गांधी केवल बहस का मुद्दा न बने

भारतीय स्वतंत्रता इतिहास के पन्नो को अगर पलट कर देखा जाय तो महात्मा गाँधी के अलावा शायद ही कोई व्यक्तित्व मिलेगा जो गाँधी के बराबर में विश्व समुदाय को प्रभावित किया हो।

अफ्रीका की बात करें या अमेरिका की, गाँधी का प्रभाव सार्थक परिणाम के साथ देखने को मिलता है। चाहे मार्टिन लूथर किंग हों या नेल्सन मंडेला या बात स्वयं अमेरिकी राष्ट्रपति बराक हुसैन ओबामा की ही क्यों न हो, इन सबके संघर्षों में महात्मा का आदर्श और उनकी चिंतनशीलता नज़र आती है।

आज महात्मा गाँधी नहीं हैं, परन्तु आज भी गाँधी एक चर्चा का विषय है, आज भी गाँधी एक प्रश्न की तरह हैं जो शायद अनुप्तरित है। यह चिंतन का विषय है कि गाँधी क्या थे, और आज गाँधी को क्या कहा जाय? क्या गाँधी एक व्यक्ति विशेष हैं… या गाँधी एक चरित्र विशेष हैं या गाँधी शब्द विशेष हैं, जिसे हमें संजोकर रखना है……… या गाँधी का कोई अर्थ विशेष भी हैं?

अगर हम इन सवालों का जवाब ढूंढें तो शायद अनेक तथ्य सामने आएंगे……..गाँधी का आतंरिक चिंतन मेरी समझ से राष्ट्रवाद से ओतप्रोत था। अगर हम ये कहें तो शायद अतिश्योक्ति नहीं होगी कि गाँधी कट्टर राष्ट्रवादी थे।

गाँधी का मत था राष्ट्र की अखण्डता में सबसे ज्यादा बाधक जातिवाद, धर्मवाद एवं भाषा आदि हो सकते हैं। अतः उन्होंने जातिवाद, धर्मवाद एवं भाषा आदि में विभाजित होने का विरोध शायद इसिलिए किया क्योंकि वे राष्ट्रवाद के समर्थक थे और उन्हें राष्ट्रीय एकता में अगाध विश्वास था। गाँधी के लिए राष्ट्र इतना सर्वोपरि था कि कुछ विद्वान उन्हें अन्तर्राष्ट्रवाद विरोधी भी कह देते हैं। लेकिन गाँधी राष्ट्रवाद से समझौता करके किसी अंतर्राष्ट्रीय मंच को नहीं स्वीकार सकते थे। गाँधी के राष्ट्रवाद को भारतीय संविधान में शायद सम्प्रभुता का नाम दिया गया है। क्योंकि राष्ट्र की सम्प्रभुता और गाँधी का राष्ट्रवाद, दोनों में काफी समानताएँ हैं।

गाँधी हिंदी के समर्थक थे अंग्रेजी के विरोधी नहीं। गाँधी हिंदी को आम जनता की भाषा के रूप में, देश की सार्वभौमिक भाषा के रूप में, देखना चाहते थे। उनके मन में यह डर था कि कहीं आने वाले समय में हिंदी को हिंदुस्तान में ही अपने अस्तित्व के लिए संघर्ष न करना पड़े, और एक राष्ट्रवादी सोच के लिए यह डर स्वाभाविक था।

गाँधी की सत्यवादिता एवं अहिंसावाद ने उन्हें महात्मा बना दिया। गाँधी एक महात्मा होने के साथ-साथ राष्ट्रवादी सोच के प्रतीक बन गये।

आज चारों ओर अराजकता व्‍याप्‍त है। जातिवाद चरम पर हैं, धर्म के ठेके खुल रहे हैं, हिंदी को खुद ही अंग्रेजी सीखने की मजबूरी आ गई है, हिंसा ने सारी हदें पार कर दी हैं, लेकिन दुःख की आज भी गाँधी बहस का मुद्दा बन कर सीमित हो गया है।

गाँधी कोई व्यक्ति विशेष नहीं है, गाँधी कोई चरित्र विशेष नहीं है, गाँधी कोई भाव विशेष भी नहीं है। आज गाँधी एक व्यापक शब्द विशेष है जिसके हजारों अर्थ हैं। हिंदी के संघर्ष के का दूसरा नाम है गाँधी, प्रेम और सदभाव का दूसरा नाम है गाँधी। जातिवाद विरोधी शब्द बन गया है ‘गाँधी’। सम्प्रदायिक सदभाव का प्रतिमूर्ति है गाँधी।

अब गाँधी एक शब्दार्थ है जिसे समझे बिना समाज को नहीं बदला जा सकता, हिंदी की वकालत नहीं की जा सकती।

-शिवानन्द द्विवेदी ‘सहर’

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