वैश्विक उन्नति का मापदण्ड और उसके प्रभावक पहलु।

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डॉ. मधुसूदन

(एक) प्रवेश:
शीर्षक देने में, कुछ कठिनाई,  अनुभव कर रहा हूँ। यदि प्रश्न उठाए जाएंगे, तो और उत्तर ढूंढने का प्रामाणिक प्रयास किया जाएगा।वैसे यह विषय एक से अधिक आलेखों के लिए उचित है।
आ.गङ्गानन्द जी के,अनुरोध पर , इस आलेख में,  “पश्चिमी सभ्यता  (संस्कृति?)  के उन पहलुओं पर रोशनी डालनेका प्रयास किया है, जिन्हों ने उसे आज कीदुनिया का एजेण्डा एवम् स्वरुप निर्धारण करने की (हैसियत) योग्यता  दी है।”
(दो) उन्नति का  मापदण्ड
ये पहलु वही है, जिनके कारण,पश्चिमी सभ्यता (संस्कृति?) आज  संसार में उन्नति का  मापदण्ड निर्धारित करने की क्षमता रखती है। या जिनके कारण, संसार में महाशक्तियों का क्रम भी निर्धारित होता है।
वैसे कोई भी देश किसी दूसरे देश के समान नहीं होता। प्रत्येक देश की अपनी विशेषताएं होती है। उनके मौलिक स्रोत अलग होते हुए भी फलतः क्रमिकता (Ranking) के आधारपर उनकी तुलना की जाती है।
ऐसा प्रभाव शारीरिक, मानसिक, बौद्धिक, और आध्यात्मिक पहलुओं का अलग अलग मात्रा में, जोड हो सकता है। पश्चिमी सभ्यता का  प्रभाव अधिकतर भौतिक और कुछ मानसिक-बौद्धिक स्तर तक ही सीमित है। आध्यात्मिक प्रभाव निश्चित नहीं है। जो भी आध्यात्मिक प्रभाव है, वह भी छद्म प्रतीत होता है; क्यों कि उसका आधार  आर्थिक ही है।

(तीन) तटस्थ अवलोकन
इन पहलुओं को किसी संस्कृति से या देश से जोडकर देखने के पहले, तटस्थता पूर्वक देखते हैं। क्यों कि वस्तुनिष्ठ या निरपेक्ष अवलोकन, हमें सामान्य सिद्धान्त, जो प्रायः प्रस्थापित हो चुके हैं,  उनके आधार पर तुलना करने में सहायता करेंगे। वर्षों पहले, मॉर्गनथाउ की “पॉलिटिक्स अमंग नेशन्स” पाठ्य पुस्तक का अवलोकन किया था।उसके अनुसार, संसार की, साम्राज्यवादी सत्ताएं निम्नांकित तीन प्रकारों से वर्चस्व (प्रभाव)जमाने का प्रयास करती है।
(१) सैनिकी शक्ति से दास बनाकर,
(२) आर्थिक शक्ति के वर्चस्व से,
(३) सांस्कृतिक(?) या सभ्यता के बीजारोपण से प्रवेश कर।

(१) सैनिकी शक्ति के जड प्रयोग से वर्चस्व निश्चित स्थापित होता है, पर अब, असभ्य और जंगली माना जाता है।और ऐसा प्रभाव स्थायी नहीं होता, देश स्वतंत्र होने पर टिकता नहीं है।
(२) आर्थिक वर्चस्व भी धन की सहायता जब तक रहती है, तभी तक ही बना रहता है।
(३) पर सांस्कृतिक प्रवेश सूक्ष्म होता है। और देशों को दीर्घ काल तक (कभी कभी सदा के लिए भी ) प्रभावित करता रहता है। बहुत बार पीडित देश को इस प्रभाव की जानकारी तक नहीं होती।यह तीसरा सांस्कृतिक प्रभाव भारत पर आज भी सर्वोपरि प्रतीत हो रहा है। पर  इस विषय को आज छेडने का उद्देश्य नहीं है।


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चार)आजका विषय
आज उन पहलुओं पर ध्यान केंद्रित करना चाहता हूँ, जिन के कारण मेरी जानकारी में, पश्चिम को, संसार का एजेंडा एवं स्वरूप निर्धारित करने की क्षमता दी है।

