सपा में ‘गुंडाराज रिटर्न’ !

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mulayamसंजय सक्सेना

सियासत के जानकार समाजवादी पार्टी में मचे उठापटक के बाद यह बात दावे से कहने लगे हैं कि अगर समय रहते समाजवादी पार्टी के कर्णधारों की आंखे नहीं खुली तो 2017 के विधान सभा चुनाव में सपा का बोरिया-बिस्तर बनना तय है। सपा के भीतर जो ‘महाभारत’ मचा हुआ है,उसमें मुलायम धृतराष्ट्र,शिवपाल‘ दुर्योधन’ और सपा का युवा चेहरा अखिलेश ‘भीष्म’ की तरह असहाय नजर आ रहे हैं। बस फर्क इतना है कि महाभारत में भीष्म पितामाह अपने बच्चों के समाने लाचार नजर आ रहे तो ‘सियासी महाभारत’ में पुत्र अखिलेश की ऐसी ही स्थिति अपने बाप-चचाओं के समाने हैं। ऐसा लगता है कि मुलायम-शिवपाल अपने ही घर के ‘चिराग’ अखिलेश यादव और उनकी सरकार को ‘बुझा’ देने का कोई भी मौका नहीं छोड़ना चाहते है। इसी लिये अखिलेश से बिना विचार-विमर्श के एक के बाद एक अनाप-शनाप फैसले मुलायम-शिवपाल बंधु लिये जा रहे हैं। अपनों से ही इतने ‘जख्म’ खाने के बाद कोई कैसे सिर उठाकर चल सकता है। फिर अखिलेश की खता क्या थी।
सपा का युवा चेहरा अखिलेश यादव को 2012 के विधान सभा चुनाव के प्रचार के दौरान ‘मुलायम ब्रिगेड’ ने तब आगे किया था,जब उन्हें अच्छी तरह से यह समझ में आ गया था कि यूपी का मतदाता मुलायम राज के गुडाराज को भूलने को तैयार नहीं है। उसे डर सता रहा है कि अगर समाजवादी पार्टी को वोट दिया गया तो यूपी में फिर से गुंडाराज रिटर्न हो सकता है। कानून व्यवस्था को लेकर मुलायम सरकार की नाकामी और सत्तारूढ़ दल के बड़े नेताओं द्वारा गुडांे को संरक्षण दिये जाने के चलते जनता फिर से मुलायम को सत्ता सौंपने के बजाये बसपा राज के भ्रष्टाचार को भी अनदेखा करने को तैयार नजर आ रही थी। इस बात का मुलायम टीम को जैसे ही अहसास हुआ, उन्होंने अखिलेश को आगे करके हारी हुई बाजी जीतने की जुगत शुरू कर दी।
अखिलेश युवा थे। पढ़ाई लिखाई भी अच्छी की थी। युवा अखिलेश ने तुरंत मोर्चा संभाल लिया। उनके मोर्चा संभालते ही बोझिल-बोझिल नजर आ रहे समाजवादी नेताओं और कार्यकर्ता में नये जोश का संचार होने लगा। अखिलेश ने तमाम मंचों से जनता को यकीन दिलाया कि अगर वह सपा को वोट देंगे तो यूपी में ‘गुंडराज रिटर्न’ नहीं होगा। गुंडे सलाखों के पीछे रहेंगे। एक तरफ वह गुंडों को सलाखों के पीछे पहुंचाने की बात कर रहे थे तो दूसरी तरफ मायावती सरकार के भ्रष्टाचार को भी खुलकर उजागर कर रहे थे। अखिलेश ने सपा के पक्ष में माहौल बनाने के लिये एक तरफ रथ यात्रा निकाली तो दूसरी तरफ यह भी बताते जा रहे थे कि अगर उनको (सपा को) मौका दिया गया तो प्रदेश मे विकास की गंगा बहेगी। अखिलेश कमांडर की तरह सियासी मोर्चे पर आगे बढ़ते जा रहे थे तो सपा प्रमुख मुलायम सिंह यादव से लेकर सपा के तमाम छोटे-बड़े नेता उनके पीछे हाथ बांधे खड़े रहते। अखिलेश की जनसभाएं अपने क्षेत्र में कराने की मांग समाजवादी पार्टी के तमाम उम्मीदवारों की तरफ से आ रही थीं। मुलायम दूसरे पायदान पर थे, तो शिवपाल यादव सहित सपा के तमाम दिग्गज नेताओं की जनसभाएं अपने इलाके में कराने की मांग कोई नेता नहीं कर रहा था। यह कसक मुलयाम को छोड़ सपा के सभी दिग्गज नेताओं के चेहरे पर साफ देखी जा सकती थी,लेकिन सत्ता की भूख में सबने अपने मुंह पर ताला लगा रखा था। मगर सियासत के जानकारों की पारखी निगाहों को पता चल गया था कि सपा में मुलायम युग अस्तांचल की ओर हैं और अखिलेश युग शुरू होने जा रहा है। ’वृंदावन में रहना है तो राधे-राधे कहना है।’ की तरह ही समाजवादी पार्टी में भी सब लोग ‘अखिलेश-अखिलेश’ करने लगे थे।
