महनती ग़रीबों को देवता बना देना,
कुदरती वसाइल पर सबका हक़ लिखा देना।
लोग जिनके ज़हनों को रहनुमा चलाते हैं,
अब भी वो गुलामी में जी रहे बता देना।
सच को सच बताने की क़ीमतें जो चाहते हैं,
उनकी खुद की क़ीमत भी माथे पर लिखा देना।
जुल्म और हक़तल्फ़ी ख़ामोशी से देखे जो,
मर चुका ज़मीर उसका उसको ये बता देना।
कश्तियां किनारों तक हर दफ़ा नहीं जाती,
साहिलों पे जाने को तैरना सिखा देना ।
मुल्क से बड़ा कुछ भी जो कोई समझता हो,
इस तरह के लोगों को मौत की सज़ा देना।
खूं बहाके दंगों में जन्नतें नहीं मिलती,
ज़िंदगी ख़ज़ाना है यूं ही मत लुटा देना।
सीधे सादे लोगों में दुश्मनी जो फैलायें,
ऐसी सब किताबों को आग में जला देना।
और एक टिपण्णी के लिए विवशता है|
मेरी धर्म पत्नी पल्लवी ने जो कहा, की ऐसा यदि हो जाए, तो जन्नत क्या, और स्वर्ग क्या, इसी धरती पर अवश्य मिल जाएगा|
हाथका जन्नत छोड़कर –बादमें मिले ना मिले, क्या पता?
आपकी कविता को बार बार पढ़ा जा रहा है|
मित्रों को भी भेजी है|
इस सप्ताहांत के कार्यक्रम में भी, ==> आपके नाम के साथ ही, इसे पढूंगा|
परिवार की ओर से पुन: पुन: धन्यवाद|
हिंदी फॉण्ट के कारण मुझे ही लिखना पडा|
dhnyevad
आर सिंह जी, डॉक्टर मधुसूदन जी और मारवाह जी आप सबका शुक्रिया .
गजब की ग़ज़ल है| शुक्रिया|
आर सिंह जी की टिपण्णी से सहमति.
इक़बाल जी के विचार जानता हूँ, इस लिए बिच में हर शब्द समझे बिना भी अनुमान से अर्थ लगाता हूँ.
धन्यवाद इकबाल जी.
लगे रहें.
इस गजल के शेरों की जबां उर्दू है, ज्यादा जानकारी नहीं होने कारण भाषा के बारे में टिप्पणी नहीं करूँगा ,पर गजल के शेरों के सहारे जो सन्देश देने की कोशिश इकबाल हिन्दुस्तानी जी ने की है,वह अवश्य काबिले तारीफ़ है.खास कर आखिर के तीन शेर तो ला जबाब हैं.क्या बात कही है आपने,
“मुल्क से बड़ा कुछ भी जो कोई समझता हो,
इस तरह के लोगों को मौत की सज़ा देना।
खूं बहाके दंगों में जन्नतें नहीं मिलती,
ज़िंदगी ख़ज़ाना है यूं ही मत लुटा देना।
सीधे सादे लोगों में दुश्मनी जो फैलायें,
ऐसी सब किताबों को आग में जला देना।”
अति सुन्दर सन्देश.