गांधीवाद की परिकल्पना-9

 राकेश कुमार आर्य

महात्मा की अपेक्षाएं

महात्मा तो वह होता है जिसकी आत्मा संसार के महत्व को समझकर विषमताओं, प्रतिकूलताओं और आवेश के क्षणों में भी जनसाधारण के प्रति असमानता का व्यवहार न करते हुए समभाव का ही प्रदर्शन करती है, किंतु जिसका व्यवहार हठीला हो, दुराग्रही हो, सच को सच न कह सकता हो, इसलिए एक पक्ष को तुष्ट करता हो और एक पक्ष को रूष्ट करता हो, वह व्यक्ति महात्मा भी हो सकता है, इसमें संदेह है।

इससे स्पष्ट होता है कि गांधीजी धर्म की सच्चाई को नही समझ सके थे। धर्म क्या है? इसकी वास्तविक परिभाषा से वह वंचित रहे। धर्म के बाह्य स्वरूप मजहब को ही उन्होंने संसार की गति का वह चेतन तत्व स्वीकार कर लिया जो मानव के सार्वकालिक और सार्वत्रिक कल्याण का हेतु है। जबकि मजहब स्वयं में चेतन तक में होकर मानव की चेतना को कुंठित और संकीर्ण करने वाला एक अचेतन तत्व है, अर्थात धर्म से सर्वथा विपरीत है-मजहब।

‘धर्म के मर्म’ से गांधीजी का महात्मापन सर्वथा ही दूर रहा, इसीलिए उन्होंने सर्वधर्म-समभाव की बात कहकर उसे भारत पर अपने नैतिक कत्र्तव्य के रूप में प्रतिपादित कर थोपने का प्रयास किया। इसी आदर्श और नैतिक व्यवस्था को उनके उत्तराधिकारियों ने ज्यों का त्यों आगे बढ़ाया।

वेद, मानवीय मूल्य और गांधीजी

गांधीजी के मानवीय मूल्य उनके दोहरे मापदण्डों की भेंट चढ़ गये। देखिये वेद का कहना है-

”राजा तथा सेनापति का कत्र्तव्य है कि सर्वदा रक्षा करें। प्रजापीडक़ चाहे अपना संबंधी ही क्यों न हो, वह सर्वथा दण्डनीय है।” वेद के लिए यह आवश्यक है कि राजा प्रजापीडक़ का समुचित दमन करे। जबकि गांधीजी का राष्ट्रधर्म मानवीय मूल्यों का नाटक करते हुए प्रजापीडक़ के विरूद्घ भी मानवीय कानून बनाने का नाटक करता है। पता नहीं यह मानवीय कानून कैसा होता है? अथर्ववेद का अगला मंत्र पुन: कह रहा है देखिये-”जो हमारा अनिष्ट करता है उसका नाश करने में संकोच नहीं करना चाहिए। सदा सतर्क और सावधान रहना चाहिए। शत्रु-मित्र का विवेक, ज्ञान सबसे बड़ा कवच व आत्मरक्षा का साधन है।”

बहुधा मनुष्य मित्र-शत्रु की पहचान न होने की दशा में ही मारे जाते हैं। गांधीजी की अहिंसा गांधीवाद का मानवीय पक्ष है जो मानवीय मूल्यों को कुछ इसी प्रकार परिभाषित करती है कि दुष्ट के सामने आत्मसमर्पण कर दो। उसके अत्याचारों को प्रतीकारात्मक ढंग से नहीं-अपितु सहिष्णु होकर सहो। अथर्ववेद (2-12-3) का एक अन्य मंत्र भी कुछ ऐसा ही कह रहा है, देखिये-

”हे सोमपालक इंन्द्र! राजन!! कई ऐसे धूर्त होते हैं जो लोगों के मनों को दुर्बल करते रहते हैं, वास्तविक या काल्पनिक भयों की विभीषिका से लोगों के चित्तों को भयभीत कर देते हैं। जिससे लोग हतोत्साहित होकर साहसहीन हो जाते हैं। राष्ट्ररक्षा के लिए दुष्टों को कठोर दण्ड देना चाहिए।”