बदलाव प्रकृति का नियम है यह बात सपा के कुछ बड़े नेताओं को स्वीकार्य नहीं हो रहा था। यह वह लोग थे जिनके कंधो पर चढ़कर अखिलेश यहां तक पहुंचे थे,लेकिन बदले माहौल में यही लोग अखिलेश के कंधे पर बैठकर अपने हित साधने का सपना देख रहे थे। इसमें पिता मुलायम सिंह, चचा शिवपाल यादव,रामगोपाल यादव,आजम खाॅ जैसे तमाम नेता शामिल थे। अखिलेश के सहारे पिता मुलायम 2014 में प्रधानमंत्री बनने का सपना देख रहे थे तो शिवपाल यादव को लग रहा था कि भले ही चुनाव प्रचार में भतीजा अखिलेश बाजी मार रहा हो,लेकिन उनके (शिवपाल) अनुभव के आगे भतीजा अखिलेश कहीं टिक ही नहीं सकता है। मुलायम सिंह पीएम बनने का ख्वाब पाले थे तो मुलायम की न के बाद शिवपाल यादव यूपी का मुख्यमंत्री बनने लायक नेताओें में अपने आप को सबसे काबिल समझने लगे थे।
एक तरफ अखिलेश प्रदेश की जनता से संवाद करके उन्हें सपा के पक्ष में करने में लगे थे तो दूसरी तरफ सपा के कई दिग्गज नेता चुनाव के बाद पैदा होने वाले हालात के मद्देनजर बेहद चालकी से पांसे फंेकते हुए अपने आप को सबसे बेहतर प्रोजेक्ट करने में लगे थे। चुनावी बेला में बाहुबली डीपी यादव को समाजवादी पार्टी में लाये जाने की कोशिश इसी कड़ी का एक हिस्सा था,जिसकी अखिलेश ने ठीक वैसे ही हवा निकाल दी थी, जैसे बाद में बाहुबली मुख्तार अंसारी और अतीक अहमद के साथ उन्होंने किया। इससे अच्छा संदेश गया था।
कुछ महीनों के भीतर ही अखिलेश ने चुनावी बेला में पिछड़ती नजर आ रही सपा के पक्ष में माहौल बना दिया था। नतीजों ने भी इस बात की गवाही दी। मार्च 2012 के विधान सभा चुनाव में 224 सीटें जीतकर मात्र 38 वर्ष की आयु में ही वे उत्तर प्रदेश के 33वें मुख्यमन्त्री बन गये। अखिलेश का मुख्यमंत्री बनाना शिवपाल यादव की सियासी मंशाओं के लिये किसी कुठाराघात से कम नहीं था,जो शिवपाल सीएम बनने का सपना देख रहे थे, उनके सामने भतीजे के नीचे ‘काम’ करने की मजबूरी आ गई। सत्ता चीज ऐसी है, जिसे कोई छोड़ना नहीं चाहता है। शिवपाल हों या फिर अखिलेश के अन्य चचा सब की सब भतीजे की सरकार में शामिल तो हो गये, लेकिन माथे पर शिकन साथ नजर आ रही थी। यह संकेत अखिलेश की भावी सियासत और सरकार के लिये अच्छे नहीं थे। इस बात का अहसास जल्द अखिलेश को हो भी गया जब उनकी सरकार बनने के छहः माह के भीतर ही जुलाई 2012 में समाजवादी पार्टी के अध्यक्ष मुलायम सिंह यादव ने उनके कार्य की आलोचना करते हुए व्यापक सुधार का सुझाव दिया,जिससे जनता में यह सन्देश गया कि सरकार तो उनके पिता और दोनों चाचा ही चला रहे हैं, अखिलेश नहीं। यह बात इस लिये पुख्ता भी हो रही थीं, क्योंकि अखिलेश बाप-चचाओं की ‘छाया’ से बाहर निकलते नजर ही नहीं आ रहे थे।
