इंसान और जानवर के बीच बढ़ता टकराव

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डॉ. आशीष वशिष्ठ

वन्य प्राणियों के गांवों एवं शहरों में प्रवेश, खेती-पालतू पशुओं को नुकसान पहुंचाने और मनुष्यों पर घातक हमला करने की घटनाएं देश भर में भी बढ़ रही हैं। वन क्षेत्रों के निकट के गांवों एवं कस्बों में ऐसी घटनाएं आए दिन हो रही हैं। वनों में रहने वाले बंदर जब-तब गांव और शहर में झुंड बनाकर हमले करने लगे हैं। इसी तरह बाघ, रीछ, नीलगाय, सियार, लकड़बग्गे और हिरण आदि पशु भी गांव पर धावा बोलने लगे हैं। मांसाहारी पशु तो बहुत बुरी हालत में हैं। वनों में वन्य प्राणियों की कमी के कारण मांसाहारी पशु अब गांव में लोगों के पालतू पशुओं को खाने लगे हैं। इसके लिए वे रात के समय धावा बोलते हैं। अगर पिछले एक दशक में जंगली जानवरों के हमलों में घायल और मृत लोगों और मवेषियों का आंकड़ा हजारों में होगा, वहीं इंसान और जानवर के टकराव से फसल, प्राकृतिक संसाधनों और दूसरे नुकसान का हिसाब-किताब करोड़ों में होगा।

 

उत्तर प्रदेश के पूरे तराई क्षेत्र का जंगल हो अथवा उत्तरांचल का वनक्षेत्र हो, उसमें से बाहर निकले बाध चारों तरफ अपना आतंक फैलाए हैं और बेकसूर ग्रामीण उनका निवाला बन रहे हैं। जंगली जानवरों और मानव के बीच संधर्ष क्यो बढ़ रहा है? और जंगली जानवर जंगल के बाहर निकलने के लिए क्यों बिवश हैं? इस विकट समस्या का समय रहते समाधान किया जाना आवश्यक है। उत्तर प्रदेश, उत्तराखण्ड की भांति छत्तीसगढ़, झारखण्ड, असम, राजस्थान और देश के दूसरे राज्यों में वनक्षेत्र के समीप बसे क्षेत्रों से जंगली जानवरों की घुसपैठ और हमले की खबरें आती रहती हैं। उत्तर प्रदेश के पूरे तराई क्षेत्र का जंगल हो अथवा उत्तरांचल का वनक्षेत्र हो, उसमें से बाहर निकले बाध चारों तरफ अपना आतंक फैलाए हैं और बेकसूर ग्रामीण उनका निवाला बन रहे हैं। इन दिनों सूबे की राजधानी लखनऊ की शहरी सीमा में एक बाघ के आमद ने वन विभाग और राजधानीवासियों की नींद हराम कर रखी है।

 

वन विशेषज्ञों के अनुसार मानवजनित अथवा प्राकृतिक परिस्थितियां मानव पर हमला करने को विवश करती हैं। जब कभी बाहुल्य क्षेत्रफल में जंगल थे तब मानव और वन्यजीव दोनों अपनी-अपनी सीमाओं में सुरक्षित रहे, समय बदला और आबादी बढ़ी फिर किया जाने लगा वनों का अंधाधुन्ध विनाश। जिसका परिणाम यह निकला कि जंगलों का दायरा सिमटने लगा, वन्यजीव बाहर भागे और उसके बाद शुरू हुआ न खत्म होने वाला मानव और वन्यपशुओं के बीच का संघर्ष। बाघ अथवा वन्यजीव जंगल से क्यों निकलते हैं इसके लिए प्राकृतिक एवं मानवजनित कई कारण हैं। इनमें छोटे-मोटे स्वार्थो के कारण न केवल जंगल काटे गए बल्कि जंगली जानवरों का भरपूर शिकार किया गया। आज भी नेशनल पार्क का आरक्षित वनक्षेत्र हो या संरक्षित जंगल हो उनमें लगातार अवैध शिकार जारी है। यही कारण है कि वन्यजीवों की तमाम प्रजातियां संकटापन्न होकर विलुप्त होने की कगार पर हैं। इस बात का अभी अंदेशा भर जताया जा सकता है कि इस इलाके में बाघों की संख्या बढ़ने पर उनके लिए भोजन का संकट आया हो। असामान्य व्यवहार आसपास के लोगों के लिए खतरे की घंटी हो सकता है। मगर इससे भी बड़ा खतरा इस बात का है कि कहीं मनुष्यों और जंगली जानवर के बीच अपने को जिन्दा रखने के लिए खाने की जद्दोजेहाद नए सिरे से किसी परिस्थितिकीय असंतुलन को न पैदा कर दे।

