जनगणना के ताज़ा आंकड़े आज इस बात के गवाह हैं कि भारत की कुल आबादी का ६८.८ फीसदी हिस्सा यानि कि ८३.३ करोड़ की आबादी गाँवों में बसती है| हालांकि जनसंख्या का ये प्रतिशत घटा है मगर फिर भी आबादी का एक बड़ा हिस्सा ग्रामीण भारत की पहचान स्वरूप हमारे सामने है| जिसके सशक्तिकरण के बिना विश्व पटल पर एक मजबूत भारत की परिकल्पना करना सिर्फ ख्याली पुलाव पकाने जैसा है| स्मरण हो तो गांधीजी के ग्राम स्वराज के सपने को साकार करने के लिए ही पंचायती राज प्रणाली पर अमल की बात सोची गई थी| जिसमें योजना बनने से लेकर उसके क्रियान्वयन तक में स्थानीय लोगों की सहमति को प्राथमिकता देने की बात गयी ताकि विकास की एक ऐसी इबारत लिखी जा सके जिसमें आम आदमी की भागीदारी उसकी सहमति परिलक्षित होती हुई साफ़ नज़र आये| बापू के ग्राम स्वराज में भी एक ऐसे ही समाज की परिकल्पना मिलती है जहां विकास का अर्थ सिर्फ भौतिकता से ही नहीं वरन एक ऐसे वातावरण से है जिसमें समाज के सभी लोग क्रमश: विकास करते हुए अपने जीवनस्तर, शैली और रोजगार आदि में स्वयं सक्षम हो सकें| सही मायनों में पंचायती राज प्रणाली की यही भूमिका थी परंतु शुरूआती दौर से इसका सिलसिलेवार अध्ययन करें तो पता चलता है कि आजादी के बाद देश की पंचायतों में स्व-राज की असली भूमिका निभाई ही नहीं गई या यूं कहें कि राजतंत्र की निरंकुशता और प्रशासनिक तंत्र की उदासीनता ने निभाने ही नहीं दी। आज़ादी के इतने वर्षों के बाद भी हम ज़मीनी स्तर पर यानि कि ग्रामसभा में अपने पैरों पर खड़े क्यों नहीं हो पाए हैं जब इन कारणों की छानबीन करने बैठो तो कई बातें उभरकर सामने आती हैं जिसमें प्रमुख रूप से जनसहभागिता का अभाव, जनस्वामित्व भाव का अभाव, योजना-परियोजनाओं में व्याप्त भ्रष्टाचार, योजना बनाने में स्थानीय लोगों की राय को अहमियत न देना, लेट-लतीफ अफसरशाही, राजनीतिक फायदा उठाने की मंशा और निहित स्वार्थ से प्रेरित प्रयास आदि अनेकों ऐसे कारण हैं जो आज भी जस की तस अवस्था में ग्राम सभा के सशक्तिकरण में सबसे बड़े बाधक के रूप में देश के सामने खड़े हैं तथा इनसे निपटना भी पंचायती राज के लिए एक बड़ी चुनौती है| जिसमें वो अभी तक तो विफल ही लगती है|
सन् 1992 में संसद ने संविधान के 73वें संशोधन द्वारा त्रिस्तरीय पंचायतीराज अधिनियम पास कर विकास की दौड़ में चिरकाल से उपेक्षित खड़े देश के सबसे अंतिम व्यक्ति की आँखों में आशा की एक नई किरण दिखाई जिसके अंतर्गत ग्रामीण क्षेत्रों से सम्बंधित 29 कार्य ग्राम पंचायतों को सौंपे गए ताकि वे अपनी स्थानीय परिस्थितियों के अनुरूप योजनाएं बनाकर सामाजिक न्याय को ध्यान में रखते हुए आर्थिक विकास के कार्य को सुचारू रूप से आगे बढ़ा सकें। अधिनियम में वर्षों के अनुभव के आधार पर पंचायतों में समाज के कमजोर दलित-पिछड़े वर्ग एवं महिलाओं की सहभागिता का भी विशेष प्रावधान किया गया और इन्हें स्थानीय स्वशासन की सशक्त एवं प्रभावी संस्था बनाने के लिए विशिष्ट व्यवस्थाएं की गई। जिसमें महिलाओं के लिए एक-तिहाई आरक्षण, जिसे अब बहुत से राज्यों में बढ़ाकर 50 प्रतिशत कर दिया गया है जिसकी शुरुआत सबसे पहले बिहार से हुई| इसके अतिरिक्त अनुसूचित जाति एवं जनजातियों के लिए उनकी जनसंख्या के अनुपात के हिसाब से आरक्षण, प्रत्येक पांच वर्ष पर अनिवार्य रूप से पंचायत चुनाव, राज्य स्तरीय चुनाव आयोग एवं वित्त आयोग आदि जैसे महत्वपूर्ण प्रावधान प्रमुख हैं| यह अधिनियम 24 अप्रैल 1993 को लागू हो गया। इसके बाद 74वां संविधान संशोधन प्रकाश में आया जिसमें शहरी क्षेत्रों के विकास के साथ-साथ जिला योजना समिति का भी प्रावधान किया गया था, जिसमें तय हुआ कि ये समितियां सम्पूर्ण जिले के ग्रामीण और शहरी क्षेत्रों