(पाँच)आज की क्रमिकता।
आज की परिस्थिति में, ऐसे प्रभाव की वरीयता या क्रमिकता निम्न क्रम में मानी जाती है। इस आलेख में,  अमरिका नाम से केवल  USA.  ही समझा जाए; दक्षिण अमरिका और कनाडा छोडकर।
पहला स्थान
पहला स्थान, अमरिका का प्रायः निर्विवाद ही माना जाता था । कुछ इस स्थान को, सम्प्रति क्षति अवश्य पहुंची है। पर दूसरा कोई,  आज प्रतिस्पर्धा, करने की संभावना दिखाई नहीं देती। ऐसा स्थान प्राप्त करने के मौलिक कारण भी अनेक है।
संयुक्त राज्य अमरिका (USA) आज भी, सर्वश्रेष्ठ शक्ति  मानी जाती है, पर इस पद की सच्चाई, और  उसकी वैधता और परिणामकारकता  और उसके नेतृत्व के चिरस्थायित्व पर संसार में, कुछ संदेह  व्यक्त किया जा रहा है। इसका कारण है, उसकी संदिग्धता,  आंतरिक एवं बाह्य चुनौतियाँ।

दूसरा स्थान
चीन  का स्थान अमरिका से  अवश्य ही नीचे, माना जा रहा  है। कारण है, चीन की आर्थिक नीति, वर्धिष्णु   प्रगतिशीलता, स्पष्ट असंदिग्ध निर्णय शक्ति, जो उसके अपने  राष्ट्र के  हित में.प्रेरित है। इसके अतिरिक्त,किसी  प्रकार के अंतर्राष्ट्रीय(promises) वचनों से मुक्तता, और उसकी सतत बढती हुयी सैन्य संहारक  शक्ति भी इसका कारण है। दूसरे संसार के अन्य देश अपेक्षा करते हैं, कि, शीघ्र ही अमरिका को चीन आह्वान करेगा, और सर्वोच्च स्थान प्राप्त करेगा।

तीसरे स्थान
पर रूस, जापान,  और भारत, माने जाते हैं।
चौथे स्थान
पर  ब्रितानिया, जर्मनी, और फ़्रान्स की  गणना  की जाती है।

(छः) क्रमिकता कैसे निर्धारित होती है?
आप जानना चाहेंगे, कि, किस कारणों से इनको ऐसा क्रम दिया जाता है?  इस प्रश्न के अनेक पहलु हो सकते हैं; और ऐसी क्रमिकता सुनिश्चित करने में अनेक घटकों पर विचार किया जाता है। ऐसी  क्रमिकता भी स्थायी नहीं होती, इस लिए, समय समय पर  क्रम बदलते रहता है।
प्रत्येक देश का वैश्विक प्रभाव जो, अन्य देश आंकते हैं; उसपर ऐसा क्रम निर्धारित होता है। ऐसा प्रभाव अन्य देशों को जो सामान्यतः प्रतीत होता है, उसपर ही  निर्भर करता है। ऐसी शक्ति उस देशकी  वास्तविक है या नहीं, इसका विशेष महत्व नहीं है। पर कुछ न कुछ सामर्थ्य हुए बिना ऐसी प्रतीति भी संभव नहीं हो सकती।
कुछ पहलु निश्चित है, कि, किस देश के पास कौनसे अस्त्र शस्त्र है, अणुबम है, कितनी संख्यामें सेना है। कितना विशाल भू भाग है? किस निष्ठावाली जनसंख्या है, कितना वह देश आत्मनिर्भर है,  कितने प्रतिभा सम्पन्न विद्वान उस देश की प्रगति में शोधकार्य में लगे  हैं। ऐसे अनेक घटक हो सकते हैं।

(सात) राष्ट्र शक्ति के प्रमुख घटक
१. देश की भौगोलिक (Geography) स्थिति और उस देश की विशालता या क्षेत्रफल
२. उस की सीमा की गुणवत्ता
३. प्राकृतिक संसाधन और सम्पन्नता
४.खाद्यान्न में आत्म निर्भरता
५.औद्योगिक सामर्थ्य या क्षमताएं।
६. जनसंख्या
७.सैनिकी शक्ति
८. अमरिका के कुछ विशेष जानने योग्य पहलु
वैसे संसार में भारत, चीन, ब्राज़ील, अमरिका, रूस, इत्यादि  क्षेत्रफल में बडे देश हैं। संसार में बडे देशों को महाशक्ति की प्रबल संभावना के रूपमें देखा जाता हैं। और उनकी बात सुनी जाती है।
एक समय इंग्लैण्ड जो अनेक देशों पर राज करता था, महाशक्ति ही था। पर अब उसका क्षेत्र घट जाने से महाशक्ति की क्षमता खो बैठा है।