 

गौरतलब है कि जब तक भरपूर मात्रा में जंगल रहे तब तक वन्यजीव गांव या शहर की ओर रूख नहीं करते थे। लेकिन मनुष्य ने जब उनके ठिकानों पर हमला बोल दिया तो वे मजबूर होकर इधर-उधर भटकने को मजबूर हो गए हैं। इधर प्राकृतिक कारणों से जंगल के भीतर चारागाह भी सिमट गए अथवा वन विभाग के कर्मचारियों की निजस्वार्थपरता से हुए कुप्रबंधन के कारण चारागाह ऊंची घास के मैदानों में बदल गए। परिणाम स्वरूप वनस्पति आहारी वन्यजीव चारा की तलाश में जंगल के बाहर आते हैं तो अपनी भूख शांत करने के लिए वनराज बाघ भी उनके साथ पीछे-पीछे बाहर आकर आसान शिकार की प्रत्याशा में गन्ने के खेतों को अस्थाई शरणगाह बना लेते हैं। परिणाम सह अस्तित्व के बीच मानव तथा वन्यजीवों के बीच संघर्ष बढ़ जाता है।

 

जंगली जानवरों के हमले में मारे गए एंव घायल होने वालों का आंकड़ा समस्या की गंभीरता को प्रदर्षित करता है। झारखंड के वनबहुल इलाकों से लगी बस्तियों में रहने वाले लोग खासतौर पर हाथियों, भेड़ियों, लकड़बघ्घों जैसे वन्यजीवों से ज्यादा परेशान रहते हैं। सिर्फ हाथियों ने ही पिछले दस वर्षों के अंदर 745 लोगों को मौत की नींद सुला दिया। यदि खबरों पर विश्वास किया जाए तो पिछले दो दशकों के दौरान हाथियों ने केवल छत्तीसगढ़ में 120 से ज्यादा मनुष्यों की जान ली है। वर्ष 2001 से 2010 तक उत्तराखण्ड में जंगली जानवरों के हमलों में 303 लोगों की मौत और 718 लोग घायल हुए। संयुक्त बिहार के जमाने से मार्च 2010 तक हाथियों के हमले से मारे गए लोगों, घायलों, बर्बाद हुई फसलों, मवेशियों, घरों और अनाजों की क्षति पर सरकार ने मुआवजा के तौर पर 1546.86 लाख रुपये की अदायगी की थी। पिछले तीन सालों में यूपी के जिला खीरी एवं पीलीभीत के जंगलों से निकले बाघों के द्वारा खीरी, पीलीभीत, शाहजहांपुर, सीतापुर, बाराबंकी, लखनऊ, फैजाबाद तक दो दर्जन के आसपास मानव मारे जा चुके हैं। अगर उत्तर प्रदेश में जंगली जानवरों में हमले में मारे गये लोगों का आंकड़ा जोड़ा जाए तो वो तकरीबन दो सौ होगा।

 

