भेंट मज़दूरों की क्यों लेती बताओ चिमनियां…..
आये दिन गिरने लगीं जब गुलशनों में बिजलियां,
अब संभलकर उड़ रही हैं गुलशनों में तितलियां।
उनके कपड़ों की नुमाइश का सबब बनती हैं जो,
मुफलिसों की जान ले लेती हैं वो ही सर्दियां।
रहबरी जज़्बात की काबू रखो ये जुर्म है,
राख़ में तब्दील हो जाती हैं पल में बसितयां।
इस बदलते दौर में तुम भी बदलना सीख लो,
जुल्म ढाओगे तो इक दिन जल जायेंगी वर्दियां।
शीत लू बरखा के डर से हर रितु में बंद हैं,
सोचता हूं क्यों मकानों में लगी हैं खिड़कियां।
मौत भी छोटे बड़े में गर फ़र्क करती नहीं,
भेंट मज़दूरों की क्यों लेती बताओ चिमनियां।
हर कोर्इ अपने सुखों में है यहां खोया हुआ,
जश्न में दब जाती हंै अब तो पड़ौसी सिसकियां।
महनती क़ाबिल अदब में भी किसी से कम नहीं,
फिर भी कोर्इ बोझ समझे तो करें क्यां लड़कियां।
ग़ज़ल पसंद आई इकबाल जी, पर ख़ास यहाँ
नीचे दी हुई पंक्तिया…
शीत लू बरखा के डर से हर रितु में बंद हैं,
सोचता हूं क्यों मकानों में लगी हैं खिड़कियां
वाह ! बढ़िया…खिड़कियां अगर बंद ही रखनी थी हर मोसम में, तो घर में क्यों लगाई खिड़कियाँ…?
सिकुड़-सिकुड़ कर जीना भी इसे ही कहें…