गंगा कराह रही है, शांत बैठने का समय नहीं: अशोक सिंहल

विगत 15 सितंबर 2009, को नई दिल्ली में आयोजित प्रेस वार्ता में विश्व हिन्दू परिषद के अंतर्राष्ट्रीय अध्यक्ष श्री अशोक सिंहल गंगा रक्षा और पर्यावरण को लेकर पत्रकारों से रूबरू हुए। इस अवसर पर उन्होंने गंगा और पर्यावरण रक्षा को लेकर अत्यंत सारगर्भित विचार प्रस्तुत किए। युवा पत्रकार राकेश उपाध्याय ने उनके विचारों को आलेख रूप में प्रस्तुत करने का प्रयास किया है। प्रवक्ता के पाठकों के लिए हम उस आलेख को यहां प्रस्तुत कर रहे हैं-संपादक

INDIA/MUMBAIगंगा रक्षा, गौ रक्षा एवं श्रीराम जन्म भूमि स्थान पर भव्य मंदिर का निर्माण समेत अनेक विषय ऐसे हैं जो हमारे संत समाज को लगातार मथ रहे हैं। पिछले वर्ष हरिद्वार में संतों की बैठक हुई थी जिसमें गंगा मां की दुर्दशा पर संत अत्यंत भाव-विह्वल और आक्रोशित थे। स्वामी रामदेव के आश्रम में आयोजित इस बैठक में उत्तराखण्ड के तत्कालीन मुख्यमंत्री श्री भुवन चंद्र खण्डूडी स्वयं उपस्थित थे। उन्होंने संतों के विचार सुने और परिस्थिति को समग्रता में जाना समझा तो उत्तराखण्ड सरकार द्वारा गंगा नदी पर बनाई जा रही परियोजनाओं को रोक दिया।

उन्होंने संतों के समक्ष तब घोषणा की थी कि राज्य सरकार द्वारा भैरों घाटी एवं मनेरी भाली में जो विद्युत परियोजनाएं निर्मित की जा रही हैं, उन्हें रोक दिया जाएगा। इसी बैठक में संतों ने समवेत स्वर में गंगा रक्षा मंच के गठन की घोषणा भी की।

पिछले दिनों मैं उत्तराखण्ड के नए मुख्यमंत्री श्री रमेश पोखरियाल ‘निशंक’ से इस संदर्भ में मिला और उन्हें पूर्व मुख्यमंत्री के निर्णय की जानकारी दी तो उन्होंने उस निर्णय को आगे भी जारी रखने की बात कही।

स्पष्ट है कि गंगा के साथ उत्तराखण्ड राज्य छेड़खानी नहीं कर रहा है। लेकिन एनटीपीसी अभी भी लोहारी नागपाला परियोजना पर काम जारी रखे है। प्रत्यक्षदर्शी जो लोहारी नागपाला देखकर आ रहे हैं, उनका कहना है कि गंगा की अकल्पनीय दुर्दशा की जा रही है। 16 किलोमीटर की सुरंग में गंगा को प्रवाहित करने के लिए बड़े-बड़े पहाड़ और जंगल तबाह किए जा रहे हैं। जिन पहाड़ों की तलहटी से गंगा गुजरती हैं, उन पहाड़ों को विस्फोट करके तोड़ा जा रहा है। सारा मलबा गंगा के प्रवाह में गिर रहा है और इसके कारण जो दृष्य बना है वह बहुत ही मार्मिक और वेदनादायक है। इस कष्टदायक स्थिति से मर्माहत संतों ने आंदोलन किया, साध्वी समर्पिता तो बकायदा अनशन पर बैठ गईं, उन्होंने उपवास शुरू कर दिया और ये उपवास स्वत: स्फूर्त था। हम उनसे मिले और हमने उनसे निवेदन किया कि गंगा रक्षा का विषय संपूर्ण समाज का विषय है। हमारे सभी अखाड़े, आचार्य महामंडलेश्वर, संत समाज आदि सभी इस परिस्थिति से चिंतित और दुखी हैं। हम सब मिलकर इस प्रश्न पर विचार करेंगे और शीघ्र ही निर्णायक कार्रवाई शुरू की जाएगी। पिछले 25 अगस्त को सभी अखाड़े, संत समाज के लोग, षड्दर्शन समाज जो अखाड़ों से ही जुड़ा है, के साथ बैठक हुई और संपूर्ण परिस्थिति का विस्तार से चिंतन हुआ।

