सरकार के निशाने पर रघुराम राजन

swamyप्रमोद भार्गव

राज्यसभा सांसद सुब्रमण्यम स्वामी का बयान थोड़ा चैंकाने व थोड़ा असमंजस पैदा करने वाला है। भारतीय रिर्जव बैंक के गवर्नर रघुराम राजन की नीतियों को भारतीय अर्थव्यवस्था के प्रतिकूल बताने और उन्हें शिकागो भेजने की नसीहत देने वाले स्वामी ने अब उन्हें पद से बर्खास्त करने की मांग करते हुए अभारतीय भी कहा है। स्वामी ने प्रधानमंत्री को लिखे पत्र में कहा, ‘मैं राजन के जानबूझकर और सोच-समझकर अर्थव्यवस्था को छिन्न-भिन्न कर देने के प्रयासों से स्तब्ध हूं। उन्होंने मुद्राफीति नियंत्रण की आड़ में ब्याज दरों में बढ़ोतरी की,जिससे देश को नुकसान हुआ। गवर्नर के हस्तक्षेप से औद्योगिक गतिविधियां कम हुईं,नतीजतन अर्थव्यवस्था बेरोजगारी का सबब बन गई। ऐसी नीतियों के चलते 67 प्रतिशत नौकरियों में कमी आई है।‘ राजन के संदर्भ में वाणिज्य मंत्री निर्मला सीतारमण, वित्त मंत्री अरुण जेटली और वित्त राज्यमंत्री जयंत सिन्हा भी मौद्रिक नीतियों पर अप्रसन्नता जाहिर कर चुके हैं। नीति आयोग के उपाध्यक्ष अरविंद पनगढ़ियां भी राजन के विचारों से असहमत हैं। भारतीय उद्योग संघ भी चाहता है कि रुपए का अवमूल्यन किया जाए,जिससे निर्यात की संभावनाएं बढ़ें। इस नजरिए से मुद्रा नीति में भी सरकार ने परिवर्तन किए हैं। इन नाराजियों से बेफ्रिक राजन ने भारत में ही नहीं विश्व में जारी मंदी के लिए, कर्ज में डूबी कंपनियों को दोषी ठहराया है।