इस प्रकार वेद ने मानव के उत्थान और दानव के दमन की नीति अपनायी। उसने हरसंभव प्रयास किया कि समाज में मानवता के विकास के लिए दानवता का विनाश हो। जबकि गांधीजी दानवता को नंगा नाच करने के लिए खुला छोड़ देना चाहते हैं। उनकी सोच है कि दानवता को हम अपनी मानवता से ही सहन करें। यह बात व्यवहार्य नहीं है। क्योंकि यह धर्म के उस स्वरूप के सर्वथा विरूद्घ है जिसे ‘राष्ट्रधर्म’ कहा जाता है। ऐसी मानवता किस काम की जो मानवता के लिए ही आत्महत्या का कारण बन जाए। ऐसे आदर्श किस काम के जो राष्ट्र में आतंक और उपद्रव को प्रश्रय देने में सहायक हो जाएं और ऐसी सोच भी किस काम की है कि जिसके सहारे संसार में उपद्रवी और अत्याचारी लोगों को अपना विकास करने में सहयोग मिले।

गांधीजी और देश विभाजन

गांधीजी का गांधीवाद देश विभाजन रोकने में सर्वथा असफल रहा। वह शत्रु का हृदय परिवर्तन कर विजय प्राप्त करना चाहते थे। जबकि शत्रु अपनी चाल में पूर्णता के साथ सफल हुआ, परिणाम स्वरूप उनका गांधीजी की अहिंसा और उनका गांधीवाद दोनों ही उन्हीं के सामने दम तोड़ गये। इस प्रकार यदि यह कहा जाए कि-”देश विभाजन के पश्चात जिस गांधीवाद को हम रो रहे हैं वह तो गांधीवाद नहीं अपितु उसका जनाजा है” तो कोई अतिश्योक्ति नहीं होगी, देखिये-

गांधीजी की नैतिकता दानवता के समक्ष हार गयी।

गांधीजी की उदारता अनुदारता से हार गयी।

गांधीजी की नैतिकता अनैतिकता के समक्ष हार गयी।

गांधीजी की सहिष्णुता, असहिष्णुता से हार गयी।

गांधीजी के आदर्श दुष्टों के छल कपट और प्रपंचों के समक्ष हार गये।

ऐसी परिस्थितियों में हमें तभी यह निर्णय ले लेना चाहिए था कि इन गांधीवादी आदर्शों व दोहरे मानदण्डों को हम आगे नही ले चलेंगे। जिसका सच पता चल जाए  उसके झूठ को ढोते रहना ‘आत्महत्या’ के समान है। क्रमश:

(लेखक की पुस्तक ‘वर्तमान भारत में भयानक राजनीतिक षडय़ंत्र : दोषी कौन?’ से)

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राकेश कुमार आर्य
उगता भारत’ साप्ताहिक / दैनिक समाचारपत्र के संपादक; बी.ए. ,एलएल.बी. तक की शिक्षा, पेशे से अधिवक्ता। राकेश आर्य जी कई वर्षों से देश के विभिन्न पत्र पत्रिकाओं में स्वतंत्र लेखन कर रहे हैं। अब तक चालीस से अधिक पुस्तकों का लेखन कर चुके हैं। वर्तमान में ' 'राष्ट्रीय प्रेस महासंघ ' के राष्ट्रीय अध्यक्ष हैं । उत्कृष्ट लेखन के लिए राजस्थान के राज्यपाल श्री कल्याण सिंह जी सहित कई संस्थाओं द्वारा सम्मानित किए जा चुके हैं । सामाजिक रूप से सक्रिय राकेश जी अखिल भारत हिन्दू महासभा के वरिष्ठ राष्ट्रीय उपाध्यक्ष और अखिल भारतीय मानवाधिकार निगरानी समिति के राष्ट्रीय सलाहकार भी हैं। ग्रेटर नोएडा , जनपद गौतमबुध नगर दादरी, उ.प्र. के निवासी हैं।

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