नामो निशां भी जुल्म का जिसमें ना पायें हम,
ऐसा निज़ाम देश में लाकर दिखायें हम।
अब ऐसे आदमी को मसीहा बनाइये,
अहसासे दर्द वो करे गर चोट खायें हम।
ग़ल्ती करेंगे खायेंगे ठोकर बुरा नहीं,
संभलें अगर तो कुछ ना कुछ सीख जायेें हम।
जीना तो दूर रहना भी होगा मुहाल अब
पत्थर घरों में शीशे के जब लोग जायें हम।
खुद बाग़बां ही गुलचीं से हमसाज़ हो जहां,
सÕयाद से चमन को भला कैसे बचायें हम।
फ़िर्कों में सिमटे सिमटे से त्यौहार क्या करें,
एक ऐसा पर्व बनाइये जो सब मनायें हम।
मज़हब के नाम खून ख़राबे को छोड़कर,
हम में जो खो गया है वो इंसां जगायें हम।।
नोट-निज़ाम-व्यवस्था, मसीहा-नेता,अहसास ए दर्द-दुख की अनुभूति, मुहाल-मुश्किल, बाग़बां-माली, गुल्चीं-फूल तोड़ने वाला, सÕयाद-शिकारी।।