन्दिर पर पहुंचते ही मैंने देखा कि दरवाजे के सामने सड़े हुए फूल पड़े थे और उनसे दुर्गंध निकल रही थी। उन्होंने पूरी व्यवस्था के लिए संचालकों को दोषी ठहराया। (वही, पृष्ठ 19)

गांधी जी अस्तिक थे। लेकिन जिज्ञासु भी थे, लिखा है यहां मैंने ईश्वर की खोज की। वह होगा, पर मुझे नहीं मिला। ज्ञानवापी के पास भी गंदगी थी। (वही, पृष्ठ 19) बेशक गांधी जी को यहां ईश्वर नहीं मिला तो भी गांधी जी बार-बार विश्वनाथ मंदिर गए, क्यों गए? वे और कई यात्राओं का उल्लेख करते हैं, इसके बाद भी दो एक बार काशी विश्वनाथ गया हूं पर वह तो तब जब मैं महात्मा बन चुका था इसलिए 1902 के अनुभव कैसे मिलते? खुद मेरे ही दर्शन करने वाले मुझे क्या दर्शन करने देते? (वही, पृष्ठ 19) गांधी जी लोकप्रिय होने और तमाम गंदगी के बावजूद काशी प्रेमी बने रहे। दर्शन की अभिलाषा का केन्द्र गांधी के भीतर था। दर्शन देखना नहीं होता। दर्शन के अपने मजे हैं। वे 1936 में भारत माता के मंदिर का उद्धाटन करने काशी आए। उद्धाटन अवसर पर वैदिक मन्त्र पढ़े गये, गांधी जी अभिभूत हुए। उन्होंने कहा, सवेरे मैं पूर्णाहुति देने आया तो उस समय वेद मन्त्र सुनते सुनते मुझे 20 वर्ष से हम जो श्लोक अपनी प्रभात की प्रार्थना में बोलते हैं उसका स्मरण आया, समुद्रवसने देवि पर्वतस्तन मण्डले/विष्णु पत्नी नमस्तुभ्यं पादस्पर्श क्षमस्वमे। यह विष्णु पत्नी ही हमारा पोषण करती है रक्षण करती है। (वही पृष्ठ 109)

गांधी 1896 में प्रयाग भी घूमे थे। वे कलकत्ते से राजकोट जा रहे थे। टे्रन इलाहाबाद रूकी। टे्रन यहां 45 मिनट तक रूकती थी। गांधी जी ने लिखा है, मैंने सोचा कि इतने समय में जरा शहर देख आऊँ। मुझे औषधि-विक्रेता के यहां से दवा भी लेनी थी। उसने दवा देने में बड़ी देर लगा दी। ज्यों ही मैं स्टेशन पहुंचा, गाड़ी चलती हुई दिखाई दी। ट्रेन दूसरे दिन थी। गांधी जी ने लिखा, यहां (प्रयाग) के ‘पायनियर’ पत्र की ख्याति मैंने सुनी थी। भारत की आकांक्षाओं का वह विरोधी है, यह मैं जानता था। मुझे याद पड़ता है कि उस समय मि. चेजनी उसके सम्पादक थे। इसलिए मैंने मि. चेजनी को, मुलाकात के लिए, पत्र लिखा। उन्होंने तुरन्त मिलने के लिए बुलाया। उन्होंने गौर से मेरी बातें सुनी। मुझे आश्वासन दिया कि आप जो कुछ लिखेंगे, मैं उस पर तुरन्त टिप्पणी करूंगा। परन्तु मैं आपको यह वचन नहीं दे सकता कि आपकी सब बातों को मैं स्वीकार कर सकूंगा। मैंने कहा-अपने पत्र में इसकी चर्चा करते रहें, इतना ही मेरे लिए काफी है। शुध्द न्याय के अतिरिक्त मैं और कुछ नहीं चाहता। (वही पृष्ठ 16)

वे गंगा, यमुना, सरस्वती के मिलन स्थल, ‘संगम’ पर गए, नहाए, घूमें। स्वाधीनता आन्दोलन के पहले ही वे भारत दर्शन का अनुष्ठान पूरा कर चुके थे। वे भारतीय राष्ट्रभाव की प्राचीनता से गहनतम रूप में जुड़ चुके थे। वे पश्चिम की भोगवादी सभ्यता के बीच ‘सड़ते मनुष्य’ की व्यथा से पीड़ित थे। वे भारतीय जीवन मूल्यों में मनुष्य की गरिमा महिमा से सुपरिचित थे। गांधी जी ने भारत के लिए ब्रिटिश संसदीय परम्परा की जगह परिशुध्द भारतीय संसदीय परिपाटी की कल्पना की थी। लेकिन भारत ने ब्रिटिश संसदीय परम्परा की नकल की। नतीजा सामने है। संसद में तू-तू, मैं-मैं हो रही है।

– हृदयनारायण दीक्षित

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