उठो और श्रेष्ठता के लिए युद्ध करो

Arjun ready to fightमहाभारत का युद्ध शुरू होने वाला था, दोनों तरफ सेनायें खड़ी थी। श्री कृष्ण भगवान ने अर्जुन के रथ को रणभूमि के मध्य में खड़ा किया और अर्जुन से युद्ध के लिए पांचजन्य का उद्घोष करने के लिए कहा। अर्जुन ने दूर तक नजर पसार कर देखा, दोनों तरफ उसके परिजन एवं प्रजाजन ही खड़े थे। उसके पांचजन्य के उद्घोष के साथ ही रणभूमि रक्त से नहाने लगती। चारों ओर अपनों को देखकर अर्जुन का आत्मविश्‍वास डगमगाने लगा। वह सोचने लगा, अपनों की बलि देकर राज्य प्राप्त करना कौन सी बहादुरी का कार्य है। वह असमंजस की स्थिति लिये गांडीव छोडकर बैठ गया। भगवान कृष्ण ने कहा, अर्जुन किस सोच में बैठ गये हो? अर्जुन ने कहा, आर्यश्रेष्ठ मेरे सामने मेरे अपने ही खड़े है, मैं उन पर कैसे जहर बुझे बाणों को चला सकता हूँ? यह मुझसे संभंव नही है। भगवान कृष्ण ने कहा, अर्जुन जिन्हें तुम अपने समझ रहे हो, वे तुम्हारे नहीं है। यदि तुम्हारे होते तो इस प्रकार का व्यवहार नहीं करते और तुम यहां खड़े नहीं होते। अर्जुन यह संसार एक माया है। यहां सब अपने कर्मों के अनुसार ही जन्म लेते है। और कर्मों के अनुसार ही सुख-दुख का अनुभव करते है। ये जो सब सामने खडे है, अधर्म की नीति को धारण कर अपने स्वयं के लिए लड़ रहे है। तुम धर्म की नीति को धारण कर मानवता के लिए लड़ रहे हो, तुम्हारा लड़ना श्रेष्ठता के लिए है, इनका लड़ना निकृष्टता के लिए है। अर्जुन जब लड़ाई श्रेष्ठता के लिए होती है तो उसमें सबसे पहले अपने प्रिय ही आडे आते है। पहला युद्ध उन्ही से होता है, जब व्यक्ति अपनों से लड़कर सकुषल निकल जाता है तो उसे धर्म की नीति पर चलने के लिए कोई नहीं रोक सकता। अर्जुन यह जीवन यों हताश होकर बैठ जाने के लिए नहीं है। उठो और कर्म करो फल की चिन्ता मत करो। तुम श्रेष्ठता के लिए कर्म कर रहे हो। अर्जुन ने भगवान के उपदेशानुसार सकारात्मक भाव के साथ गांडिव उठाया और आगे बढा तो बढता ही गया।

उस समय महाभारत का युद्ध बाहर मैदान में था। आज महाभारत हर मानव के अन्दर चल रहा है। हम हर समय युद्ध करते रहते है, वैचारिक युद्ध। इस युद्ध का परिणाम भी आता है। हम हर बार थक हार कर बैठ जाते है। हमें अर्जुन की तरह मार्ग दिखाने वाले भगवान भी है, पर हम उनकी आवाज सुनते ही नहीं। हम सोच बैठते है कि यह मार्ग बहुत कठिन है। निकृष्टता का मार्ग सहज सुगम लगता है। हम अविश्‍वास के भावों को जल्दी ग्रहण करते है, विष्वास के भावों को नहीं। कारण कि हमारे चारों ओर का वातावरण ही अविश्‍वास से भरा है। जहां नीति पूर्ण कार्य नहीं अनीति पूर्ण कार्य ज्यादा हो रहे है। हम भी उन कार्यों को करने में संलग्न है। हालांकि हमारे अन्दर बैठा भगवान हमें हर समय सचेत करता है कि नीति पूर्ण कार्य व धर्म आधारित कतर्व्‍य करें। यही श्रेष्ठता की ओर ले जाते है। धर्म की जड़ हमेशा हरी होती है, यह जानकर भी हम इस ओर कदम नहीं उठाते। यदि किसी के कहने सुनने से उठकर चल भी पड़ते है, तो ज्यादा नहीं चल पाते, थककर बैठ जाते है और पुन: उसी वातावरण में लौटने लगते है।