१. देश की भौगोलिक(Geography) स्थिति,  और उस की विशालता या क्षेत्रफल
अमरिका ने अपने मोहरों को बडी कुशलता से क्रियान्वित किया है। हवाई प्राप्त किया, अलास्का U S S R से खरिदा। उसी प्रकार प्युर्टो-रिको भी प्राप्त किया। भारत की अपेक्षा तीन गुना क्षेत्र अमरिका का है। और एक तिहाई जन संख्या, यह उसे ९ गुनी लाभकारी क्षमता देता है। उसी प्रकार,सोविएट युनियन की विशालता नेपोलियन और हिटलर को पराजित करने में बडा घटक प्रमाणित हुइ थी। उससे विपरित, इज़राएल का छोटा और मर्यादित क्षेत्रफल, उसे  असुरक्षितता का भाव देता प्रतीत होता है। U S S R के १३ टुकडे हो जाने तक रूस और अमरिका प्रति स्पर्धी माने जाते थे। पर जैसे रूस के टुकडे हुए, और उसका भू-भाग घटा, उसीके साथ उसका क्रम पहले से घटकर तीसरा हो गया।
इसी लिए बडी सत्ताएं भारत को भी छद्म रीति से घटाने में ही जुटी हुयी हो, तो अचरज नहीं।

२. देश की सीमा की गुणवत्ता
भारत भी १९४७ के पहले, बहुत ऊंचा स्थान रखता था। क्यों कि, उत्तर में हिमालय, पूर्व, पश्चिम एवं दक्षिण में समुद्र हमें रक्षण दिया करते थे। यदि पाकीस्तान और बंगला देश नहीं बनते तो भारत के लिए अंतर्राष्ट्रीय युद्ध की संभावना विशेष थी नहीं। पर हमें, हमारी चारों ओर से सुरक्षित, सीमाओं में ही दो शत्रु-देश  स्वीकार करने पडे। अब चीन भी हिमालय को पार कर सीमा पर हलचल कर रहा है।

३. प्राकृतिक संसाधन और सम्पन्नता
( Raw Materials) कच्ची सामग्री का प्राप्ति स्रोत, औद्योगिक उत्पादन के लिए और युद्ध का सूत्रपात करने के लिए आवश्यक है। कच्ची सामग्री का होना, यंत्रीकरण और तकनिकी विकास के लिए भी महत्त्व रखता है। उदा: अमरिका (USA) और रूस पेट्रोल में आत्मनिर्भर है। और चीन Rare earth ( विरल मृदा -मिट्टी )  का नियंत्रण करता है। युरेनियम भी बहुत महत्वपूर्ण हो गया है महाशक्तियों के लिए।
u s, u k, रूस, फ्रान्स, और चीन के पास युरेनियम का होना, उनकी शक्ति बढा देता है। भारत के पास भरपूर कोयला, और लोहा खानों में उपलब्ध है। पर भारत अपनी युद्धोचित कच्ची सामग्रीका उचित उपयोग करने में सफल नहीं हो पाया है।

४.खाद्यान्न में आत्म निर्भरता
खाद्यसामग्री में आत्म निर्भरता देश की शक्ति मानी जाती है। जो देश खाद्यसामग्री में आत्म निर्भर नहीं होता, वह सुरक्षितता अनुभव नहीं कर सकता। उसी प्रकार पानी में आत्मनिर्भरता भी सुरक्षितता का भाव देती है। उदाहरणार्थ: पाकीस्तान की खेती,  कुछ मात्रा में निश्चित ही, भारत से वहाँ बहती सिंधु नदी के जलपर निर्भर करती है।   ऐसी निर्भरता पाकीस्तान को असुरक्षितता का भाव देती ही होगी। भारत ही है, जो, ऐसी नदीका पानी, कारगिल जैसी छद्म लडाई के समय  भी रोकता नहीं है। वैसे, हमारी भूमि  उपजाऊ होने के कारण, और हमारी ऋतुएं वर्ष में एक से अधिक फसले दे सकती है। कहीं कहीं ३ तक फसले उपजायी जाती है। विशेष में हमारा सिन्धु- गंगा –यमुना से प्रभावित  प्रदेश बहुत उपजाऊ है।

५.औद्योगिक सामर्थ्य या क्षमताएं।
औद्योगिक उत्पादों की गुणवत्ता और क्षमता,  मनुज बल (Manpower) का तकनीकी कौशल्य, शोधकर्ताओं की संशोधन-क्षमता, प्रबंधन और व्यवस्थापन की क्षमता,
अमरिकाने, कुशल कारिगरों को, और प्रतिभाओं को, एवं विद्वानों को, ऊंचे वेतन पर लुभाकर देश की संशोधन शक्ति बढायी। अमरिका के बहुसंख्य शोध परदेश से यहाँ आकर बसे हुए विद्वानों द्वारा हुए पढा हुआ स्मरण है।
प्राथमिक शिक्षा से लेकर, एक कालेज का स्नातक शिक्षित करने तक, अमरिका को अनुमानतः $ ४००,०००( डॉलर )  का खर्च आता है। जब परदेश से सुशिक्षित को स्वीकार किया जाता है, तो अमरिका को ४ लाख डॉलर का उपहार मिलता है। यह है उसका गणित।