पिछले साल भी कुछ ऐसी ही परिस्थिति बनी थी और तब गंगा रक्षा मंच का अस्तित्व सामने आया। देश के प्रख्यात पर्यावरणविद् प्रो0 गुरूदास अग्रवाल तब उत्तरकाशी में और बाद में दिल्ली में आमरण अनशन पर बैठे थे। उन्होंने गंगा के नैसर्गिक प्रवाह मार्ग पर चल रहे विध्वंस के विरूध्द आवाज उठायी और गोमुख से लेकर उत्तरकाशी तक गंगा के प्रवाह मार्ग को पूरी तरह से प्राकृतिक और अक्षुण्ण बनाए रखने की मांग को लेकर आमरण अनशन करने का ऐलान किया। उन्होंने कहा कि गंगोत्री से लेकर उत्तरकाशी तक गंगा के प्रवाह पर कोई भी परियोजना नहीं बननी चाहिए, गंगा को नष्ट नहीं करना चाहिए। उन्‍होंने कहा कि सुरंग में गंगा के प्रवाह को डालने से प्रवाह का संपर्क प्राणवायु से कट जाएगा और गंगा का जल एक अमृत से मृत जल बन जाएगा। उनके अनशन का परिणाम भी आया। केन्द्र सरकार के साथ उनका और संत समाज के प्रतिनिधियों का एक समझौता हुआ। केन्द्र सरकार ने आश्वस्त किया कि केन्द्र सरकार गंगा रक्षा के सभी उपाय करेगी। इस कार्य के लिए गंगा नदी बेसिन प्राधिकरण के गठन की घोषणा भी प्रधानमंत्री द्वारा की गई है। केन्द्र सरकार ने परियोजनाओं के संदर्भ में एक विशेषज्ञ समिति के गठन का भी ऐलान किया। अब इस घोषणा को भी एक साल बीत चुका है। न तो प्राधिकरण ही गठित हुआ और न विशेषज्ञ समिति ही बनी। अभी मेरी जानकारी में आया है कि पांच दिन पूर्व कोई घोषणा केन्द्र सरकार द्वारा की गई है।

हमारे संतों ने पिछले वर्ष ही सरकार को स्पष्ट कर दिया था कि जब भी सरकार कोई प्राधिकरण अथवा कोई विशेशज्ञ समिति गठित करे तो इसमें संत समाज, अखाड़ों के प्रतिनिधियों को स्थान अवश्य दिया जाए। केन्द्र सरकार ने जिस गंगा नदी बेसिन प्राधिकरण की बात कही है उसका क्षेत्र तो काफी विस्तृत है। गंगा बेसिन का तात्पर्य है कि गंगा और उसमें मिलने वाली सभी नदियों चाहे वह यमुना हो, सरयू हो या गोमती हो सभी सहायक नदियां गंगा बेसिन से जुड़ती हैं। सहज ही गंगा बेसिन प्राधिकरण पर गंगा समेत सभी सहायक नदियों को प्रदूषण मुक्त रखने, इनकी निर्मलता और अविरलता बनाए रखने की जिम्मेदारी आ जाती है। इस कार्य में संतों की बहुत बड़ी भूमिका है। संतों को इस प्राधिकरण और विशेषज्ञ समिति के साथ जोड़कर रखना गंगा रक्षा अभियान के लिए अति आवष्यक है।

आज गंगा के प्रवाह की क्या हालत हो गई है? गंगा मां को देखता हूं तो मन भर आता है। आखिर किस विकास की ओर हम बढ़ रहे हैं? कहां जा रहे हैं? वह गंगा जिसकी निर्मलता, जिसके जल तरंगों की महिमा और जिसके अमृतत्व का हमारे वेदों, पौराणिक ग्रंथों, रामायण, महाभारत आदि सभी आध्यात्मिक ग्रंथों, पंथ-संप्रदायों ने बखान किया है, उसके जल की हमने क्या हालत कर डाली है।

