गजल :नजर मिली क्या तेरी नजर से

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नजर

नजर मिली क्या तेरी नजर से

गयी न सूरत मेरी नजर से

 

नजर लगे न तुम्हें किसी की

खुदा बचाये बुरी नजर से

 

नजर की बातें नजर ही जाने

सुनी है बातें कभी नजर से

 

नजर उठाना नजर झुकाना

वो कनखियाँ भी दिखी नजर से

 

वो तेरा जाना नजर चुरा के

नजर न आई कहीं नजर से

 

नजर मिला के हो सारी बातें

नयी चमक फिर उठी नजर से

 

नजर दिखा के किया है घायल

और मुस्कुराना नयी नजर से

 

नजर न आना बहुत दिनों तक

छलक पड़े कुछ इसी नजर से

 

भला करे क्यों नजर को टेढ़ी

कभी न गिरना किसी नजर से

 

नजर पे चढ़ के सुमन करे क्या

नजर है रचना खुली नजर से

 

अक्स

साथी सुख में बन जाते सब दुख में कौन ठहरता है

मेरे आँगन का बादल भी जाने कहाँ विचरता है

 

कैसे हो पहचान जगत में असली नकली चेहरे की

अगर पसीने की रोटी हो चेहरा खूब निखरता है

 

फर्क नहीं पड़ता शासन को जब किसान भूखे मरते

शेयर के बढ़ने घटने से सत्ता-खेल बिगड़ता है

 

इस हद से उस हद की बातें करता जो आसानी से

और मुसीबत के आने से पहले वही मुकरता है

 

बड़ी खबर बन जाती चटपट बड़े लोग की खाँसी भी

बेबस के मरने पर चुप्पी, कैसी यहाँ मुखरता है

 

अनजाने लोगों में अक्सर कुछ अपने मिल जाते हैं

खून के रिश्तों के चक्कर में जीवन कहाँ सँवरता है

 

करते हैं श्रृंगार ईश का समय से पहले तोड़ सुमन

जो बदबू फैलाये सड़कर मुझको बहुत अखरता है

 

द्वंद्व

जिसे बनाया था हमने अपना, उसी ने हमको भुला दिया

बना मसीहा जो इस वतन का, उसी ने सबको रुला दिया

 

बढ़े लोक और तंत्र फँसे है, ऊँचे महलों के पंजों में

वे बात करते आदर्शों की, आचरण को भुला दिया

 

नियम एक है प्रतिदिन का यह, कुआँ खोदकर पानी पीना

नहीं भींगती सूखी ममता, भूखे शिशु को सुला दिया

 

खोया है इंसान भीड़ में, मज़हब के चौराहों पर

भरे तिजोरी मुल्ला-पंडित, नहीं किसी का भला किया

 

बने भगत सिंह पड़ोसी घर में, छुपी ये चाहत सभी के मन में।

इसी द्वंद्व ने उपवन के सब, कली-सुमन को जला दिया।।

 

रोग

रोग समझकर अपना जिसको अपनों ने धिक्कार दिया

रीति अजब कि दिन बहुरे तो अपना कह स्वीकार किया

 

हवा के रूख संग भाव बदलना क्या इन्सानी फितरत है

स्वागत गान सुनाया जिसको जाने पर प्रतिकार किया

 

कलम बेचने को आतुर हैं दौलत, शोहरत के आगे

लिखना दर्द गरीबों का नित बस बौद्धिक व्यभिचार किया

 

बातें करना परिवर्तन की, समता की, नैतिकता की

जहाँ मिला नायक को जो कुछ उसपर ही अधिकार किया

 

सुमन भी उपवन से बेहतर अब दिखते हैं बाजारों में

कागज के फूलों में खुशबू क्या अच्छा व्यापार किया

 

जुदाई

गीत जिनके प्यार का भर ज़िन्दगी गाता रहा

बेरुख़ी से कह दिया अब न कोई नाता रहा

 

हर जुदाई और मिलन में थीं आँखें आपकी

क्या ख़ता ऐसी हुई यह सोच घबराता रहा

 

जो थी चाहत आपकी मेरी इबादत बन गयी

हर इशारा आपका मुझको सदा भाता रहा

 

भूल ख़ुद की भूल से गर आइने में देखते

पल न ये आते कभी यूँ ख़ुद को समझाता रहा

 

आपको अमृत मिले पीता ज़हर हूँ इसलिए

कितने अवसर अब तलक आता रहा जाता रहा

 

लुट गयी ख़ुशबू सुमन कि जब जुदाई सामने

बात ख़ुशियों की करें क्या ग़म पे ग़म खाता रहा

 

चुभन

अब तो बगिया में बाज़ार लगने लगा

वह सुमन जो था कोमल वो चुभने लगा

 

आये ऋतुराज कैसे इजाज़त बिना

राज दरबार पतझड़ का सजने लगा

 

मुतमइन थे बहुत दूर में आग है

क्या करें अब मेरा घर भी जलने लगा

 

जिस नदी के किनारे बसी सभ्यता

क्यों वहाँ से सभी घर उजड़ने लगा

 

मिले शोहरत को रक्षक है इज़्ज़त नगन

रोज माली चमन को निगलने लगा

 

बात अधिकार की जानते हैं सभी

अपने कर्तव्य से क्यों मुकरने लगा

 

चुप भला क्यों रहूँ कुछ मेरा हक़ भी है

इनसे लड़ने को मन अब मचलने लगा

 

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