हमारे यहां इस समय लोकतंत्र के स्तंभ और स्वायत्त संस्थाओं में टकराव कुछ ज्यादा ही मुखर हो रहा है। वित्त मंत्री अरुण जेटली ने संसद में न्यायपालिका पर कार्यपालिका में अत्याधिक न्यायिक सक्रियता का आरोप लगाया है। दरअसल सर्वोच्च न्यायालय ने ट्राई के उस फेसले पर रोक लगा दी है,जिसमें दूर-संचार कंपनियों पर काॅल ड्राप होने पर ग्राहकों को मुआवजा देने का आदेश दिया था। यही नहीं अदालत ने यहां तक कहा कि ट्राई का आदेश मनमाना, अतार्किक और अपारदर्षी है। जबकि दिल्ली उच्च न्यायालय ने इस फैसले को सही ठहराया था। अदालतें जब अपनी ही निचली अदालत के फेसले के एकदम विपरीत चली जाती हैं,तो न्यायिक सक्रियता का अहसास विधायिका को होना स्वाभाविक है। उत्तराखंड में राष्ट्रपति शासन के मामले में अदालती टिप्पणियों और आदेशों ने भी केंद्र सरकार की मुश्किलें बढ़ाई हैं। इस वजह से भी न्यायिक सक्रियता का मुद्दा उठा है। अलबत्ता रिजर्व बैंक के गवर्नर रघुराम राजन को लेकर सरकार और उसके समर्थकों में पैदा हो रहे असंतोष का मामला अलग है। दरअसल एक तो रिर्जव बैंक और उसके गवर्नर की अपनी सीमाएं हैं,दूसरे उन्हें बैंकों के हित सरंक्षण का भी ख्याल रखना होता है। इस नजरिए से राजन ने बैंकों के डूबते कर्ज से संबंधित मामलों को गंभीरता से लिया है। वे औद्योगिक घरानों से सख्ती से कर्ज वसूलने और बैंकों का लेखा-जोखा दुरूस्त करने की बात कर रहे हैं। ताकि पता चल सके कि इन घरानों पर वास्तविक कर्ज कितना है। राजन दलील दे रहे है कि ये घराने सरकारी बैंकों से ऋण लेकर फर्जी औद्योगिक वृद्धि जताते रहे हैं। सब जानते हैं कि विजय माल्या किंगफिशर कंपनी के कारोबार में जाली वृद्धि और रोजगार की झूठी उम्मीदें जताकर ही बैंकों से 9000 करोड़ रुपए का कर्ज लेने में सफल हुए थे। वर्तमान में देश के 10 बड़े औद्योगिक घरानों पर 5 लाख करोड़ रुपए का कर्ज बकाया हैं। इनमें अडानी, अंबानी बंधु, एस्सआर, जेपीसी और जीएमआर समूह शामिल हैं। इनमें से कई सरकार के बेहद करीब हैं। इसी दौरान एनपीए भी बढ़कर 3.5 लाख करोड़ हो गया है। लिहाजा यदि बैंकों के बही-खाते दुरूस्त होते हैं तो सरकार के करीबियों की पैरों तले की जमीन खिसक सकती है। नतीजतन सरकार नहीं चाहती कि असलियत सामने आए। गोया, ऐसा कहना तर्कसम्मत नहीं है कि राजन की नीतियों के चलते अर्थव्यवस्था में गतिरोध उत्पन्न हो रहा है। वैसे भी बैंकों की ब्याज दर घटाने बढ़ाने में ही गवर्नर की अहम् भूमिका है। रुपए की मूल्य वृद्धि या उसके अवमूल्यन में अंतरराष्ट्रीय मुद्रा नीतियों की भी भूमिका अंतर्निहित रहती है। जिस पर गवर्नर या सरकार का कोई वश नहीं होता है।

हालांकि अब केंद्र सरकार ने नए नियम बनाकर बैंकों की ब्याज दर बढ़ाने व घटाने के उपाय भी तलाश लिए हैं। रिर्जव बैंक के लिए वार्षिक मंहगाई का लक्ष्य और बैंकों के लिए ब्याज दर तय करने के नजरिए से एमपीसी में सरकारी प्रतिनिधियों की सदस्यता सुनिश्चित कर दी है। अब भारत सरकार की ओर से इस मुद्रा नीति समिति में तीन सदस्य मनोनीत होंगे। इसके बाद मौद्रिक नीति के तहत ब्याज दरों के निर्णय का वर्तमान तरीका बदल जाएगा। मसलन इसमें हस्तक्षेप की अब सरकार की प्रत्यक्ष भूमिका होगी। किंतु जब समिति के सदस्यों के किसी नीति को लागू करने के बाबत, बराबर-बराबर मत होंगे, तो रिर्जव बैंक के गवर्नर को एक अतिरिक्त वोट का अधिकार होगा। मसलन गर्वनर अपनी मंशा के अनुसार नीति के पक्ष या विपक्ष में वोट डालने को स्वतंत्र होंगे। इससे लगता है,आखिर में निर्णायक हस्तक्षेप गवर्नर का ही रहेगा। बावजूद गवर्नर के एकाधिकार पर अंकुष तो लगेगा ही। हालांकि किसी भी विकसित अर्थव्यवस्था में मौद्रिक नीति को राजनीतिक हस्तक्षेप से दूर रखा जाता है। लेकिन अब ऐसे संकेत मिल रहे हैं, जैसे सरकार सीधे-सीधे मुद्रा नीति को अपने नियंत्रण में लेना चाहती है। राजन पर लगातार हमलों की ऐसी कुछ वजह हैं।

