लोग कहते हैं हम आधुनिक हो गए गए हैं। आज लड़के और लड़की में कोई फर्क नहीं। पर क्या ये बात पूरी तरह सच है। शायद नहीं। मुझे तो ऐसा नहीं लगता। हुआ यूं कि हमारे पड़ोस में एक लड़की के घरवालों ने ससुराल की तरफ से कार और अन्य मांगों के चलते रिश्ता तोड़ दिया। मुझे तो लगा उनके इस फैसले की तारीफ होगी कि उन्होंने दहेज़ के लालची लोगों के आगे झुकने की अपनी बेटी के सम्मान की रक्षा के लिए रिश्ता तोड़ दिया। उनके इस फैसले के बाद मेरी नजर में उस परिवार की इज्जत बहुत बढ़ गयी लेकिन समाज में उस परिवार की इज्जत की ऐसे धज्जियां उड़ाई जा रही हैं जैसे उन्होंने न जाने कितना बड़ा गुनाह कर दिया। चारों तरफ शोर मचा है कि लड़की इतनी पढ़ी-लिखी है इतना ज्यादा कमाती है अगर उसकी तनख्वाह के पैसे ही जोड़कर लड़की का रिश्ता बचा लेते तो क्या जाता ? आखिर इतनी कंजूसी किस काम की ? लड़की के घरवालों को ऐसा नहीं करना चाहिए था।
अरे माना कि वो दीदी अच्छा कमा लेती हैं और उनके पैसों से उनके ससुराल वालों की मांग आसानी से पूरी की जा सकती थी। लेकिन ये तो कोई बात नहीं हुई कि अगर लड़की कमाती है उसके घर वाले लालची लोगों के आगे झुककर अपनी बेटी का जीवन नरक बना दें। मैंने जब इस फैसले की सराहना करते हुए लोगों को समझाने की कोशिश कि तो मुझे जानकर बहुत आश्चर्य हुआ कि हमारे समाज के पढ़े-लिखे आधुनिक कहे जाने वाले लोग मेरी बात का विरोध कर रहे हैं। मुझे बच्ची कहकर चुप कराया जा रहा है लेकिन मैं जानना चाहती हूं कि जो बात मैं छोटी होकर समझ पा रही हूं उसे बड़े लोग क्यों नहीं समझ पा रहे ? क्यों हर बार दहेज़ देकर लड़की के आत्म सम्मान को कुचला जाता है ? क्या वह मनुष्य नहीं कोई वस्तु है जिसकी हर बार खरीद-फरोख्त होती है और इस सौदेबाजी के बाद भी वह कभी सुखी नहीं रह पाती। जब तक उसे सामान समझकर बेचा जायेगा मेरे ख्याल से वो कभी सुखी हो भी नहीं पायेगी। क्यों मेरे आधुनिक समाज के ये आधुनिक लोग इस बात को समझ नहीं पा रहे हैं? आज का समाज इतना आगे निकल चुका है, परंतु फिर भी आधी आबादी के मामले में हमारा समाज क्यों पुराने रिवाजों को ही मानता है? क्यों हमारी सामाजिक व्यवस्था में स्त्रियों के लिए बनाए गए रिवाजों में कोई परिवर्तन नहीं हुए?
महिलाओं के विकास की ओर बढ़ते कदम तथा बदले रूप-रंग को देखकर ऊपर से सबको भ्रम हो रहा है कि आधुनिक महिलाएं पूरी तरह से स्वतंत्र हैं। वो जैसा चाहती हैं, वैसा ही करती हैं। उन्होंने अपने जीवनशैली अपनी इच्छानुसार बनाई हुई है। जीवन के हर क्षेत्र में मिल रही कामयाबी इस बात की गवाह है कि अब हमारा समाज पुरुष प्रधान नहीं रहा। आधी आबादी को उसके हिस्से के अधिकार मिल रहे हैं। लेकिन इस तरह की घटनाएं देखने-सुनने बाद मन में कई सवाल उठते हैं- क्या सच में आधी आबादी को वह मिला है, जिसकी वह हकदार है या फिर सागर में से कुछ बूंदें उन्हें देकर बहला दिया गया है? क्या होना जुर्म है? क्या विवाह जैसा पवित्र बंधन लड़की के लिए सिर्फ उसकी खरीद-फरोख्त की रस्म है? इस रस्म में पवित्रता कहां बची? पवित्रता तो छोड़िये जनाब क्या इस सौदेबाजी में लड़की का खुद का अस्तित्व कहीं बचा है? कब तक हम इन खोखले व जर्जर हो चुके रिवाजों से बंधे रहेंगे? आइये मिलकर इसका जवाब खोजें।