गुरुपूर्णिमा (15 जुलाई) पर विशेष

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तस्मै श्री गुरवे नमः

भारतीय जीवन परम्परावादी है। हमारे ऋषि-मुनियों ने बहुत सोच विचार कर, ज्ञान, विज्ञान और समय की कसौटी पर सौ प्रतिशत कस कर कुछ परम्पराओं का निर्माण किया। इन्हीं के कारण हजारों सालों के विदेशी और विधर्मी आक्रमण के बाद भी भारत बचा हुआ है। ऐसी ही एक परम्परा है श्री गुरुपूर्णिमा उत्सव।

आषाढ़ मास की पूर्णिमा को मनाये जाने वाले इस पर्व को ‘व्यास पूर्णिमा’ भी कहते हैं। वेदों के संकलनकर्ता और सम्पादक तथा महाभारत के लेखक महर्षि व्यास का जन्म इसी दिन हुआ था। व्यास जी का महत्व इससे भी प्रकट होता है कि संपूर्ण विश्व के साहित्य को उनकी जूठन कहा जाता है (व्यासोच्छिष्टम् जगत्सर्वम्)।

इसका अर्थ स्पष्ट है कि व्यास जी ने अपने जीवन में इतना अधिक काम किया कि उनका नाम एक संस्था और पदवी ही बन गया। आज भी जब कोई कथा होती है, तो प्रवचनकार को कथा व्यास और उसके मंच को व्यासपीठ कहा जाता है। यह व्यास जी के महान कार्यों को आज तक दिया जाने वाला तुच्छ सम्मान ही है।

ऐसे श्रेष्ठ महापुरुष के जन्मदिवस को व्यास पूर्णिमा और आदि गुरु होने के कारण गुरु पूर्णिमा कहना स्वाभाविक ही है। प्राचीन काल में इसी दिन विद्यार्थी अपनी विद्या आरम्भ करते थे। उनके अभिभावक बच्चे को गुरु के पास ले जाकर उसे गुरु को सौंपते थे। गुरु भी बच्चे को अपनी संतान के समान प्रेम देने के आश्वासन के साथ स्वीकार करते थे। छोटी अवस्था में तो बच्चे अपने घर के निकटवर्ती विद्यालय में जाते थे; पर कुछ बड़े होने पर वे गुरुकुल में रहकर शिक्षा प्राप्त करते थे। इस प्रकार व्यास पूर्णिमा का पर्व हर गांव और मोहल्ले में विद्यारम्भ का एक बृहत् उत्सव बन जाता था।

शिक्षा का प्राचीन भारत में कितना महत्व था, इसे इसी से समझा जा सकता है कि गर्भाधान से लेकर अंत्येष्टि तक के 16 संस्कारों में ‘विद्यारम्भ’ को एक महत्वपूर्ण स्थान दिया गया। बच्चा किसी भी वर्ग, वर्ण या लिंग का हो, उसके लिए शिक्षा अनिवार्य और निःशुल्क थी। निर्धन बालक सुदामा और राजपरिवार के श्रीकृष्ण सांदीपनि गुरु के पास एक साथ पढ़ते थे। गुरुकुल में गुरु और गुरुपत्नी के सान्निध्य में सब बच्चे एक परिवार की तरह रहते थे। इस प्रकार मिले संस्कार जीवन भर अमिट रहना स्वाभाविक ही है।

एक बार और, तब शिक्षा का अर्थ केवल किताबी ज्ञान नहीं था। इसीलिए भाषा, राजनीति, भौतिकी, कला, चिकित्सा, रसायन विज्ञान, कूटनीति और तंत्र-मंत्र की शिक्षा के साथ ही लकड़ी काटने, खेती करने, गोपालन से लेकर रसोई तक के काम छात्र प्रसन्नता से करते थे। शिक्षा पूरी होने पर बच्चे के अभिभावक अपनी श्रद्धा और सामर्थ्य के अनुसार गुरु को जो भी देते थे, वे उसे प्रेम से स्वीकार करते थे। वह गांवों की जागीर से लेकर लौंग के दो दाने तक कुछ भी हो सकता था। साम्यवादी भले ही कितना ढिंढोरा पीटें; पर समता और समानता का ऐसा उदाहरण इतिहास में मिलना कठिन है।