६. जनसंख्या
कोई देश प्रथम कक्षा की महाशक्ति नहीं बन सकता, जब तक उसके पास पर्याप्त संख्या में, प्रजाजन न हो। पर ऐसी जनसंख्या की गुणवत्ता और राष्ट्रभक्ति  भी  ऐसी राष्ट्र-शक्ति निर्धारित करने में एक बडा मह्त्व का घटक है।

७.सैनिकी शक्ति
सैनिकी शक्ति  देश की परदेश नीति होनी चाहिए।
नौसेना, वायुसेना, भूसेना और असंख्य तकनीकी पर आज की सैन्य शक्ति निर्भर करती है।
इसी विषय पर ही, पूरा अलग आलेख बन सकता है।
सेना के नेतृत्व पर, और उनकी संख्या और गुणवत्ता एवं शौर्य पर भी इस शक्तिका प्रबल आधार होता है।
साथ साथ देश की (सामरिक) रण नीति भी इसके लिए बहुत बडा योगदान दे सकती है।

८. अमरिका के कुछ विशेष जानने योग्य पहलु
अंतमें कुछ, अमरिका के  विशेष जानने योग्य पहलु लिखकर इस आलेख को समाप्त करता हूँ।
अन्य देशों की स्पर्धा के उपरांत, अमरिका संसार की ४.५ % जनसंख्या वाला देश, संसार का २२% GDP (कुल राष्ट्रीय उत्पादन) का निर्माण करता है। यह उसकी जनसंख्या से प्रायः ५ गुना है।
साथ में यह भी ध्यान रहे, कि, अपने डॉलर का ऊंचा मूल्य संरक्षित कर, यह ४.५ % की जनता, सारे संसार का ४४-४५ % प्राकृतिक संपदा का( अपनी जनसंख्या से १० गुना,  उपभोग भी करती है। और बचा हुआ ५५ % संसार के अन्य देशों के लिए छोडा जाता है।
भारत जो संसार की प्रायः १७ % की जनसंख्या रखता है, वह यदि अमरिका के जीवन स्तरपर जीना  चाहे तो उसे जनसंख्या के १० गुनी प्राकृतिक संपदा , १७० % मिलनी चाहिए।
अमरिका के  ४५ % के उपभोग  के पश्चात,  १००-४५ = ५५ % ही बचता है।
अब बची हुयी ५५ % संपदा में से १७० % लाए कहाँ से? और फिर क्या संसार के अन्य देश भी नहीं है?

अनुरोध:
मैं जानकारों से टिप्पणी की अपेक्षा रखता हूँ। मेरी जानकारी संक्षिप्त है।
उत्तर देने में विलम्ब हो सकता है।

 

19 COMMENTS

  1. डा: मधुसूधन द्वारा प्रस्तुत आलेख के शीर्षक, वैश्विक उन्नति का मापदण्ड और उसके प्रभावक पहलु, पढ़ते न जाने क्यों बचपन में पढ़ी रैल्फ वाल्डो एमर्सन की कविता, ए नेशन’ज स्ट्रैंथ, याद हो आई है। वैश्विक उन्नति में मानवीय पहलु का उल्लेख अति आवश्यक है।

    • धन्यवाद इंसान जी। थोडा गहन विचार आपसे भी अपेक्षित है। आलेख को और एक बार पढनेका अनुरोध भी है। पर, यह आलेख निम्न प्रश्न के उत्तर में था।
      ===>आ.गङ्गानन्द जी के,अनुरोध पर , इस आलेख में, “पश्चिमी सभ्यता (संस्कृति?) के उन पहलुओं पर रोशनी डालनेका प्रयास किया है, जिन्हों ने उसे आज की दुनिया का एजेण्डा एवम् स्वरुप निर्धारण करने की (हैसियत) योग्यता दी है।” ये मात्र “वैश्विक उन्नति” के पहलु नहीं है। ये पहलु वे हैं, जिन के आधारपर पश्चिम अपना एजेण्डा संसार में मनवाता है।
      (१) “मानवीय पहलुओं को पश्चिम की सत्ताएं प्रधानता नहीं देती।” किन्तु बोलने में, वक्तव्य में, अपनी बात मनवाने के पश्चात चार “शब्द फूल” अवश्य चढाती हैं। गौण स्थान भी देती है, या नहीं, यह उनके इतिहास से भी प्रश्नार्थक स्थिति ही दर्शाती है।
      हिरोशिमा और नागासाकी पर ऍटम बम्ब फेंकने में कौनसा मानवी मूल्य ?
      रेड इण्डियनों का संहार, अफ्रिकी गुलामों के साथ का व्यवहार, इत्यादि मुझे किसी निर्णायक मत पर नहीं पहुंचाते। आपने “रूट्स” नामक ऐतिहासिक चित्रपट देखा होगा।
      इनका मूल स्व केन्द्रित विचारधारा है, आध्यात्मिक नहीं है। रिलिजिअस है, स्पिरिच्युअल नहीं।

