मोक्ष की तलाश में भटकती गंगा

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ganga

सोयेंगे तेरी गोद में एक दिन मर के हम

दम भी तोड़ेंगे तेरा दम भर के हम,

हमने तो नमाजें भी पढ़ीं हैं अक्सर

गंगा तेरी पानी में वजू करके।

 

नजीर बनारसी के ये अशआर गंगा की अजमत बयान करने के लिए काफी है। इतिहास गवाह है कि विश्व की महान मानव सभ्यताओं का विकास नदीयों के किनारे हुआ है। हर काल में मानव सभ्यता के विकास में नदीयों से गहरा रिश्ता रहा है। बात चाहे सिन्धु नदी घाटी सभ्यता की हो या अमेजन की अथवा नील नदी की या फिर मोक्षदायीनी गंगा की। हर स्थान व काल में मानव का नदीयों से माँ-पुत्र का रिश्ता रहा है। मानव सभ्यताओं के विकास में नदीयों की अहम भूमिका रही है। अफसोसनाक बात आज यह है कि आधुनिकीकरण के अन्धि दौड़ में आकर मानव ने माँ-पुत्र के रिश्ते को कलंकित किया है। अपने उपभोग के उपरान्त कचरे व विषाक्त पदार्थों को नदियों के हवाले कर उसे दूषित करने का काम किया है।

शिव की जटाओं से निकली मोक्षदायीनी गंगा जहाँ पूरे मानव सभ्यता को पापमुक्त करने का काम किया है वहीं पाप के स्याह रंग में डूबा मानव अपने पापों समेत दूषित कचरों व कल-कारखानों के विषाक्त पदार्थों को इसमें समाहित कर अपने को तो कुछ हद तक पाप मुक्त कर लिया है मगर माँ गंगा के अस्तित्व पर प्रश्न चिन्ह सा लगा दिया है ? बात अगर पूर्वांचल की करें तो वाराणसी को छोड़ कर कहीं भी दूषित जल शोधन संयंत्र (ट्रीटमेंट प्लान्ट) तकरीबन नहीं है जबकि पूरे पूर्वांचल का दूषित जल, कचरा व विषाक्त पदार्थ गंगा के जिम्मे है। गंगा को दूषित करने के लिए तमाम साधन उपलब्ध हैं जैसे कि कल-कारखानों के विषाक्त पदार्थ व दूषित जल, गंगा स्नान के दौरान दूर-दराज से ढ़ोकर लाया गया कचरा समेत स्नान के दौरान साबुन व डिटेर्जंट का प्रयोग, मृत जानवरों को गंगा के हवाले करने व शवों को गंगा में मोक्ष की प्राप्ति के लिए प्रवाहित करने की संस्कृति ने भी गंगा को कुछ हद तक नुक्सान पहुँचाया है। कचरों व विषाक्त पदार्थों को ढ़ोते-ढ़ोते गंगा जल प्रदूषित होकर ठीक उसी प्रकार नीली पड़ गयी है जैसे विषपान के बाद मानव शरीर हो जाता है। भारत की जीवन रेखा मानी जाने वाली गंगा की स्थित इस हद तक बदतर हो गयी है इसका अन्दाज इसी बात से लगाया जा सकता है कि प्रति वर्ष गंगा का जल स्तर 2.5 से 3 मीटर गिर रहा है।

पूर्वांचल की स्थित पर निगाह डालें तो एक आंकलन के मुताबिक केवल वाराणसी महानगर से 300 एमएलडी दूषित जल गंगा में प्रवाहित होता है, मीरजापुर से 100 टन कचरा युक्त जल, भदोहीं से 90 टन कचरा युक्त जल, चन्दौली से 110 टन कचरा युक्त जल, गाजीपुर से 5 एमएलडी दूषित जल व बलिया से 120 टन कचरा युक्त दूषित जल प्रति दिन गंगा में प्रवाहित किया जाता है। जबकि पूरे पूर्वांचतत्रल में केवल वाराणसी में ही दूषित जल शोधन संयंत्र (ट्रीटमेंट प्लान्ट) है, जिसमें केवल 100 एमएलडी दूषित जल ही शोधित हो पाता है ऐसी स्थित में गंगा का क्या होगा इस का अंदाज स्वयं लगाया जा सकता है ? परिणाम अब यह है कि नदी में लगातार आता कचरा व रेत खनन न होने से इसमे मार्च-अप्रैल के महीने में ही रेत के टीले नजर आने लगते हैं। नदी के दोनों किनारों पर कूड़ों का अम्बार अनायास ही देखने को मिलता है। जल का रंग चमकदार दूधिया से जहरीला भूरा सा हो गया है। दूर से आने वाले दर्शनार्थी यहाँ इस उम्मीदसे आते है कि उनको पापों से मुक्ति मिलेगी मगर गंगा का ये हाल देख आश्चर्यचकित हो जाते हैं। जानकारो की मानें तो दिन-प्रतिदिन गंगा नदी के सिमटने से धारा प्रवाह मध्य में हो गया है जिससे कि चलते नदी में फेंके जाने वाली गन्दगी बहने के बजाए किनारे एकत्र होकर नदी को प्रदूषित करते हैं।

