घुटनाटेक नीतियों से बदहाल देश

राजनीतिक नेतृत्व की अक्षमता का शिकार हो रहे हैं सुरक्षाबल

-संजय द्विवेदी

पिछले दिनों ‘नक्सलवाद और लोकतंत्र ’ विषय पर एक व्याख्यान देने के लिए मैं बिहार की राजधानी पटना में था। इस आयोजन में ही बिहार विधानपरिषद के सभापति और विद्वान राजनेता ताराकांत झा ने मुझसे एक सवाल किया कि “आप बताएं कि कौन सा ऐसा एक मुद्दा या विषय है जिस पर पूरा देश एकमत है?” जाहिर तौर पर श्री झा के सवाल का मेरे पास कोई जवाब नहीं था। मैं इतना ही कह पाया कि माननीय सांसदों के वेतन-भत्तों के सवाल पर तो पूरी संसद एकमत है, पर श्री झा का सवाल इस तरह हवा में उड़ाने का नहीं है। यह देश का एक ऐसा प्रश्न है जिसके ठोस और वाजिब उत्तर की तलाश हमने आज न की तो कल बहुत देर हो जाएगी। सही मायने में यह एक ऐसा सवाल है जिसका उत्तर न हमारी राजनीति के पास है न हम भारत के लोगों के पास।

पिछले पांच सालों में जिस नक्सली आतंकवाद ने 11 हजार लोगों की जान ले ली है, उस पर भी हम विमर्श कर रहे हैं- कि यह गलत है या सही। बाढ़, आपदाओं और शहरी दंगों में सेना को बुला लेने वाली हमारी सरकारें देश के लोकतंत्र के खिलाफ धोषित युद्ध (नक्सलवाद) के समन के लिए सेना को बुलाने के खिलाफ हैं। जिस कश्मीर को घरती का स्वर्ग कहा जाता था उसे नरक में बदलने वालों के हाथ में हमारी सरकारें और उनकी नीतियां बंधक हैं। सेनाध्यक्षों के विरोध के बावजूद पाकिस्तान के झंडे और “गो इंडियंस” का बैनर लेकर प्रर्दशन करने वालों को खुश करने के लिए हमारी सरकार के बावजूद आर्म्ड फोर्सेस स्पेशल पावर्स एक्ट में बदलाव करने जा रही है। क्या हम एक ऐसे देश में रह रहे हैं जिसकी घटिया राजनीति ने हम भारत के लोगों को इतना लाचार और बेचारा बना दिया है कि हम वोट की राजनीति से आगे की न सोच पाएं। क्या हमारी सरकारों और वोट के लालची राजनीतिक दलों ने यह तय कर लिया है कि देश और उसकी जनता का कितना भी अपमान होता रहे, हमारे सुरक्षा बल रोज आतंकवादियों-नक्सलवादियों का गोलियां का शिकार होकर तिरंगें में लपेटे जाते रहें और हम उनकी लाशों को सलामी देते रहें-पर इससे उन्हें फर्क नहीं पड़ेगा। देश की महान राजनीति में सालों से जिस एक परिवार ने कुछ खास कारणों से जम्मू-कश्मीर में राज किया और आज भी कर रहे हैं, उनकी सुनिए वे कहते हैं अफजल गुरू को फांसी दी तो कश्मीर सुलग जाएगा। आज भी तो कश्मीर सुलग रहा है तो किसको फांसी दी गयी है। घाटी से जब कश्मीरी पंडितों को भागने के लिए मजबूर किया गया तब यह परिवार कहां था। आज उनकी सरकार है तो वे कश्मीरी पंडितों को वापस लाने की बात नहीं करते, अफजल गुरू की पैरवी में लगे हैं। हमारे सुरक्षा बल और सेना इस घटिया राजनीति की सबसे बड़ी शिकार है, वे जान हथेली पर लेकर कठिन परिस्थितियों में इस लोकतंत्र की जड़ों की खोखला करने वालों के खिलाफ लड़ रहे हैं और हमारी राजनीति उन्हीं देशद्रोहियों को अपनी गलत नीतियों से ताकत दे रही है। यह कितना गजब है कि सारे पड़ोसी देशों से हमारे रिश्ते खराब हैं पर उनके नागरिक बेरोक-टोक भारत में आ- जा सकते हैं। घुसपैठ पर हमारे महान देश के पास कोई नीति नहीं है और हमारे राजनीतिक दलों के कार्यकर्ता इस घुसपैठ को वैध करार देने के लिए इन घुसपैठियों की बस्तियां बसाने, मतदाता परिचय पत्र बनवाने, राशन कार्ड बनवाने में लगे हैं। क्योंकि इन सावन के अंधों को हर घुसपैठिया राष्ट्रीय सुरक्षा के लिए संकट कम, वोट बैंक ज्यादा दिखता है। असम और पश्चिम बंगाल के तमाम जिलों के हालात और देश के तमाम महानगरों के हालात इन्हीं ने बिगाड़ रखे हैं। किंतु भारत तो एक धर्मशाला है।

