गजल:जो दिल में रहते हैं

जो दिल में रहते हैं ,पास क्या वो दूर क्या

चाँद के रु-ब-रु कोई ,लगता है हूर क्या।

कितनी बार की हैं बातें, मैंने भी चाँद से

छलका है मेरे चेहरे भी ,कभी नूर क्या।

इस मुहाने पर हैं ,कभी उस मुहाने पर

छाया रहता है दिल पर जाने सरूर क्या।

बस एक हवा के झोंके से हम हिल गये

जाने क्या रज़ा है उसकी,उसे मंज़ूर क्या।

काले हो जाते हैं, चाँद, सूरज ग्रहण में

मिट जाता है उनके चेहरे से, नूर क्या।

ख्यालों में जब किसी के आते हैं बार बार

हो जाते हैं जमाने में, यूं ही मशहूर क्या।

बेवज़ह की उदासी को दिल से न लगाना

है बहार को खिजां में रहना, मंज़ूर क्या।

 

रफ़्ता रफ़्ता खुशियाँ जुदा हो गई

खुद-बुलंदी की राख़ जमा हो गई।

लौटकर न आये वे लम्हे फिर कभी

और ज़िन्दगी बड़ी ही तन्हा हो गई।

ज़िस्म का शहर तो वही रहा मगर

खुदमुख्तारी शहर की हवा हो गई।

कैसे गुज़री शबे-फ़िराक़, ये न पूछ

मेरे लिए तो मुहब्बत तुहफ़ा हो गई।

इस क़दर बढ़ी दीवानगी -ए -शौक़

मिलने की आस भी, दुआ हो गई।

 

ज़िन्दगी बहुत कुछ सिखा देती है

ग़लत, ठीक में फर्क़ बता देती है।

बदी पर उतर आती है मगर जब

मज़ाक भी बहुत बड़ा बना देती है।

जब देती है, दिल खोलकर देती है

मुफ़लिसी का वरना तांता लगा देती है।

पहाड़ों पर जाने का जब मन होता है

सहरा का वह रास्ता दिखा देती है।

सवाल तो चंद घड़ियों का होता है

मगर ता-उम्र का रोग लगा देती है।

सुकून से जब भी दम लेने को होते हैं

बे-इल्म सफ़र नाकाम बना देती है।

उस रंग से सिंगार नहीं करती कभी

जिस रंग के कपडे पहना जाती है।

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