      (२) राजनीति में, ऐसे विचार का मूल “मॉर्गन थाउ” लिखित पाठ्य पुस्तक “पॉलिटिक्स अमंग नेशन्स” जो कालेजों में पढाई जाती थी, उसमें पाया जाता है। जिस पुस्तक की छाया में गत ५० वर्षों की अंतर राष्ट्रीय कूट नीति का विश्लेषण किया जा सकता है। पश्चिम जिस पुस्तक से परदेश नीति संचालित करता है, उसे जानकर ही, भारत उनके संदर्भ में, अपनी दिशा ठीक निर्धारित कर पाएगा।
      (२अ) एक असंबद्ध पर अतीव मह्त्त्व का ग्यातव्य गौण बिंदु—> प्रत्येक पडौसी की नीतियों का इसी प्रकार अध्ययन करने पर भारत अधिक सक्षम और सुरक्षित होगा।
      (३) जब आपको सामने वाला कैसा पैंतरा लेगा, यह पता हो, तो आप तैय्यार रह सकते हैं।
      (४) पश्चिम की सत्ताएं अपना एजेण्डा अपनी संहारक (शक्ति) क्षमता, के आधार पर ही संसार से मनवाती है। इस केन्द्रीय विचार को कभी दृष्टि-ओझल ना होने दें। इस विचार को भूलकर ही हम बार बार छल कपट के बलि चढ चुके हैं।
      (५)जंगल के नियम –> “सर्वाइवल ऑफ़ द फिट्टेस्ट” के आधार पर ही, अर्थात शक्ति के बलपर ही अपना एजेण्डा महा सत्ताएं मनवाती है। मानवीय मूल्य केवल बातचित की परिभाषा ही अनुभव हुयी है। इतिहास यही साक्षी देगा। अपनी बात मनवाने पर शब्द फूल अवश्य चढाती हैं। इससे भ्रमित न हो।
      (६) इस शक्ति के घटक रूप प्रजाजनों की देश भक्ति स्वीकार है।पर यह तो आंतरिक है, परदेशी से अपेक्षा गलत।
      (७)शक्तिमान भारत और भारत विचार से प्रभावित देश (?) , ही मानवीय मूल्यों को प्राधान्य दे सकते हैं। शक्ति का पर्याय नहीं है।
      (८) हम, भ्रमित होकर, दूसरे देशोंके द्वारा बार बार आक्रमण के बलि बन चुके हैं।
      (९) मुझे लगता है, कि, हम अपने मानवीय विचारों से ऐसे सम्मोहित हो जाते हैं, कि, दूसरों में भी उन्हीं विचारों को देखने लगते हैं।
      =+=+=+=>एक पूरे आलेख के लिए उचित आपका प्रश्न था, संक्षेप में उत्तर असंभव था।—क्या मैं आपका समाधान कर पाया? यदि नहीं तो आलेख ही बनाना पडेगा।
      आपके प्रश्न ने मुझे कुछ अवसर दिया। बहुत बहुत धन्यवाद।
      आप ही का शायद हिन्दी वाला प्रश्न अभी मेरी सूची में पडा हुआ है।
      साथ अवश्य देते रहें।

      • क्षमा कीजिये, डॉ. मधुसूदन जी, मेरी टिपण्णी में मेरा तात्पर्य केवल आलेख के शीर्षक में वैश्विक उन्नति के संदर्भ में रैल्फ वाल्डो एमर्सन की कविता, नेशन’ज स्ट्रेंथ, में मानवीय पहलु (human factor) की ओर संकेत करना था| आज इक्कीसवीं सदी के संयुक्त राज्य अमरीका में रहते वहां हुई उन्नति में मानवीय पहलु को आप स्वयं अवश्य समझते होंगे| यदि आपका आलेख आपके और श्री गंगानंद झा के बीच चल रहे किसी विशेष संवाद पर आधारित है तो मैं मानता हूँ कि मुझे आलेख के शीर्षक के अतिरिक्त कोई दूसरे विषय का आभास न हुआ था| आपसे अनुरोध है कि श्री गंगानंद झा के प्रश्न को दोहराने का कष्ट करें ताकि सार्वजानिक कार्यक्षेत्र में आपका आलेख रुचिकर बना रहे और पाठक गण उचित प्रसंग में ही अपने विचार प्रस्तुत कर सकें| धन्यवाद|

        • इंसान जी. –पहले परिच्छेद में ही यह उल्लेख किया है। फिरसे उद्धृत कर देता हूँ।

          ===>आ.गङ्गानन्द जी के,अनुरोध पर , इस आलेख में, “पश्चिमी सभ्यता (संस्कृति?) के उन पहलुओं पर रोशनी डालनेका प्रयास किया है, जिन्हों ने उसे आज कीदुनिया का एजेण्डा एवम् स्वरुप निर्धारण करने की (हैसियत) योग्यता दी है।”