अखिलेश सरकार को दूसरा झटका तब लगा जब खनन माफियाओं के खिलाफ मोर्चा खोले एक आईएएस अधिकारी दुर्गा शक्ति नागपाल को उन्होंने बाप-चचाओं के दबाव में आकर निलम्बित कर दिया। इस पर चारों ओर से उनकी आलोचना हुई। जिसके परिणाम स्वरूप उन्हें नागपाल को बहाल करना पड़ा। 2013 के मुजफ्फरनगर दंगों में 43 व्यक्तियों के मारे जाने व 93 के घायल होने पर कर्फ्यू लगाना पड़ा तथा सेना ने आकर स्थिति पर काबू किया। मुस्लिम व हिन्दू जाटों के बीच हुए इस भयंकर दंगे से उनकी सरकार की बड़ी किरकिरी हुई। इस बीच अखिलेश ने अपने कई फैसलों पर ‘यूटर्न’ लेकर लोंगो को बातें बनाने के और मौके प्रदान कर दिये।
एक तरफ ‘अपनों’ की हठधर्मी के कारण जनता के बीच अखिलेश सरकार की किरकिरी हो रही थी,तो दूसरी तरफ पार्टी का शीर्ष नेतृत्व अखिलेश की अनुभवहीनता पर चटकारे ले रहा था। अखिलेश पर दबाव साफ नजर आ रहा था,लेकिन इस दौरान जनता के बीच उनकी छवि भी बनी थी। वह अनुभवहीनता और चचाओं की दखलंदाजी के बावजूद ईमानदारी से अपनी सरकार चला रहे थे। इसी बीच किसी तरह अखिलेश सरकार ने दो वर्ष का कार्यकाल पूरा किया और 2014 के लोकसभा चुनाव आ गये। पूरे देश का सियासी वातावरण मोदीमय हो गया। यूपी भी इससे अछूता नहीं बचा। 80 में से 73 सीटें भाजपा गठबंधन ने जीत ली। न राहुल गांधी का के्रज दिखा, न माया-मुलायम का जादू चला। सपा 05, कांगे्रस 02 सीट पर सिमट गई और बसपा का तो खाता ही नही खुला। राष्ट्रीय लोकदल जैसे तमाम दलों के उम्मीदवार तो अपनी जमानत भी नहीं बचा सके। सपा के तमाम दिग्गज और अनुभवी नेता परास्त हो गये,लेकिन इसका ठीकरा अखिलेश के सिर पर फोडा जाने लगा। यह बात हाल ही में तब और साफ हो गई जब मुलायम ने यहां तक कह दिया कि अगर उन्होंने शिवपाल की बात मानी होती तो 2014 में वह पीएम बन जाते। मुलायम के मुंह से यह बात निकलना थी और शिवपाल ने इस बात को पकड़ लिया। शिवपाल यादव को उन अमर सिंह का भी सहयोग मिल रहा था,जिन्हें अब अखिलेश ने अंकल मानने से ही इंकार कर दिया था। इसी लिये जब नेताजी ने अखिलेश से उत्तर प्रदेश समाजवादी पार्टी की अध्यक्षी छीन कर शिवपाल को सौंपी तो अमर सिंह ने अखिलेश को चिढ़ाने के लिये शिवपाल को प्रदेश अध्यक्ष बनाये जाने की खुशी में दिल्ली में एक शानदार दावत दे दी। इसके बाद जो कुछ हुआ वह तमाम अखबारों में काफी कुछ छप चुका है,जिसको दोहराया जाना शायद जरूरी नहीं है। अखिलेश का भ्रष्टाचार की आड़ में मुलायम और शिवपाल के चहेते नेताओं की मंत्रिपद से बर्खास्ती, दोंनों नेताओं के करीबी नौकरशाहों के पर कतरना,शिवपाल का मंत्री पद से इस्तीफा। शिवपाल द्वारा प्रदेश सपा की अध्यक्षी संभालते ही अखिलेश के करीबियों को पार्टी से बाहर का रास्ता दिखाना और अखिलेश के निकट के नेताओं का विधान सभा के लिये टिकट काटना। तमाम प्रकरण हैं। जिससे यह साबित किया जा सकता है कि मुलायम और शिवपाल अखिलेश के खिलाफ एकजुट हो गये हैं,लेकिन किसी को यह चिंता नहीं है कि इससे पार्टी का क्या होगा। अखिलेश की साफ-सुथरी छवि को बाप-चचाओं ने तार-तार कर दिया है।