सरकार और राजन के बीच बेवाक बोलों को लेकर तनातनी अर्से से चली आ रही है। पिछले महीने अमेरिका में वैष्विक संस्थाओं ने भारतीय अर्थव्यवस्था को चमकती व उभरती हुई अर्थव्यवस्थाओं में से एक कहा था। विश्व बैंक व अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष की इस सालाना बैठक में जी-20 देशों के वित्त मंत्री एवं बैंकों के गवर्नर मौजूद थे। तब राजन ने अपनी प्रतिक्रिया व्यक्त करते हुए कहा था कि हमारे देश की आर्थिक हालत ‘अंधों में काने राजा जैसी है।‘ मसलन राजन का आशय था कि जब दुनिया की अर्थव्यवस्थाएं डांवाडोल हो रही हैं, तब भारत की अर्थव्यवस्था थोड़ी बहुत ठीक है भी तो वह सरकार की नहीं,भगवान की मेहरबानी से है। हालांकि इस बैठक में राजन ने देश की अर्थव्यस्था की उपलब्धियों का गुणगान करते हुए यह भी कहा था कि,चालू खाता घटा है और राजकोषीय घाटे भी कम हुए हैं। मुद्रास्फीति की दर 11 प्रतिशत से घटकर 5 प्रतिशत पर आ गई है,इस कारण ब्याज दर कटौती के अवसर पैदा हुए हैं। इसके आलावा हमारी सरकार दिवालिएपन से उबरने  और जीएसटी कानून भी बनाने जा रही है। ये कानून बन जाते हैं तो देश की आर्थिक वृद्धि दर तेजी से बढ़ती दिखाई देगी।

यहां सुब्रमण्यम स्वामी के राजन को शिकागो भेज देने के परिप्रेक्ष्य में गौरतलब है कि राजन जब सितंबर 2013 में भारतीय रिजर्व बैंक के गवर्नर बनाए गए थे,उसके पहले वे शिकागो विवि के बूथ स्कूल आॅफ बिजनेस में प्रोफेसर थे। इस स्कूल को अमेरिकी सरकार का वित्त विभाग चलाता है। राजन को मध्यमार्गी अर्थशास्त्री माना जाता है। इस समय देश में मनमोहन सिंह सरकार वजूद में थी। राजन ने गवर्नर बनते ही फौरी नकदी के लिए रिजर्व बैंक की ब्याज दर 7.25 फीसदी से बढ़ाकर 8 फीसदी कर दी थी,जो 2014 तक चली। मुद्रास्फीति रोकने का यही पारंपरिक तरीका होता है। इससे संप्रग सरकार के वित्त मंत्री पी. चिदंबरम भी सहमत नहीं थे। वे भी उद्योगों को शह देने की दलील दे रहे थे, ताकि विदेशी निवेष और मांग बढ़े। लेकिन राजन ने ब्याज दरों को शिथिल नहीं किया। राजन ने वित्त मंत्रालय और उद्योग में वृद्धि को प्रोत्साहन करने के लिए ब्याज दर में कमी के अधिक दबाव के बावजूद मुद्रास्फीतिक चिंताओं का हवाला देते हुए नीतिगत दर को उच्च स्तर पर बरकरार रखा। जनवरी 2015 से नीतिगत दर में कमी का सिलसिला शुरू किया, तब से रेपो दर कुल मिलाकर 1.50 प्रतिशत घटकर 6.50 प्रतिशत पर आ गई है। ब्याज दरें घटाने के बाद भी औद्योगिक उत्पादन नहीं बढ़ा। शायद इसकी एक प्रमुख वजह सरकारी बैंकों के डूबते कर्ज हैं। आंकड़े भी उत्पादन घटने की तस्दीक कर चुके हैं। नतीजतन बेरोजगारी तो चरम पर है ही, लगे रोजगार भी कम हो रहे हैं। इसलिए इस बद्तर स्थिति के लिए केवल मौद्रिक नीतियों को दोषी नहीं ठहराया जा सकता है। साफ है, इस लिहाज से अर्थव्यवस्था में यदि कहीं गतिरोध है तो उसके इतर कारण हैं।