          • डॉ. मधुसूदन जी, आपकी भेजी ईमेल के लिए धन्यवाद| आपके आलेख “पश्चिमी चिंतन की मर्यादाएँ” के संदर्भ में श्री गंगानंद झा द्वारा पूछा सुस्पष्ट प्रश्न न केवल पैचीदा है बल्कि उसका सम्भव उत्तर एक टिपण्णी में व्यक्त कर पाना असंभव है| संक्षिप्त रूप में पश्चिम सभ्यता ईसाई धर्म व दर्शन के इर्द गिर्द विकसित एवं संगठित ऐसा समाज है जो विज्ञान, उद्योगिकी, प्रौद्योगिकी, व अन्य सामाजिक विषयों और परम्पराओं से लाभान्वित आज की दुनिया का एजेण्डा एवम् स्वरुप निर्धारण करने की हैसियत रखता है|

        • नमस्कार। इन्सान जी, तीन दिन पहले डाला हुआ; आलेख, जिसमें,***विदेशी सत्ताएं किस प्रकार भारत में प्रभाव फैलाती है? ***इस प्रश्न पर मॉर्गनथाऊ के सिद्धान्त से उत्तर देने का प्रयास किया है।
          कृपया पढ ले।

          सधन्यवाद।

          मधुसूदन

  2. सर्व प्रथम डा झा को धन्यवाद कि उन्होन्ने बहुत मह्त्वपूर्ण प्रश्न किया, और एक योग्य व्यक्ति से किया..
    डा. मधुसूदन जी को साधुवाद कि उन्होन्ने इसे एक बीज लेख के रूप में लिखा , इस बीज मे एक ( अनेक ?) व्रिक्ष पैदा करने की पूरी सम्भावनाए हैं ..
    उन्होने राष्ट्र शक्ति के जो ७ घटक बतलाए हैन वे लगभग पर्याप्त हैं, लगभग इस्लिये कि ६ वां घटक का नाम यदि जनसंख्या के स्थान पर जन शक्ति रखा जाए तब यह पर्याप्त होंगे.. वैसे इस गुण की ओर उन्होने “राष्ट्र भक्ति कहकर किया है..किन्तु जन शक्ति शब्द अधिक सटीक होगा.. जनशक्ति में संख्या के अतिरिक्त संस्क्रति तथा जीवन मूल्या आदि गुण भी सम्मिलित हैं..
    परइथ्वीराज चौहान ने मुहम्मद घोरी को हरा दिया था किन्तु उसे म्र्रित्यु दण्ड देने के स्थन पर क्षमा कर दिया – यह हमारी सन्स्कति की शक्ति हमारी दुर्बलता बन गइ – क्षमा पात्र को देखकर करना चाहिये, .हमें प्रतियोगी या आक्रामक से अधिक सच्चरित्र नहीं होना चाहिये (चाणक्य) , शठं प्रति शाठयेत करना चाहिये..यह हमें आज भी सीखना चाहिये.
    परइथ्वीराज चौहान की इसी हार के बाद हमारा हारने का सिल्सिला चल पडा ..
    यद्यपि १२वीं शती तक हम विग्यान मेन विश्व में प्रथम थे और विश्व सकल उत्पाद में भी, विश्व का लगभ्ग ३०% उत्पाद भारत कर रहा था
    और चीन लगभग २५ % कर रहा था..यूरोप तो १० % के लगभग ही कर रहे थे..
    सन्स्क्रिति में शत्रुओं के साथ कैसा व्यवहार करना चाहिये वाली योग्यता आवश्यक है..
    साथ ही पश्चिम की संस्क्र्ति भोगवादी है जो विश्व के उत्पाद का अधिकतम का भोग करना चाहता है और विश्व को प्रलय की ओर ले जा रहा है, यह गुण अवांच्हनीय है किन्तु ऐसा ही गुण विश्व में सत्ता स्थापित करने के लिये बहुत आवश्यक हो जाता है – प्सश्चिम ने विग्यान में श्रेष्ठता प्राप्त करते ही विश्व के अन्य देशों पर कब्जा कर लिया था – अपने भोग के लिये.. भारत ने शायद ही अन्य देशों पर आक्रमण किया हो क्यों कि हम त्यागमय भोग में विश्वास करते हैं..
    यह एक विडम्बना तो है कि भोगवादी तो आक्रमन करेगा और बढेगा..किन्तु भोगवाद मानव जाति के लिये वांच्हनीय नहीं है..