लब्बोलुआब यह है कि समाजवादी पार्टी एक बार फिर उसी ढर्रे पर लौट रही है, जिससे डरकर 2012 में सपा के थिंक टैंक ने अखिलेश को आगे किया गया था। अब मुख्तार अंसारी के सपा से गठबंधन की चर्चा होती है। भ्रष्टाचार में सिर से लेकर पैर तक डूबे मंत्री गायत्री प्रजापति आदि नेताओं की सीएम के न चाहने के बाद भी मंत्रिमण्डल में वापसी हो जाती है। कवियत्री मधुमिता की हत्या के जुर्म में जेल की सलाखों के पीछे उम्र कैद की सजा काट रहे अमरमणि त्रिपाठी के उस बेटे को शिवपाल सपा का प्रत्याशी घोषित कर देंते हैं जिसके ऊपर पत्नी की हत्या का आरोप लगा है। अतीक अहमद जैसे बाहुबली एक बार फिर सपा में अपने लिये जमीन तलाशने लगते हैं। हालात यहां तक पहुंच जाते हैं कि परिवार का सियासी घमासान घर में भी दीवारें खड़ी कर देता है,लेकिन इस सब से अंजान सपा प्रमुख यही दोहराते रहते हैं कि जिस सपा को उन्होंने खून-पसीने से सींचा उसे वह ऐसे खत्म नहीं होने देंगे। उन्हें यही नहीं पता कि सपा में विभीषण कौन है ? जनता किसे पसंद और किसे नापसंद करती है ? इतना ही नहीं मुलायम स्वयं के बारे में भी आकलन नहीं कर पा रहे हैं कि अब उनमें वह बात नहीं रही है जिसके बल पर वह सियासत का रूख बदल दिया करते थे। आज तो वह सिर्फ ‘इस्तेमाल’ किये जा रहे हैं और इस्तेमाल करने वाले उनके अपने ही हैं,जिनके मोह में फंस कर वह धृतराष्ट्र जैसे हो गये हैं। जिन्हें कुछ दिखाई तो नहीं दे ही रहा है और सुनना वह(मुलायम) चाहते नहीं हैं। पूरे परिवार का एक ही दर्द हैं कि कुछ वर्षो के भीतर ही उनका बेटा-भतीजा इतना सशक्त कैसे हो गया कि बाप-चचा को आंख दिखाने लगा है। इस पूरे सियासी खेल में ‘त्रिकोण’ का बहुत महत्व देखने को मिल रहा है। जहां एक तरफ खुले मोर्चे पर मुलायम, शिवपाल और अखिलेश नजर आ रहे हैं,वहीं तीन महिलाओं की भूमिका भी पूरे खेल में ‘द्रौपदी’ जैसी मानी जा रही है। इसमें दो परिवार की और एक ब्यूरोके्रसी की वरिष्ठ महिला अधिकारी शामिल है। बात यहीं तक सीमित नहीं है जिस तरह से कुछ बाहुबलियों और हत्या के आरोपियों को सपा में विधान सभा का टिकट महिमामंडित किया जा रहा है,उसे देखते हुए तमाम लोग सपा में गुंडाराज रिटर्न की बात करने लगे हैं।

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संजय सक्‍सेना
मूल रूप से उत्तर प्रदेश के लखनऊ निवासी संजय कुमार सक्सेना ने पत्रकारिता में परास्नातक की डिग्री हासिल करने के बाद मिशन के रूप में पत्रकारिता की शुरूआत 1990 में लखनऊ से ही प्रकाशित हिन्दी समाचार पत्र 'नवजीवन' से की।यह सफर आगे बढ़ा तो 'दैनिक जागरण' बरेली और मुरादाबाद में बतौर उप-संपादक/रिपोर्टर अगले पड़ाव पर पहुंचा। इसके पश्चात एक बार फिर लेखक को अपनी जन्मस्थली लखनऊ से प्रकाशित समाचार पत्र 'स्वतंत्र चेतना' और 'राष्ट्रीय स्वरूप' में काम करने का मौका मिला। इस दौरान विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं जैसे दैनिक 'आज' 'पंजाब केसरी' 'मिलाप' 'सहारा समय' ' इंडिया न्यूज''नई सदी' 'प्रवक्ता' आदि में समय-समय पर राजनीतिक लेखों के अलावा क्राइम रिपोर्ट पर आधारित पत्रिकाओं 'सत्यकथा ' 'मनोहर कहानियां' 'महानगर कहानियां' में भी स्वतंत्र लेखन का कार्य करता रहा तो ई न्यूज पोर्टल 'प्रभासाक्षी' से जुड़ने का अवसर भी मिला।

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