दरअसल विकास के नाम पर जंगलों के कटने और अपने ठिकानों पर कब्जा होते देखकर जानवर शहरी क्षेत्रों की ओर पलायन कर रहे हैं। इसी आपाधापी में वे हिंसक भी होते जा रहे हैं। छत्तीसगढ़ के कोरबा क्षेत्र में कोयला उत्खनन और बिजली परियोजनाओं के कारण वन क्षेत्र उजाड़ हो चुके हैं। इन्हीं क्षेत्रों में हाथियों का निवास है। इसके अलावा उड़ीसा और झारखंड में भी वन उजड़ रहे हैं। वहां भी हाथियों के प्राकृतिक निवास संकट में हैं। इसलिए साल में कई बार इन प्रांतों से सुरक्षित निवास और भरपेट भोजन की तलाश में बड़ी संख्या में निकले हाथी छत्तीसगढ़ पर धावा बोल देते हैं। जिस रास्ते से हाथी गुजरते हैं, वहां हजारों एकड़ जमीन में खड़ी फसल चट कर जाते हैं और किसानों को तबाह कर देते हैं। जानकारी के अनुसार, 1990 से 2009 के दौरान एकीकृत सरगुजा जिले में हाथियों के हमलों में 116 लोग मारे गए और 46 घायल हुए। सरकार ने मृतकों के परिवारजनों को 90 लाख और घायलों को 94,000 रुपया बतौर मुआवजा वितरित किया। हाथियों द्वारा फसल और मकान उजाड़ने के 31600 मामलों में सरकार को 43 करोड़ रुपये का मुआवजा देना पड़ा। राजमार्गो के सटे जंगलों में भी जानवरों के स्वभाव में असामान्य बदलाव देखे गए हैं। विशेष तौर पर उत्तराखण्ड में ऋषिकेश-देहरादून रोड पर हाथी कई लोगों को शिकार बना चुके हैं। यहां या तो जानवरों ने मनुष्य को नुकसान पहुंचाया है या हाथी, गुलदार, बाघ, भालू जैसे जानवर लोगों का निशाना बने हैं। इस टकराहट ने वन विभाग समेत वन्यजीव विशेषज्ञों की चिंता भी बढ़ाई है।

 

समस्या लगातार गंभीर रूप धारण कर रही है और राज्य सरकारें केवल मुआवजा वितरित कर अपने कर्तव्य की इतिश्री मान लेती हैं, जबकि समस्या का हल केवल पर्यावरण एवं वन संरक्षण के जरिए ही संभव है। इसको रोकने के लिए अब जरूरी हो गया है कि वन्यजीवों के अवैध शिकार पर सख्ती से रोक लगाई जाये तथा चारागाहों को पुराना स्वरूप दिया जाए ताकि वन्यजीव चारे के लिए जंगल के बाहर न आयें। इसके अतिरिक्त वन्य प्राणियों को प्राकृतिक वासस्थलों में मानव की बढ़ती घुसपैठ को रोका जाये साथ ही ऐसे भी कारगर प्रयास किये जायें जिससे मानव एवं वन्यजीव एक दूसरे को प्रभावित किये बिना रह सकें। वन विभाग के पास साधनों एवं संसाधनों की कमी का भारी टोटा है,। लाल फीताशाही और कर्मचारियों की उदासनीता ने भी समस्या में इजाफा किया है। लबोलुबाब यह है कि हमने जानवरों का घर उजाड़ा है। उसकी सजा मानव बस्तियों पर जानवरों के हमले के रूप में मिल रही है। मानव को अब भी सावधान होकर जंगल में हस्तक्षेप से बाज आना चाहिए।’

2 COMMENTS

  1. डॉ. वशिष्ट जी ने बहुत महत्वपूर्ण मुद्दा उठाया है – सभी को जीने का हक़ -.

    वाकई स्तिथि बहुत खतरनाक हो गई है. सोचने बाली बात है की हमने लाखो बाघ मार दिए. एक बाघ करोडो आदमी में से एक इंसान मारता है तो हल्ला मच जाता है. आखिर इंसान ने जानवरों के आवास पर अतिक्रमण कर लिया है.

    क्या समस्या ख़त्म नहीं हो सकती है. हमे भी रोटी मिले और जानवरों को भी भोजन मिले. हमारी सिक्षा, सरकार में संवेदनशीलता ही कमी हो गई है. अंग्रेजी पाठ्यक्रम ने इंसानों को जंगलो और जानवरों से दूर कर दिया है.

    अरबो खरबों रूपए खर्च करके जंगलो को प्रतिबिबंधित करने की बजाय जंगलो को आम आदमी से जोड़ना होगा. जंगल का भ्रमण निशुक्ल (शर्तो के साथ) होना चाहिए. लोग जंगल और जानवर को समझेगे, प्यार करेंगे – शाकहार अपनाएंगे = जानवर कम मरेंगे.

    हम अभी भी नहीं संभले तो प्रकृति स्वयं को संतुलित कर लेगी, किन्तु परिणाम मनाव सभ्यता के लिए भयंकर होंगे. अभी भी समय है सरकार इमानदार से काम करे.
    जिए और जीने दे.

  2. आदमी जानवरों की सी हरकतें तो लगातार कर ही रहा है अब एक ही रास्ता है की वह जंगल में जाकर और बस जाये.

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