    • आदरणीय श्री. विश्वमोहन तिवारी जी, आपके सारे बिंदुओं से सहमति व्यक्त करता हूँ। समय लेकर दीर्घ टिप्पणी देने के लिए धन्यवाद।

  3. श्री मधुसुदंजी हमेशा नए विश्येओ पर ज्ञानवर्धक लेख लिखते हैं. बह वधाई के पात्र हैं. पश्चिम के देशो ने विश्व के कई देशो से कुछ न कुछ ग्रहण या हैं और उन सब चीजो और ज्ञान पर बिना पर किसी का आभार किये अपना ठप्पा लगा दिया. अमेरिका और कई देशो ने भारत से बहुत कुछ ग्रहण किया हैं. लेकिन इन देशो ने कभी भी यह नहीं बताया के कौन सा ज्ञान भारत से आया हैं. जब पछिम और अमेरिका में योग, संगीत, भरत नाट्यम, वेद जैसी बाते लोकप्रिया हुयी तो इन देशो ने क्रिस्चियन योगा, अमेरिकन वेदा जैसी पुस्तके को प्रकशित कर उनको लोकप्रिय बनाया और कभी यह नहीं बताया के इन ज्ञान का श्रोत किया हैं. इशी तरह उन्हानो हल्दी,बासमती और अन्य कई भारयीय पदार्थो पर अपना पेटेंट ले लिया जबके यह बस्तुअये बहा होती ही नहीं.श्री राजीव मल्होत्रा जी ने इस विषया पर कई पुस्तके लिखी हैं. के अमेरिका और अन्या पश्चिम देशो ने भारत के ऋषि,मुनियों,के ज्ञान और संस्कृति से बिना किसी को कुछ बताये क्या क्या ग्रहण किया हैं.

  4. आ. गंगानंद जी नमस्कार।
    आप के मित्र जैसा सोचते थे, वैसा मैं भी सोचता था। अंग्रेजी को भी भारत के लिए अनिवार्य मानता था।
    आज नहीं मानता।
    बहुत बहुत कहना है। लघु उत्तरसे आप को संतोष नहीं होगा।
    कभी पूरा आलेख लिखने का प्रयास करूँगा।

    सविनय

    • डॉ साहब,
      प्रतिक्रिया के लिए धन्यवाद। मुझे लगता है कि हमारे बीच संवाद स्थापित हो नहीं पा रहा है। मेरी शंकाएँ और जिज्ञासाएँ आप तक सम्प्रेषित हो नहीं पा रही हैं।
      सधन्यवाद
      गंगानन्द

      • आप यदि ऐसे प्रश्न रखें, जिनका उत्तर संक्षेप में दिया जा सकता हो, तो समीचीन उत्तर देना शायद संभव होगा। आप आज तक लिखे, हुए, आलेखों से भी कुछ तो उत्तर पा ही सकते हैं। कुल ६५ आलेख डाले हैं।

        सादर

  5. मनोयोगपूर्वक प्रस्तुत किए गे आलेख के लिए आभार । संयोग से आज के हिन्दुस्तान टाइम्स में श्री गोपालकृष्ण गाँधी का एक आलेख देखने को मिला। उसका लिंक संलग्न कर रहा हूँ. आलेख प्रासंगिक है. विवेचना में सहायक होगी।

    https://www.hindustantimes.com/editorial-views-on/ColumnsOthers/Strangers-in-our-own-land/Article1-1124994.aspx

    • जिस प्रकार विश्वविद्यालयों में अध्यापकों अथवा अन्य व्यवसायों में कार्यरत लोगों से शोधपूर्ण पत्रों की अपेक्षा की जाती है, उसी प्रकार (प्रस्तुत लिंक में) सरकार की सेवा में लगे गोपालकृष्ण गाँधी अंग्रेजी भाषा में लिखे निबन्ध में सत्तारूढ़ सरकार की राजनीति को खेते अपना कर्तव्य निभाते हैं। और यदि गोपालकृष्ण गाँधी के निबन्ध के साथ साथ पाठकों की टिप्पणियां भी पढ़ें तो देश में उन्नति का नहीं बल्कि बड़ती अराजकता का बोध होता है।