परमपूज्य गुरूदेव से दीक्षा तो ली पर उसके अनुरूप कार्य नहीं कर पा रहे है। कारण यही है कि हम श्रेष्ठता के लिए उठते है और कुछ करने से पहले ही बैठ जाते है। जबकि सर्वशक्तिमान हमारा हाथ पकड़कर चलने के लिए तैयार है। वे अर्जुन को दिशा देते है तो हमें भी उठकर चलने को कहते है कि एक बार पूर्ण आत्मविश्‍वास और दृढ़ संकल्प शक्ति से उठो और चलो। फिर देखो, चारों ओर का वातावरण हमारे मनोनुकुल होगा। भगवान कहते है जो परिस्थितियों से डर गया, वह मंजिल नहीं पा सकता। सोना आग में जलकर ही कुन्दन बनता है, अपनी चमक ज्यादा बिखेरता है। उसी प्रकार जो मनुष्य प्रतिकूल वातावरण में भी अपने श्रेष्ठ निर्णयानुसार चलता रहता है, वह श्रेष्ठ बनता है।

हमें समाज में सब कुछ करते हुए ही श्रेष्ठता को धारण करना है और युद्ध जीतना है। हमारे चारों ओर अनीति के योद्धा खड़े है वे आगे बढ़ने से रोकते है ये अनीति के योद्धा भावात्मक है। जब हम बुरे व तुच्छ भावों को नजदीक ही नहीं आने देंगे तो मन दिमाग में सजगता का पहरा होगा। सजगता कहने सुनने के प्रति, सजगता काम के प्रति, सजगता अपने पराये के प्रति, सजगता छोटे बड़े के प्रति रहने से धर्म नीति पूर्ण कर्म के प्रति निष्ठा बढती है। कर्मठता की निष्ठा भगवान कृष्ण का उपदेश है जो महाभारत के समय अर्जुन को दिया गया था, कि श्रेष्ठता के लिए लड़ो चाहे वह अन्दर हो या बाहर हो। यही श्रेष्ठता सत्यता के नजदीक ले जाती है। सत्य ही भगवान है शेष सब माया है। हमें साक्षात् गुरू भगवान के उपदेशों का कर्मठता के साथ पालन करना चाहिये, निश्‍चय ही हम अर्जुन की तरह युद्ध जीतने में सफल होंगे।

-रामस्वरूप रावतसरे

4 COMMENTS

  1. अर्जुन जब लड़ाई श्रेष्ठता के लिए होती है तो उसमें सबसे पहले अपने प्रिय ही आडे आते है।………

    हमें समाज में सब कुछ करते हुए ही श्रेष्ठता को धारण करना है और युद्ध जीतना है। हमारे चारों ओर अनीति के योद्धा खड़े है वे आगे बढ़ने से रोकते है ये अनीति के योद्धा भावात्मक है। जब हम बुरे व तुच्छ भावों को नजदीक ही नहीं आने देंगे तो मन दिमाग में सजगता का पहरा होगा। सजगता कहने सुनने के प्रति, सजगता काम के प्रति, सजगता अपने पराये के प्रति, सजगता छोटे बड़े के प्रति रहने से धर्म नीति पूर्ण कर्म के प्रति निष्ठा बढती है।……

    अतिसुन्दर कल्याणकारी चिंतन…..

    कोटिशः आभार आपका इस महत सुन्दर आलेख हेतु…..

    इन कल्याणकारी बातों को यदि ध्यान में रखा जाय तो जीवन में सुख ही सुख होगा,यह निश्चित है.

    • जहा वैचारिक प्रबुद्ता होती हे वहा किसी बात को समझने में अधिक समय नही लगता अची प्रतिकिया के लिय आभार (रामस्वरूप रावत्सरे)

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