यहां हमें शिक्षा और विद्या का अंतर भी समझना होगा। शिक्षा का अर्थ जहां व्यावहारिक जीवन के लिए उपयोगी ज्ञान है, वहां विद्या का अर्थ व्यावहारिक के साथ ही सामाजिक ज्ञान भी है। विद्या में वह सब संस्कार आते हैं, जिनसे व्यक्ति सामाजिक और राष्ट्रीय प्राणी बनता है। विद्या हर व्यक्ति को ‘मैं और मेरा’ से ऊपर उठकर ‘हम और हमारा’ की ओर जाने को प्रेरित करती है। इसीलिए कहा है सा विद्या या विमुक्तये। अर्थात विद्या व्यक्ति को उसके जीवन में व्याप्त दूषित पूर्वाग्रहों से मुक्त करती है। इसीलिए इस महत्वपूर्ण संस्कार का नाम विद्यारम्भ रखा गया, शिक्षारम्भ नहीं।

गुरु का भारतीय जीवन पद्धति में और भी अनेक कारणों से महत्व है। सबसे पहली बात तो यह कि न केवल शिक्षा अपितु समाज जीवन के हर क्षेत्र में गुरु की आवश्यकता बताई गयी है। मां अपने बच्चों की प्रथम गुरु कही जाती है। क्योंकि वही उन्हें चलना, बोलना और किस से क्या व्यवहार करना, यह बताती है। बालिकाओं को मां और बालकों को प्रायः पिता भावी जीवन के लिए तैयार करते हैं। इसलिए बच्चे का पहला विद्यालय उसका घर है, यह कहा जाता है।

इस घर के बाद किताबी ज्ञान के लिए बच्चा घर से कुछ दूर के विद्यालय में अध्यापक के निर्देशन में शिक्षा पाता है। भारतीय परम्परा में शिक्षा समाप्ति के बाद दीक्षा का भी बड़ा महत्व है। दीक्षा से ही शिक्षित युवा यह जान पाता है कि उसे शिक्षा का उपयोग किस दिशा में करना है। दीक्षा के अभाव में शिक्षा का कैसा दुरुपयोग होता है, इसके हर दिन सैकड़ों उदाहरण हम देखते हैं। बंदूक चलाने की शिक्षा के बाद यदि दीक्षा न हो, तो वह किसी निरपराध की हत्या करा देती है। जबकि सही दीक्षा हो, तो उससे देश की रक्षा की जा सकती है। इसलिए शिक्षा के बराबर ही दीक्षा का भी महत्व है।

केवल किताबी ज्ञान ही क्यों, गीत-संगीत, लेखन, सम्पादन से लेकर कपड़े सिलने और मिस्त्री बनने जैसे काम भी गुरु के निर्देशन में ही सीखे जा सकते हैं। आज भारत में जो भी ख्यातिप्राप्त कलाकार हैं, वे अपने गुरु का स्मरण कर धन्यता का अनुभव करते हैं।

सच तो यह है कि जीवन को कोई भी क्षेत्र हो, गुरु के सान्निध्य के बिना उद्धार संभव नहीं है। इसीलिए जब दशरथ के दरबार में विश्वामित्र राम और लक्ष्मण को मांगने आये, तो वे संकोच में पड़ गये। ऐसे में गुरु वशिष्ठ ने राजा को आश्वस्त किया, क्योंकि वे जानते थे कि राम का अवतार जिस काम के लिए हुआ है, उसके लिए उन्हें विश्वामित्र जैसे गुरु का सान्निध्य मिलना आवश्यक है।

कौरव और पांडवों के गुरु द्रोणाचार्य और कर्ण के गुरु परशुराम की कहानी कौन नहीं जानता ? शिवाजी के जीवन में परिवर्तन तब ही हुआ, जब उन्हें समर्थ स्वामी रामदास जैसा श्रेष्ठ गुरु मिला। विजयनगर साम्राज्य के निर्माता हरिहर और बुक्क के जीवन में स्वामी विद्यारण्य ने परिवर्तन किया। बन्दा बैरागी की जीवन को सही दिशा गुरु गोविंद सिंह ने दी।

