-डॉ. मयंक चतुर्वेदी-
भारतीय हिन्दी भाषा में सबक शब्द का उपयोग तब किया जाता है, जब किसी को कुछ सिखाया, पढ़ाया या उसे किसी कार्य के लिए तैयार कर दिया जाता है। किंतु लगता है कि देश और यहां के राज्यों की सरकारें हैं कि कई मामलों में पाठ पढ़ने के बाद भी कोई सबक लेना नहीं चाहतीं। देश और प्रदशों में आज अनेक समस्यायें हैं जिनके समाधान की बातें तो की जाती हैं लेकिन प्राय: देखा यही गया है कि सरकारें अनेक वायदों के साथ सत्ता में आती और चली जाती हैं पर समस्यायें यथावत बनी रहती हैं। जिस लोक के लिए जनता का जनता द्वारा जनता के लिए शासन है, लगता है वह सिर्फ भारतीय संविधान में ही कैद होकर रह गया है। बनती तो सरकार जनता के लिए है, प्रशासन भी जनता के प्रति जवाबदेह है, किंतु सत्य क्या है ? यही कि एक बार प्रशासन में आने के बाद अपने कर्तव्यों के प्रति कुछ प्रतिशत को छोड़ दिया जाए तो कोई उत्तरदायी नहीं।
जनतंत्र के मंदिर संसद और विधानसभाओं में जब मंत्री से किसी विषय पर जवाब मांगा जाता है तब या तो जानकारी एकत्र की जा रही होती है या फिर कई बार असत्य जानकारी उपलब्ध करा दी जाती है । इस पर जब प्रतिपक्ष हंगामा करें तो यह कहकर बातों को आगे बढ़ा दिया जाता है कि जल्द सही जानकारी एकत्र कर सदन के पटल पर रख दी जायेगी, जब तक प्राय: होता यह है कि संसद और विधानसभाओं का सत्र समाप्त हो जाता है। इसमें जानकारी है कि पता नहीं कहां गुम हो जाती है। वास्तव में यह है वर्तमान लोकतंत्र की हकीकत। जिस लोक के लिए इस व्यवस्था का निर्माण हुआ, क्या इसे व्यवहार में लाया जा रहा है? सही मायनों में लगता है वह जन-जन कहीं है ही नहीं। यदि यह बाते सच नहीं होती तो कोई कारण नहीं है कि देश और राज्यों में जनता से सीधी जुड़ी समस्यायें आजादी के 68 वर्ष बीत जाने के बाद भी यथावत नहीं बनी रहती।
केंद्र में भाजपा की मोदी सरकार के बनने के बाद एक माह भी नहीं बीता था कि देश के एक कद्दावर और सीधे जनता से संवाद रखने वाले नेता केंद्रीय ग्रामीण विकास मंत्री गोपीनाथ मुंडे की एक सड़क हादसे में दर्दनाक मौत हो गई। तब यहां सभी का सोचना वाजिब लगता है कि जिस देश में एक केंद्रीय मंत्री सड़क पर चलते वक्त महफूज नहीं, वहां आम जनता की सड़क पर जाते समय क्या स्थिति होती होगी। जो सुबह काम पर अपनी पत्नी से गरम टिफिन लेकर शाम को घर वापिस आने का भरोसा दिलाकर और यह कह कर की लौटने के बाद बच्चों के साथ मार्केट चलेंगे या ऐसे ही कितने मां-बाप के प्रिय बेटा-बेटी या प्रिय दोस्त जल्द मिलने का आश्वासन देकर जाते हों, और अचानक खबर आती है कि अब वह हमारे बीच से हमेशा के लिए अलविदा हो चुके हैं, तब क्या स्थिति होती होगी, एक पत्नी, एक मां, एक पिता या मित्र की? वस्तुत: कल्पना में यह सोचनेभर से भय उत्पन्न हो जाता है। जब कि सच यही है कि इस देश में हर रोज न जाने कितने ऐसे लोग हैं जो आने का वायदा करके तो घर से निकलते हैं, किंतु वे अनायास सड़क हादसों का शिकार होने से कभी वापिस अपने घर नहीं पहुंच पाते हैं। निश्चित तौर पर देश में घटित होने वाली रोजमर्रा की दुर्घटनाएं भारत की वह तस्वीर पैश करती हैं जिससे कि यहां सड़क परिवहन की खौफनाक हालत पता चलती है।