  6. श्रद्धेय डाक्टर साहब सादर प्रणाम,
    आलेख विषय की गहराई को दर्शाने वाला है। निश्चय ही ऐसे आलेख के लिए विशेष परिश्रम करना पड़ता है।
    मेरे विचार से विश्व की उन्नति या अवन्नति को उस देश के आध्यात्मिक मापदंड या मान्यताएं भी बहुत सीमा तक प्रभावित करती हैं।
    विश्व के सर्वांगींण उन्नति के लिए वेद ने एक सूत्र दिया-वर्धस्व वर्धय च अर्थात अपनी तो उन्नति करो ही साथ ही दुसरे की उन्नति में भी सहायक बनो,यह विचार अथवा मापदंड देवों के समाज का निर्माण कराने में सहायक हो सकता है।इसलिए इसे उत्तम मापदंड कहेंगे।
    दूसरा विचार महात्मा बुद्ध ने दिया।उन्होंने कहा-जियो और जीने दो।इसमें आप अपनी उन्नति अपने ढंग से करे और मै अपनी उन्नति ढंग से करूं,ऐसा कुछ भाव है।इसमें तटस्थतापूर्ण सहयोग का भाव झलकता है जिसे असहयोग भी कह सकते हैं।इसीलिए यह विचार वेद के विचार से छोटा है किन्तु फिर भी किसी संघर्ष को उत्पन्न नहीं करता।इसलिए मानव समाज की स्थापना कराने में तो सहायक है ही।
    तीसरा एक विचार और है,जो कहता है कि दुनिया में जीने का अधिकार तो बस मुझे है।इस विचार में संघर्ष है दुनिया को दारुल हरब और दारुल इस्लाम में बाटकर देखने की सोच इस्लाम को इसी विचार ने दी।यही स्थिति ईसाई मत की है।इस प्रकार की मान्यता से समाज में दानवता प्रबल होती है और आध्यात्मिक उन्नति सर्वथा अवरुद्ध हो जाती है। आज सारे संसार पर और उसकी प्रगति पर तीसरी विचार धारा का प्रभाव है।
    आपके प्रयास और आपके पुरुषार्थ को नमन करते हुए आलेख “उगता भारत ” में प्रकाशनार्थ ले लिया गया है । चिंतन की उत्कृष्टता के लिए बार बार धन्यवाद ।
    सादर।

    • प्रिय — राकेश कुमा्र जी–समीचीन उत्तर के लिए, और सही सही सुसंगत विचार के लिए बहुत हर्ष सहित धन्यवाद।
      ===>अमरिका का रेड इण्डियनों के संहार का और
      ===> कृष्ण वर्णी अफ्रिकियों के शोषण का क्रूर इतिहास भी लज्जास्पद, पर जानने योग्य है।
      ===>वह “सर्वाइवल ऑफ़ दि फिटेस्ट” की जंगली मानसिकता से जन्म लेता है।
      ===>पर भोले हिंदुओं को सारा अमरिका सुष्ठु सुष्ठु दिखाई देता है।
      कडवा सचः==> सच्चाई को शक्ति भी आवश्यक है्। भ. गीता यही कहती है।
      हम प्रयास करते रहेंगे।
      =============================================================
      आ.गङ्गानन्द जी के,अनुरोध रपर , इस आलेख में, “पश्चिमी सभ्यता (संस्कृति?) के उन पहलुओं पर रोशनी डालनेका प्रयास किया है, जिन्हों ने उसे आज कीदुनिया का एजेण्डा एवम् स्वरुप निर्धारण करने की (हैसियत) योग्यता दी है।”

  7. दूगुना -तिगुना परिश्रम कर के यह आलेख लिखा है।
    असहमति भी हो, तो व्यक्त तो करो।
    भारत के लिए, विषय बहुत महत्त्व रखता है।

    • आदरणीय डॉ मधुसूदन,
      नमस्कार
      प्रथमतः मेरे अनुरोध को सम्मान दिया आपने ,मैं अभिभूत हूँ.. प्रतिक्रया देने में विलम्ब हुआ। आपने इतनी निष्ठापूर्वक प्रश्न को सम्बोधित किया
      मेरे प्रश्न की पृष्ठभूमि थी। मेरे एक मित्र संक्षिप्त अवधि के लिए एक अमरिकी विश्वविद्यालय में विज़िटिंग अध्यापक के रूप में गए थे, उन्होंने अपने एक पत्र में अपना एक वहाँ के अध्यापकों के बारे में अपना अवलोकन लिखा था. ये भारतीय ऋषियों की तरह लगते हैं जिनके बारे में कहा गया है — ऋषयः मन्त्रं दृष्टारः.। मुझे बात ठीक से समझ में नहीं आई थी फिर उनसे बात हो नहीं पाई। सवाल रह ही गया।
      मेरे फोकस में अमेरिका नहीं, पश्चिमी सभ्यता के मूल्य हैं । पश्चिम के मनीषी हैं,
      जिनके मूल्यबोध आज भी उस समाज के मूल्य हैं।
      हम भारत में पश्चिमी सभ्यता के पतनशील मूल्यों के बारे में तो बहुत पढ़ते सुनते रहते ही हैं, और अपनी पीठ ठोंकते हैं। पर क्या हमने अपने महान सांस्कृतिक उत्तराधिकार को समझा, उसका नवीकरण किया, उसको समृद्ध किया?
      अमेरिका ही पश्चिम नहीं है, न भारत या चीन ही पूरब ।

      • आ. गंगानंद जी —
        आप को व्यक्तिगत रूप से इ मैल द्वारा उत्तर भेजा था। प्राप्त हुआ होगा। आज का इंसान जी को दिया हुआ उत्तर भी देख लें। धन्यवाद।

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