रामकृष्ण परमहंस के कारण विवेकानंद का; विवेकानंद के कारण मार्गरेट नोबेल (भगिनी निवेदिता) का और स्वामी विरजानंद के कारण ऋषि दयानंद का जीवन बदल गया। भाई परमानंद, वीर सावरकर और श्यामजी कृष्ण वर्मा ने न जाने कितने युवकों के मन में क्रांति का बीज बोया। गुरु शिष्य के अन्तर्मन में छिपी प्रतिभा को पहचान कर उसे पल्लवित, पुष्पित और प्रस्फुटित होने का अवसर प्रदान करता है। वह शिष्य की कमियों को प्रेम से दूर करता है और फिर उसे अपने से भी आगे बढ़ता देखकर प्रसन्न होता है।

गुरु कुम्हार सिष कुंभ है, गढ़-गढ़ काढ़े खोट

अंदर हाथ सहार दे, बाहर मारे चोट।।

पश्चिमी चिंतन में गुरु का इतना महत्व नहीं है। वहां शिक्षक और छात्र तो हैं; पर गुरु और शिष्य नहीं। वहां शिक्षा तो है; पर विद्या और दीक्षा नहीं। शिक्षक अपने परिवार का पेट भरने के लिए पढ़ाता है और छात्र भी इसीलिए पढ़ता है कि वह भविष्य में परिवार पाल सके। इसी में से वेतन, ट्यूशन, नकल, नंबर बढ़ाने और हिंसक आंदोलन जैसी प्रवृत्तियां जन्मी हैं, जिन्होंने शिक्षा जगत का कबाड़ा कर दिया है। इसीलिए अब शिक्षक छात्रों से डरते हैं। विद्यालय नग्नता, गुंडागर्दी, दलाली और राजनीति के अड्डे बन गये हैं। यदि इस दृश्य को बदलना है, तो गुरु परम्परा को पुनर्जीवित करना होगा।

भारत जगद्गुरु है। एक समय उसने विश्व को दिशा देने का महत्वपूर्ण कार्य किया था; पर काल की गति ने उसकी दशा और दिशा बदल दी। अब वह हर जगह पिछलग्गू बना है। कभी ब्रिटेन का, तो कभी रूस का और अब अमरीका का। गुरुपूर्णिमा वह पावन पर्व है, जब हमें और हमारे देश दोनों को ही अपने इस कर्तव्य का स्मरण करना होगा; पर यह कर्तव्य भाषणों से नहीं, अपने चरित्र और व्यवहार से पूरा होगा। हमारे पूर्वजों ने हमें स्मरण भी कराया है –

एतद्देश प्रसूतस्य, सकाशादग्रजन्मनः

स्वं स्वं चरित्रन् शिक्षेरन, पृथिव्यः सर्वमानवः।। (मनुस्मृति)

गुरु की महिमा अपार है। इसका न वर्णन संभव है और न लेखन। यह शब्दातीत है। गुरु की वाणी ही नहीं, उसका स्पर्श और दृष्टि ही व्यक्ति के जीवन को बदलने के लिए पर्याप्त है।

सब धरती कागद करूं, लेखनी सब वनराय

सात समुद्र की मसि करूं, गुरु गुण लिखा न जाय।।

खालसा पंथ में तो श्री गुरु ग्रंथ साहिब को ही सर्वोच्च स्थान प्राप्त है। उसमें गुरु शब्द 8836 बार आया है। गुरु को साक्षात परमेश्वर मानते हुए कहा है –

गुर परमेसरु एको जाणु, जो तिस भावै सो परवाणु।। (864 म.5)

तथा

गुर गोविंद गोविंद गुर है नानक भेद न भाई।। (442 म.4)

इसीलिए जब वाणी मौन हो जाती है और मस्तिष्क विचार शून्य; तब यही कह कर संतोष करना पड़ता है –

गुरुर्ब्रह्मा गुरुर्विष्णु, गुरुर्देवो महेश्वरः

गुरुः साक्षात् परब्रह्म, तस्मै श्री गुरवे नमः।। स्कन्दपुराण (गुरु गीता)

गुरुपूर्णिमा का पर्व हमें यही याद दिलाने आया है।

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