गंगा संसार की एक मात्र ऐसी नदी है जिसके जल में आत्मशुध्दि का विशेष गुण है। अनेक वैज्ञानिक प्रयोगों से ये बात प्रमाणित हो चुकी है। इसका जल समस्त अशुध्दियों को स्वयं ही समाप्त कर देने में सक्षम है। गंगा जैविकीय-मानवीय प्रदूषक तत्वों को स्वयं ही खा जाती है। संभवत: इसी कारण हजारों वर्शों से भारतीय परंपरा गंगा को आत्मोध्दारक, पाप नाशिनी, मुक्ति-दायिनी के रूप में देखता और पूजता आया है। हमारी परंपरा ने गंगा में मां के रूप का, जगतजननी-देवी का साक्षात्कार किया है। इसके विपरीत हमारी आज की संतति जिस गंगा का साक्षात्कार कर रही है, उसका जल तो आचमन योग्य भी रखना हमने गंवारा नहीं समझा है।

हमारे सारे बड़े तीर्थ, आध्यात्मिक साधना के केन्द्र गंगा के किनारे विकसित हुए, प्रयाग और हरिद्वार में विश्‍व का सुप्रसिध्द कुंभ मेला आज भी गंगा की महिमा का गुणगान करता है। ये वह धरोहर है जिससे संपूर्ण विश्व में हमारी संस्कृति की पहचान बनी है। करोड़ों लोग कुंभ मेलों में गंगा की ओर खींचे चले आते हैं, और तो और देश के सुदूरवर्ती इलाकों में भी लोग अपनी-अपनी नदियों को गंगा कहकर ही उसमें स्नान करते हैं, प्रयाग के पिछले कुंभ मेले में सात करोड़ से अधिक लोग गंगा तट पर खिंचे चले आए।

मुझे दो दशक पूर्व की गंगा यात्रा का स्मरण है। गंगा जल के दर्शनार्थ लाखों लोग उस यात्रा में शामिल हुए। दुनिया की बड़ी से बड़ी राजशक्ति भी यदि किसी यात्रा का आयोजन करे तो कभी इतने लोग नहीं जुट सकते जितने की सहज ही गंगा के दर्शन के लिए जुट जाते हैं। वह दृश्य देखकर मैं आज भी रोमांचित हो उठता हूं कि भारत में उत्तर से लेकर धुर दक्षिण तक, गिरि-पर्वतों से लेकर घने वन्य क्षेत्रों में भी गंगा के प्रति अगाध प्रेम और श्रध्दा का भाव जन मानस में आज के समय में भी कितने गहरे तक विराजता है। लाखों लोग उस यात्रा में सहज ही शामिल हुए। मैं वनवासी क्षेत्रों में लोगों से पूछता था कि आप को इस यात्रा में आने की प्रेरणा कहां से मिली? लोगों का विलक्षण उत्तर होता था कि मां दरवाजे पर आती है तो हम घर में कैसे रह सकते हैं? मां ने स्वप्न में दर्शन देकर हमें निमंत्रण भेजा है और हम मां के दर्शनों के लिए आए हैं।

गंगा हमारी धरोहर है, हमारी थाती है। इसकी रक्षा का प्रश्न देश की रक्षा, धर्म, समाज, पर्यावरण और सृष्टि की रक्षा से जुड़ा प्रश्न है। इस कार्य में संपूर्ण समाज की जिम्मेदारी बनती है कि वह गंगा रक्षा के लिए आगे बढ़े। कुछ लोग कहते हैं कि संत परियोजनाओं का विरोध कर विकास का कार्य प्रभावित कर रहे हैं। हमारा ऐसे लोगों से कहना है कि धरती पर बिगड़ रहे पर्यावरण असंतुलन के खतरे को पहचानिए। दुनिया भर में बड़े-बड़े बांधों और बड़ी जल-विद्युत परियोजनाओं के विकल्प पर काम तेजी से हो रहा है। बड़ी-बड़ी परियोजनाओं की जगह छोटी परियोजनाएं जिन्हें माइक्रो प्रोजेक्ट कहते हैं, उनसे बिजली भी ज्यादा मिल रही है और लागत भी कम आती है, पर्यावरण भी अप्रभावित रहता है तथा नदी का जल प्रवाह भी अविरल और निर्मल बना रहता है। अपने देश में सैकड़ों प्रवाहमान नदियां हैं, उन पर हजारों माइक्रो प्रोजेक्ट बनाकर प्रत्येक प्रोजेक्ट से 2 मेगावाट से लेकर 25 मेगावाट तक बिजली पैदा की जा सकती है। इसके लिए प्रवाह को रोकने की जरूरत भी नहीं पड़ती। प्रवाह जस का तस बना रहता है।