जिस राह पर भारत की अर्थव्यवस्था चल रही है, वह रास्ता  हमने 1991 में उदारवादी आर्थिक नीतियों के चलते चुना था। तब से अब तक बाजारवाद को बढ़ावा देने के लिए उदारीकरण व निजीकरण की राह पर इतना आगे बढ़ गए हैं की डाकघर व बैंकों में जमा की जाने वाली अल्प बचत योजनाएं भी सरकार की आंखों में खटक रही हैं। इस प्रवृत्ति को हतोत्साहित करने की दृष्टि से भी न केवल ब्याज दरें घटाई गईं, बल्कि जिन आवर्ती जमाकर्ताओं के पास पेन कार्ड नहीं है, उनकी बचत राषि से भी 20 प्रतिशत राषि काटने के उपाय पिछले महीने से कर दिए गए हैं। ऐसी नीतियां लघु बचत कर्ताओं की हकमारी हैं। इन उपायों के लिए सरकार या गवर्नर जो भी दोषी हैं, उन्हें समझना चाहिए कि इससे न तो देश की अर्थव्यवस्था मजबूत होने वाली है और न ही सरकार को कोई लाभ मिलने वाला है।

ठहरी अर्थव्यवस्था का एक कारण खेती और लघु उद्योगों को प्रोत्साहित नहीं करना भी हो सकता है। देश में रोजगार व आजीविका का सबसे बड़ा साधन खेती-किसानी है। बावजूद न तो कृषि को लाभदायी बनाने के उपाय सामने आ रहे हैं और न ही फसल उत्पादक किसान को सम्मान का दर्जा मिल पा रहा हैं। इसलिए अर्थव्यवस्था को गति देने की दृष्टि से नीतियों में आमूलचूल परिवर्तन लाने की जरूरत है। राजन का कार्यकाल इसी साल सितंबर में पूरा हो रहा है। यदि वाकई सरकार अर्थव्यवस्था का गतिरोध तोड़ना चाहती है तो हमें बाजारवादी नीतियों की जकड़बंदी से बाहर निकलना होगा। इसके लिए अमेरिका या ब्रिटेन से पूंजीवादी हितों के सरंक्षक गवर्नर आयात करने की बजाय, देश से ही रिजर्व बैंक के लिए ऐसा गवर्नर तलाशने की जरूरत है, जो देशी अर्थव्यवस्था को विकसित करने के देशज उपाय अमल में लाए। इससे गवर्नर के अभारतीय होने की आशंका भी नहीं रहेगी। स्वदेशी की पैरोकार रही भाजपा को इस दिशा में गंभीरता से सोचने की जरूरत है। इस हेतु सरकार बाबा रामदेव को भी सूत्रधार बना सकती है। उन्होंने स्वदेशी तकनीक और स्वदेशी उत्पदाकता के बूते वास्तव में बहुराष्ट्रीय कंपनियों को शीर्षासन करा दिया है। पतंजलि के 5 हजार करोड़ तक पहुंचे कारोबार को अगले एक साल के भीतर 10 करोड़ तक पहुंचाने का लक्ष्य तो बाबा ने रखा ही है, 2 लाख युवा बेरोजगारों को रोजगार देने का भी दावा किया है। रोजगार के  विस्तार और युवाओं को रोजगार देने का इतना बड़ा दावा अन्य कोई देशी-विदेशी कंपनी नहीं कर पा रही हैं तो हमें रामदेव के देशज अर्थशास्त्र को समझकर उसे जमीन पर उतारने की जरूरत है।

 

 

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