हाल ही में मध्य प्रदेश के पन्ना जिले में हुई बस पलटने की घटना ने भले ही देश में सड़क यात्रा में बढ़ते खतरों की तरफ ध्यान खींचा हो लेकिन सच यही है कि ऐसे संपूर्ण देश में कम ज्यादा हादसे हर रोज होते हैं। फिर भी ना केंद्र सरकार और ना ही प्रदेशों की सरकारें इससे कोई सबक सीखना चाहती हैं। जब मोदी कैबिनेट के सदस्य गोपीनाथ मुंडे दिवंगत हुए, तब देशभर में सड़क सुरक्षा को लेकर जोर-शोर से चर्चा शुरू हो गई थी, सरकार ने अपने कानूनों में सुधार भी किया, पहले से कड़े कानून लाए गए, यह सोचकर की अब हादसों को कम किया जा सकेगा या इनका समाप्त किया जाना संभव होगा लेकिन हुआ क्या ? दुर्घटनाएं कम हाने की बजाय पहले से और ज्यादा बढ़ गईं। अब इसके लिए किसे जिम्मेदार ठहराया जा सकता है? सरकार तो कहेगी कि हमने अपना काम ईमानदारी से कानूनों में संशोधन कर किया है। परन्तु सच यही है कि यह पूरा सत्य नहीं है। इस दिशा में कड़े कानून बनाने के बाद भी कोई केंद्र या राज्य की सरकार अपनी जवाबदेही से नहीं बच सकती हैं। यदि कानून हर मर्ज का इलाज होता तो देश में फिर अपराध नहीं होते ? महिलाओं की आबरू बीच सड़क नहीं बेची जाती और ना ही इस देश में कोई ऐसा कृत्य होता, जिससे देश को शर्मिंदगी महसूस होती। हां, इतना अवश्य है कि कानूनों के जरिए सरकारें अपराध को कम जरूर कर सकती हैं। लेकिन हकीकत यही है कि किसी भी समस्या की पूर्ण समाप्ती के लिए सरकारों को कानून बनाने के अलावा अन्य उपायों पर ही विचार करना होगा। वस्तुत: यही बात आज देश में सड़क हादसों को कम करने के लिए लागू होती है, जिसे भारत सरकार और प्रदेशों की सरकारों को अच्छे से समझने की जरूरत है।
वस्तुत: केंद्र सरकार और यहां के राज्यों की सरकारें लगता है, दुनिया से कुछ सीखना नहीं चाहती हैं? यूरोपीय देशों में हर भारतीय बहुत चाव से घूमना चाहता है। मौका मिलने पर वहां स्थायी और अस्थायी रूप से बसना भी चाहता है, लेकिन कोई इस बात पर गौर करने की जेहमत उठाना नहीं चाहता कि वहां के देश वर्तमान की प्लानिंग नहीं आने वाले 100 से 200 वर्ष आगे की सोचकर अक्सर सार्वजनिक हित की योजनाएं बनाते हैं। भारत के संदर्भ में कहें तो सड़क पर चलने वाली साईकल और बेलगाड़ी से लेकर चार-आठ पहिया वाहनों तक व इससे आगे हवा तथा जल में चलने वाले आज इतने अधिक वाहन मौजूद हैं कि देश की सवा सौ करोड़ की जनसंख्या भी उसके सामने कम है। देश में वाहन तो रोज बढ़ते जा रहे हैं, लेकिन उनके मुताबिक जरूरी सड़कों का विस्तार नदारद है फिर अन्य इन्फ्रास्टक्चर के बारे में कहना ही क्या ? तब फिर देश में हादसों का सिलसिला कैसे रुके ?
पिछले साल अप्रैल में सर्वोच्च न्यायालय ने देश की सड़कों को दानवी हत्यारे तक कह दिया था । तब संपूर्ण भारत का ध्यान इस दुखद हकीकत की तरफ खिचा जरूर, किंतु वक्त बीतने के साथ सभी इसे भूल गए। जिन्हें नहीं भूलना था, वह केंद्र और राज्य की सरकारें भी इस बात को भूल गईं कि हमें अपने यहां सड़क निर्माण और अन्य दुरस्ती के आमूलचूक कार्य करना है।
अब सड़क हादसों से जुड़े जरूरी आंकड़ें भी देख लें। विश्व स्वास्थ्य संगठन के मुताबिक भारत में मौतों का छठा सबसे बड़ा कारण सड़क दुर्घटनाएं हैं। प्रत्येक 3.7 मिनट पर भारत में एक व्यक्ति की जान इसकी वजह से जाती है तथा यह दर दुनिया में सबसे ज्यादा है। इतना ही नहीं तो इससे कई गुना अधिक लोग सड़क दुर्घटनाओं में विकलांग और जख्मी होते हैं, जिनका की कोई आंकड़ा ही नहीं रखा जा सकता है। इस बीच अन्य अध्ययनों से यह सामने आया है कि हादसों में ड्राइवर की गलती और सड़कों की दुर्दशा सबसे बड़े कारण हैं। दिल्ली, मुंबई, जैसे शहरों में भले ही सड़कें बेहतर हैं, लेकिन ट्रैफिक नियमों का सख्ती से पालन न होना, असावधानी और ड्राइवरों की लापरवाही दुर्घटनाओं के प्रमुख कारण हैं। ज्यादा आबादी और मोटर वाहनों की बढ़ती संख्या भी इसकी वजहें हैं। फिर यातायात नियमों की अनदेखी और लापरवाह ड्राइविंग आम समस्या हैं। राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड्स ब्यूरो (एनसीआरबी) का दो साल पूर्व पिछले दस वर्षों का आंकड़ा साफ बताता है कि देश में 2003 से 2012 के बीच भले ही जनसंख्या वृद्धि दर 13.6 फीसदी रही हो, लेकिन इस दौरान सड़क हादसों में मरने वालों की संख्या में 34.2 फीसदी वृद्धि देखी गई थी।