के लिए एकीकृत विकास योजना का स्वरूप उसी प्रकार तय करेंगी जैसे पूरे देश के लिए योजना आयोग करता है। तदुपरांत सन् 1996 में पंचायतों का अनुसूचित क्षेत्रों तक विस्तार का अधिनियम बना, जिसमें स्थानीय आदिवासी पंचायतों को अपने प्राकृतिक संसाधनों पर विस्तृत अधिकार एवं उपयोग का प्रावधान बनाया गया। इन संशोधनों तथा तमाम प्रावधानों को सुनिश्चित किए जाने के बाद आज इतने वर्षों में जो अनुभव प्राप्त हुए हैं, वे उनकी मूल भावना के मुताबिक नहीं हैं। इसलिए ये कोई उत्साहजनक तस्वीर पेश नहीं करते हैं। इसका मुख्य कारण गैर जवाबदेही, खुलेपन की कमी और दायित्वों तथा परियोजना के प्रति दूरदर्शिता या समझदारी की कमी के साथ-साथ बड़े पैमाने पर राजनीति व प्रशासनिकतंत्र व्याप्त भ्रष्टाचार भी है| जो पहले भी पंचायती राज के लिए चुनौती के सामान थी,वो कमोवेश आज भी है|
भारत में पंचायती राज व्यवस्था का इतिहास ५००० वर्ष पुराना है| जिसका सबसे प्राचीन वर्णन रिग्र्वेद में मिलता है| जिसके अनुसार स्थानीय शासन के निर्णय आपसी सहयोग व चर्चा कर लिए जाते थे और यकीनन बात आज भी यही कही जाती है कि ग्राम सभा की ज़िम्मेदारी में सभी की भागीदारी हो| सभी मुद्दों पर एक आम सहमति बने जिसमें सभी की आवश्यकताएं व ज़रूरतें पूरी हों क्योंकि ग्रामसभा ही एक ऐसा मंच है जहां एक ऐसे वातावरण की कल्पना की जा सकती है जो सही अर्थों में प्रत्यक्ष व सहभागी लोकतंत्र सुनिश्चित कराता हो साथ ही हमेशा से उपेक्षा के शिकार रहे गरीबों व महिलाओं को भी ग्राम पंचायत के प्रस्तावों पर विचार करने,आलोचना करने,स्वीकारने-अस्वीकारने व इसके कार्यप्रदर्शन का आंकलन कर अपनी राय देने का भी सम्पूर्ण अधिकार मिलता है|
मगर ये तब तक पूर्ण रूप में संभव नहीं हो सकता जब तक हमारा प्रशासनिक तंत्र वातानुकूलित कमरों में बैठ कर फाईलों में ही अपने देश की गरीबी को घटाना बंद नहीं कर देता|हमारे राजनेताओं को भी इस बात पर विचार करना चाहिए कि फाईलों में ही देश की गरीबी को घटाने-बढाने से कुछ नहीं होने वाला…जनता सब समझती है| इसलिए हमें ये बात अब व्यापक पैमाने पर प्राथमिकता के साथ विचारनी है कि जब ग्रामीण स्तर पर आम आदमी इस बात को लेकर इतना सजग है कि हर छोटे-बड़े काम में उसका सहयोग-सलाह ली जाए तो आखिर क्या वजह है जो ग्रामसभाएं सशक्त नहीं हो पा रही हैं? उनमें व्याप्त भ्रष्टाचार जस की तस अवस्था में खडा है,किसी की कोई ज़वाबदेही नहीं दिखती है…. अभी ग्रामसभा स्तर पर ये हाल है और हम भारत को विश्वशक्ति की रूप में स्थापित करने का स्वप्न संजोये घूम रहें हैं जबकि हमें अब ये भली-भांति समझ लेना चाहिए भारत का सर्वागीण विकास तभी संभव है जब ग्रामसभाएं सशक्त होंगी..योजना बनाने वालों को चाहिए कि यदि वो भारत का पूर्ण विकास चाहते हैं तो ग्रामसभा की ओर भी पूरी ईमानदारी और एक दृढ निश्चयी इच्छा शक्ति के साथ विचार करें…वरना, इन दिनों समय वो है कि अब जनता खुद ज़मीन पर उतर कर अपने भाग्य का फैसला करने पर अमादा है| अन्ना हजारे के जन आन्दोलन से भी हमारे राजनेताओं व प्रशासनिक तंत्र को बहुत कुछ सीखने की ज़रुरत है उन्होंने पहले अपने गाँव को एक आदर्श गाँव बनाया फिर पूरे देश को एक आदर्श देश बनाने निकले| यही सीख हमारे सांसद-विधायक और बाकी चुने हुए जन प्रतिनिधि भी लें तो बहुत सी समस्याएं स्वत: ही हल हो जायेंगी
||ॐ साईं ॐ|| सबका मालिक एक है………
नारी ही किसी घर, समाज, गली.मोहल्ले,गाँव,शहर,प्रदेश और देश को स्वर्ग या नरक बनाती है………..
स्वर्ग:- घृत नया ,धान पुराने,घर कुलवंती नार,आँगन आँगन बालक खेले स्वर्ग निशानी चार |
नरक:- रूखे भोजन,कर्ज सर,घर कुलक्षनी नार, आवत का आदर नहीं ,नरक निशानी चार |
सरकारी व्यापार भ्रष्टाचार