मन्दिर को तोड़कर,
मस्जिद बनाली तो क्या हुआ!
तुम मस्जिद को तोड़कर अब,
मन्दिर बनालो!
ऊपर बैठा हुआ वो हंस रहा होगा….
मेरे ही घर को तोड़ तोड कर,
कब तक बनाओगे,
मैने तो वहाँ रहना,
कबका छोड़ दिया है।
मै तो रहता हूँ,
बादलों की ओट मे कभी,
पर्वतो की ऊँचाई मे, ढूढलो मुझे,
मिल जाऊंगा वहीं।
सागर की गहराई नाप लो,
मैं हूँ शायद वहीं!
किसी बालक की,मासूम हंसी मे,
मिलूंगा कभी!
पहचान न सको तो
कमी तुममे ही है कहीं!
बिना जी की कविता बड़ी मार्मिक है । साम्प्रदायिक लोगों पर यह करारी चोट करती है । कवयित्री को बधाई ।