हमारे पड़ोसी मुल्क जिसकी हम हर बात में बराबरी करना चाहते हैं, उस चीन ने भले ही सड़क हादसों से सबक लेकर अपने यहां सिस्टम में सुधार आरंभ कर दिया हो और फिर आबादी एवं वाहनों की संख्या में लगभग समान बढ़ोतरी के बावजूद वहां दुर्घटनाओं में लगातार कमी आ रही है। पर भारत है कि इस मामले में चीन से कुछ सीखना ही नहीं चाहता है। न सड़क सुधार में और ना ही रेलवे की होने वाली अनायास दुर्घटनाओं से वह कोई सबक ले रहा है। वस्तुत: सरकारों को यह समझना होगा कि मानव जिंदगी से बढ़कर कुछ अन्य नहीं है। लोकतंत्र में जिस जन के विश्वास को हासिल कर सरकारें बनती हैं, उनका पहला दायित्व होना चाहिए कि वह अपने जन की रक्षा पहली प्राथमिक सूची में सबसे आगे रखे। फिर इसके लिए उसे जितने भी लोक महत्व और कल्याणकारी कदम उठाने पड़े, वह उठाए। यानी सावधानी, सही व्यवस्था और नियमों का सख्ती से पालन हो, तो अपने देश में दिखाई दी जाने वाली असमर्थता टूट सकती है।
यह सही है कि सड़क हादसों के कारणों और समाधान पर भारत में भी पर्याप्त चर्चा हुई है और हो रही है। इससे कुछ ठोस सुझाव भी सामने आए एवं निरंतर आ रहे हैं। अच्छी सड़कों का निर्माण और उनका ठीक रखरखाव, ट्रैफिक लाइटों को दुरुस्त रखना, ट्रैफिक नियमों का सख्ती से पालन और ड्राइविंग लाइसेंस जारी करने की दुरुस्त प्रक्रिया जैसे सुझाव इनमें शामिल हैं। किंतु इन सुझावों पर अमल कैसे हो? यह अब तक सरकारों की कार्यसूची में नहीं है। छोटे हादसों को सरकारें गिनती नहीं किंतु जब बड़ी दुर्घटना घट जाती है तब सरकारें अपनी और से मृतकों के परिजनों को मुआवजा राशि तथा मजिस्ट्रेट जांच बैठा कर अपने उत्तरदायित्वों की पार्ति मान बैठती हैं। पर फिर भी यह सवाल अपनी जगह कायम है कि सड़क यात्रा को सुरक्षित कैसे बनाया जाए ?
इससे जुड़े दो प्रमुख पहलू हैं। एक तो सड़कों की खराब हालत है। दूसरा परिवहन नियमों के पालन और ड्राइवरों की ट्रेनिंग से संबंधित पहलू है। विकसित देशों के बारे में कहा जाता है कि वहां ड्राइविंग लाइसेंस लेना डिग्री हासिल करने जैसा काम होता है। जबकि अपने यहां के भ्रष्ट सिस्टम में यह संभव है कि बुनियादी शर्तों को पूरा किए बिना भी लाइसेंस मिल जाते हैं। वस्तुत: देश की यह जो तस्वीर बन गई है उसे राजनैतिक इच्छाशक्ति और प्रशासनिक स्तर पर सख्ती बरतने तथा मूलभूत ढ़ांचागत सुधार कर बदलना वर्तमान की जरूरत है, अन्यथा देश और यहां के राज्यों में बड़े से बड़ा सड़क हादसा हो जाने के बाद कुछ वक्त का स्यापा होता रहेगा और सड़क दुर्घटना से आमजन की मौंतें कभी कम नहीं होंगी।
आपके विचारों से पूरी तरह सहमत होने के बावजूद मेरा मत है हमारी तुलना चीन से नहीं की जा सकती ,चीन में मानव अधिकार नहीं है. वहां गलती करने पर तुरत सजा का प्रावधान है. यहां तो कोई सड़क पर शराब पीकर कार चलाता किसी को कुचल दे तो १०=१५ वर्ष तो मुकदमे का फैसला आयेगा. और फैसला सजा देने का आया तो दिन भर मीडिया यही वर्णन करेगा की उसकी माँ,बहिन दोस्त भाई रो रहे हैं. उसने इतना चंदा दिया है छोड़ दो उसे. सड़क हादसों के प्रकरण,बलात्कार के प्रकरण और भृ ष्टाचार के प्रकरण शीघ्र न्यायालय में चलना चाहिए.