वाराणसी को मोक्ष की नगरी काशी के रूप में जाना जाता है। जहाँ विश्व के हर कोने से दर्शनार्थी पापमुक्ति की चाह लिए आते हैं साथ में ढ़ेर सारे कूड़ा-कचरा ले आते हंै जिससे कि घाटों पर कचरों का अम्बार सा लग जाता है। स्वयं पापमुक्त तो होते हैं साथ में कचरों को भी मुक्त कर गंगा को कचरायुक्त कर देते हैं। शहरो में स्थापित कल-कारखानों से प्रतिदिन मुक्त होने वाले विषाक्त पदार्थ व कचरायुक्त जल गंगा को दूषित कर देती हैं। चन्दौली में स्थिति यह है कि जनपद के उत्तरी छोर पर स्थित ब्लाकों चहनियाँ व धानापुर के सैकड़ों तटवर्ती गाँवों के लोगों द्वारा दूषित जल गंगा में प्रवाहित किया जाता है। गंगा स्नान के नाम पर साबुन के कास्टिक झाग व प्लास्टिकों के अम्बार घाटों के पास लगा देते हैं। कुछ स्थानों पर तटवर्ती गाँवों के महिलाओं द्वारा बर्तनों के धोने का काम भी गंगा में किया जाता है। गाजीपुर में जल प्रवाह न्यून्तम है और ददरी घाट से 15 मीटर दूर तक गंगा प्रदूषित हो चुकी है। मीरजापुर में दर्जनों नालों द्वारा प्रतिदिन 100 टन कचरा युक्त दूषित जल गंगा में उडेला जाता है। बलिया में शहर का दूषित जल नालों द्वारा गंगा को दान दिया जाता है। इस प्रकार माँ गंगा पूरे पूर्वांचल समेत उत्त्र प्रदेष के अन्य जगहों का कचरा अपने गोद में समा कर भी अपना दर्द नहीं बयां करती हैं।

दूषित जल व विषाक्त पदार्थों को ढ़ोते-ढ़ोते आज आलम यह है कि पूर्वांचल के आधा दर्जन जनपदों को जीवन देने वाली गंगा में अब मछलियाँ भी बमुश्किल मिलती हैं। जिससे कि मल्लाहों के पेट पर वज्रपात सा हो गया है। गंगा के जल में खतरनाक जीवाणुओं की संख्या कब की सरकारी मानक को लांघ चूकी है। वो दिन अब लद चुके जब लोग बोतलों में गंगा जल को वर्षों तक घरों में रखते थें। अब तो सप्ताह भर में जल का रंग बदल जाता है। गंगा को साफ करने के लिए वैसे तो शासन द्वारा अनेकों योजनाएं चलायी गयी जिसमें गंगा एक्शन प्लान काफी चर्चित रही। सभी योजनाओं का मूल असफलता रहा। इसके पीछे क्या कारण है? समाजसेवी अशफाक खां का मानना है कि ‘‘गंगा को तभी प्रदूषण मुक्त किया जा सकता है जब समाज का हर व्यक्ति इसपर गहन चिंतन करे तथा इसका संकल्प ले कि पूजा-पाठ के नाम पर गंगा को प्रदूषित नहीं करेगा। कल-कारखानों से मुक्त होने वाले विषाक्त पदार्थ व दूषित जल को ट्रीटमेंट प्लान्टों द्वारा वहीं पर शोधित कर दिया जाए तथा गंगा के सफाई हेतु जो भी कार्यक्रम संचालित किया जा रहा है उसमें जनता की प्रत्यक्ष सहभागिता हो और इसके प्रति व्यापक जागरूकता अभियान चलाया जाए। ’’

भारत की जीवन रेखा माने जाने वाली मोक्षदायीनी गंगा शायद आज कराह रहीं है मगर उनकी आवाज आज हमारे कानों तक नहीं पहुँच पा रही है। गंगा निर्मलीकरण के नाम पर तो चर्चा खूब हुई। प्रोजेक्ट भी बना मगर गंगा को निमर्ल करने में आज भी नाकाफी साबित हो रहा है। वर्तमान केन्द्र सरकार ने जिसत तरह से गंगा के निर्मलीकरण को लेकर संजीदगी दिखाया है, उससे एक उम्मीद जगी है कि गंगा हमारे आस्था के प्रतीक के रूप में हम सबको पापमुक्त करती रहेंगी। वरना मौजूदा हालात में जिस तरह गंगा को कचरों के अम्बार से पाटा जा रहा है अनकरीब वो दिन भी आ जाएगा जब आमजन समेत शासन व सत्ता के लोगों को शायद इसका भनक भी न लगे जब माँ गंगा को हम नाले के रूप में सिमटते पायेंगे!

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