लेकिन हमारे राजनेताओं और प्रशासनिक अधिकारियों को इन छोटी परियोजनाओं में कोई रस नहीं आता। चीन, नेपाल, भूटान सहित दुनिया के अनेक देशों में छोटी परियोजनाएं सफलतापूर्वक विद्युत उत्पादन कर रही हैं, लेकिन हमारे सत्ता प्रतिष्ठान की दृष्टि तो इन छोटी परियोजनाओं पर जाती ही नहीं। उन्हें तो चार-चार हजार, दस-दस हजार करोड़ की परियोजनाएं चाहिए। अब इन बड़ी परियोजनाओं में से किसकी जेब में कितना धन जाता है, सबका भगवान ही मालिक है। इसी के साथ इन बड़ी परियोजनाओं के कारण किसानों का, स्थानीय निवासियों का, जंगल का, कृषि भूमि का, पर्यावरण और जानवरों का, जैव-विविधता का कितना नुकसान होता है, इस बारे में दुष्परिणामों को हम सब देख और भुगत रहे हैं। आज देश इनके दुष्परिणामों से अनजान नहीं रह गया है। लेकिन फिर भी सत्ता प्रतिष्ठान अपनी नीति बदलने को तैयार नहीं है। मेरा स्पष्ट कहना है कि नदियों की रक्षा के लिए नीति और नीयत समय रहते दुरूस्त कर ली जानी चाहिए।

मैंने पिछले 30 सालों में कितने ही मंत्रियों से सुना है कि लघु विद्युत परियोजनाएं ही हमारे देश के लिए उपयुक्त हैं। लेकिन जब व्यवहार देखता हूं तो शायद ही किसी सरकार ने इस नीति पर अमल किया हो? पिछले पचास वर्षों में विद्युत उत्पादन के लिए देश में कई वैकल्पिक प्रयास शुरू करने की सरकारी घोषणाएं हुईं। इनमें पवन ऊर्जा, सौर ऊर्जा, तापीय ऊर्जा (थर्मल पॉवर), आणविक ऊर्जा समेत अनेक कार्यक्रम शुरू किये गये। लेकिन सर्वाधिक ध्यान सिर्फ विशालकाय बांधों और जल-विद्युत परियोजनाओं पर ही केन्द्रित किया गया। जबकि इसकी तुलना में हम लघु परियोजनाओं और अन्य माध्यमों से कम लागत पर अधिक बिजली बना सकते हैं। आज संपूर्ण विश्व विशालकाय जल विद्युत परियोजनाओं की पुनर्समीक्षा कर रहा है। इसी में परमाणु ऊर्जा संयत्रों को बहुत किफायती और पर्यावरण के अनुकूल पाया गया है। परमाणु ऊर्जा के संदर्भ में विचार करें तो हमारे देश में दक्षिण के समुद्री तट पर थोरियम बड़ी मात्रा में बिखरा पड़ा है। रामसेतु की अभेद्य दीवार ने इस थोरियम को समुद्र में न बहने देने में बड़ी भूमिका निभाई है। थोरियम आधारित परमाणु संयंत्र देश में बड़ी मात्रा में स्थापित किए जा सकते हैं। इसके लिए विदेशों पर हमारी निर्भरता भी नहीं रहेगी। देश के अनेक परमाणु विशेषज्ञ थोरियम के महत्व को जानते व समझते हैं। इस दिशा में काम भी चल रहा है। लेकिन गति धीमी है। हमारी सत्ता प्रतिष्ठान को ऊर्जा जरूरतों की आपूर्ति के लिए इस तत्काल पर ध्यान देना चाहिए। इसके द्वारा हम भारत के प्रत्येक गांव को जगमग कर सकते हैं।

लेकिन हमारी सरकारें कुछ और काम करने में व्यस्त हैं। कुछ वर्ष पूर्व नदी जोडो परियोजना पर काम शुरू कर दिया गया। जबकि देश के बड़े-बड़े नदी विशेषज्ञ नदियों को परस्पर जोड़ने को पर्यावरण के लिए अत्यंत विनाशकारी बता रहे हैं। लेकिन इसके विपरीत सत्ता प्रतिष्ठान अपनी चाल चलता रहा है। क्या स्वार्थ है, नदियों को जोडने में? आज तो नदियों में अपना पानी ही नहीं रह गया है। नदियां सूख रही हैं, हिमनद अर्थात ग्लेशियर समाप्त हो रहे हैं। आने वाले समय में तो देश और दुनिया में पानी की समस्या ही विकराल हो जाएगी। फिर ये नदी जोड़ो परियोजना क्यों? बाढ़ आती है तो बाढ़ के पानी के प्रबंधन की बात करिए, ये समझ में आता है। इसके लिए बड़ी संख्या में तालाब, पोखरे और कुएं खोदे जाएं, छोटी-छोटी नदियों के पेट और पाट को गहरा व चौड़ा किया जाए, नदियों के पाट पर बसी जनसंख्या को व्यवस्थित रूप में सुरक्षित स्थानों पर बसाया जाए, तो इससे बाढ़ के जल का समुचित प्रबंधन हम कर सकते हैं। लेकिन लक्ष्य तो सत्ता प्रतिष्ठान का कुछ और रहता है। सरकारों को लाखों करोड़ की परियोजना में आनंद आने लगा है। कारण सिर्फ इतना कि कैसे जनता के धन पर अधिक से अधिक हाथ साफ किया जाए।

नदियों की साफ-सफाई के सरकारी अभियानों, प्रदूषण मुक्ति के प्रयासों को भी हमने देखा है। गंगा प्रदूषण अभियान का हश्र भी हमने देखा है। सब योजनाएं भ्रष्टाचार की भेंट चढ़ गईं। गंगा रक्षा के लिए जो पैसा आवंटित हुआ आखिर वह कहां बह गया? गंगा तो प्रदूषण से मुक्त नहीं हुई लेकिन प्रदूषण मुक्ति अभियान की गंगा में जाने कितने तर गये? फिर प्रदूषण मुक्ति अभियान शुरू करने की बात कही जा रही है, फिर से गंगा के नाम पर पैसा बंटेगा, और मैं जानता हूं कि फिर से सरकारी तंत्र और उसके आश्रित मगरमच्छ सब कुछ खा-पीकर स्वाहा कर जाएंगे। मेरा दावा है कि इस बार भी केन्द्र सरकार जिन लोगों के भरोसे गंगा रक्षा अभियान चलाने जा रही है, ये वही मगरमच्छ हैं जो पहले ही ‘गंगा’ में नहा कर तर चुके हैं। अपने को ये गंगा प्रेमी कहते हैं, लेकिन में ये मगरमच्छ हैं, केन्द्र सरकार जिस गंगा प्राधिकरण की बात करती है, विशेशज्ञ समिति की बात करती है, ये मगरमच्छ कुछ नहीं होने देंगे।

गंगा किसी राजनीति का विषय नहीं है। किसी के स्वार्थ साधन की पूर्ति अथवा किसी को उपकृत करने के लिए गंगा की रक्षा का दिखावटी कार्यक्रम नहीं किया जाना चाहिए। हमारे संत इन सब विषयों को लेकर बहुत उतावले हैं। और केवल गंगा रक्षा का ही प्रश्न नहीं है, गो रक्षा का सवाल है, अयोध्या में श्रीराम जन्मभूमि पर भव्य मंदिर के निर्माण का प्रश्‍न है। इनमें देरी अब बर्दाश्‍त के बाहर है।

पिछले साल गंगा रक्षा मंच बना, गंगा रक्षा आंदोलन रूप लेने लगा तो केन्द्र सरकार झुक गई। सिर पर चुनाव थे इसलिए आनन-फानन में गंगा को राष्ट्रीय नदी बनाने, गंगा नदी बेसिन प्राधिकरण और विशेषज्ञ समिति का शगूफा हमारे प्रधानमंत्री ने छोड़ दिया और चुनाव बीतते ही वही ढाक के तीन पात। समाज को, संतों को सरकार ने धोखा दिया। अब लगता है कि गंगा रक्षा के नाम पर की गई घोषणाएं सिर्फ चुनावी घोषणाएं थीं। गंगा को राष्ट्रीय नदी घोषित करने का क्या मतलब है? इसका संवैधानिक अस्तित्व क्या है? संविधान में धरोहरों के संरक्षण के उपबंध हैं, यदि किसी वस्तु, स्थान या आध्यात्मिक, सांस्कृतिक, पुरातात्विक महत्व के कारण किसी चीज को धरोहर घोषित किया जाए तो उसके संदर्भ में संरक्षण के स्पष्ट प्रावधान हैं, इसके लिए सरकार, शासकीय संस्थाओं और समाज के उत्तरदायित्व को संवैधानिक मान्यता मिली हुई है। संतों ने गंगा को राष्ट्रीय धरोहर या हेरिटेज घोषित करने की मांग की थी लेकिन केन्द्र सरकार ने इसे राष्ट्रीय नदी घोषित कर दिया। हमें सरकार के इस निर्णय पर भी आपत्ति नहीं है। लेकिन सरकार राष्ट्रीय नदी और इसके संरक्षण के संदर्भ में पहले प्रावधान तो स्पष्ट करे। क्या सरकार इस संदर्भ में संविधान संशोधन करने को तैयार है? और यदि नहीं तो राष्ट्रीय नदी बनाने की घोशणा की कीमत कागजी घोड़ा दौड़ाने से अधिक क्या है? संत कह रहे हैं कि गंगा के प्रवाह को अविरल करिए, गंगा की निर्मलता के लिए उसके प्रवाह का अविरल होना जरूरी है। आज तो गंगा के प्रवाह को कितने ही स्थानों पर पूरी तरह बांध करके रख दिया गया है और आगे बांधने का काम जोरों पर है। राष्ट्रीय नदी बनाने की घोषणा से क्या गंगा का प्रवाह अविरल हो जाएगा?

आगामी शरद पूर्णिमा तक का समय संतों ने सरकार को दिया है। तब तक गंगा के प्रवाह मार्ग पर निर्माणाधीन परियोजनाओं को यदि हमेशा के लिए नहीं रोका गया तो सरकार को संतों का, समाज का आक्रोश झेलने के लिए तैयार रहना चाहिए। इसके बाद किसी भी दिन संत अपनी-अपनी भक्त मंडली के साथ गंगा पर निर्माणाधीन परियोजनाओं की ओर कूच कर देंगे। एनटीपीसी द्वारा बनाई जा रही लोहारी नागपाला परियोजना की ओर सर्वप्रथम कूच किया जाएगा।

मेरा देश के सभी राजनीतिक दलों और उनके नेताओं से निवेदन है कि वे परस्पर की राजनीति से थोड़ा ऊपर उठकर देश और लोक कल्याण की सोचें। गंगा की रक्षा, गो रक्षा, श्रीराम जन्मभूमि मंदिर निर्माण ये प्रश्न ऐसे हैं जिनका समाधान शीघ्र जरूरी है। गंगा और गो का संबंध देश के पर्यावरण व अर्थ नीति से भी जुड़ता है। संसार जैविक कृषि की ओर उन्मुख हो रहा है तो इसके लिए भारतीय गो वंश की अच्छी नस्लों का पोषण और परिवर्धन होना ही चाहिए। भारत धर्म प्राण और कृषि प्रधान देश है। भारत में धर्म और कृषि अलग-अलग नहीं हैं, एक ही सिक्के के अन्योन्याश्रित पहलू हैं। भारत की संस्कृति ऋषि और कृषि की संस्कृति है। ये दोनों अपने अस्तित्व के लिए गंगा और गो पर निर्भर हैं। इनसे जुड़े बहुत सारे अन्य आयाम भी हैं। केवल भारत ही नहीं तो विश्व को महान विपत्तियों बचा सकने में गंगा रक्षा और गो रक्षा का अभियान सार्थक सिध्द होगा।

मेरा मानना है कि जिस तरह से भी हो सके गंगा और गौ की रक्षा होनी चाहिए। देश के राजनीतिक दलों को इस बारे में मिलकर शीघ्र समाधान खोजना चाहिए अन्यथा बहुत बड़ा विस्फोट होगा जिसकी कि कल्पना भी नहीं की जा सकती। तब समाज क्या क्या करेगा, ये आज नहीं बताया जा सकता। संत शक्ति और जनशक्ति के सामने समय आ गया है कि वह भारत की संसद और उससे जुड़े राजनीतिक दलों को उनके कर्तव्य का ठीक अहसास कराए।

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