सेनाध्यक्षों के विरोध के बावजूद आर्म्ड फोर्सेस स्पेशल पावर्स एक्ट में बदलाव की गंदी राजनीति से हमारे सुरक्षाबलों के हाथ बंध जाएंगें। हमारी सरकार इस माध्यम से जो करने जा रही है वह देश की एकता-अखंडता को छिन्न-भिन्न करने की एक गहरी साजिश है। जिस देश की राजनीति के अफजल गुरू की फांसी की फाइलों को छूते हाथ कांपते हों वह न जाने किस दबाव में देश की सुरक्षा से समझौता करने जा रही है। यह बदलाव होगा हमारे जवानों की लाशों पर। इस बदलाव के तहत सीमा पर अथवा अन्य अशांत क्षेत्रों में डटी फौजें किसी को गिरफ्तार नहीं कर सकेंगीं। दंगों के हालात में उन पर गोली नहीं चला सकेंगीं। जी हां, फौजियों को जनता मारेगी, जैसा कि सोपोर में हम सबने देखा। घाटी में पाकिस्तानी मुद्रा चलाने की कोशिशें भी इसी देशतोड़क राजनीति का हिस्सा है। यह गंदा खेल,अपमान और आतंकवाद को इतना खुला संरक्षण देख कर कोई अगर चुप रह सकता है तो वह भारत की महान सरकार ही हो सकती है। आप कश्मीरी हिंदुओं को लौटाने की बात न करें, हां सेना को वापस बुला लें। आप बताएं अगर आज सेना भी घाटी से वापस लौटती है तो उस पूरे इलाके में भारत मां की जय बोलने वाला कौन है? क्या इस इलाके को लश्कर के अतिवादियों को सौंप दिया जाए या उस अब्दुल्ला खानदान को जो भारत के साथ खड़े रहने की सालों से कीमत वसूल रहा है। या उस मुफ्ती परिवार को जो आतंकवदियों की रिहाई के लिए भारत सरकार के गृहमंत्री रहते हुए अपनी बेटी के अपहरण का भी नाटक रच सकते हैं। आखिर हम भारत के लोग इस तरह की कायर जमातों पर भरोसा कैसे कर सकते हैं ? जो सेना शत्रु को न पकड़ सकती है, न उस पर गोली चला सकती है। उसे किस चिदंबरम और मनमोहन सिंह के भरोसे आतंकवादियों के बीच शहादत के लिए छोड़ दिया जाए,यह आज का यक्ष प्रश्न है। आर्म्ड फोर्सेस स्पेशल पावर्स एक्ट, संकटग्रस्त इलाकों में सेना को खास शक्तियों के इस्तेमाल के लिए बनाया गया था। अब सरकार कह रही है पिटो, सीने पर गोलियां खाओ पर चुप रहो क्योंकि तुम्हारी चुप्पी आतंकी संगठन, पाकिस्तान, मानवाधिकार संगठनों, अब्दुल्ला और मुफ्ती परिवार, कुछ राजनीतिक दलों के वोटबैंक के काम आती है। कश्मीर की आज की राज्य सरकार का दबाव सबसे ज्यादा है कि इस एक्ट को हटाया जाए। प्रधानमंत्री भी स्वीकृति दे चुके हैं। थल सेनाअध्यक्ष वीके सिंह ने इस प्रस्ताव का स्पष्ट रूप से विरोध किया है कि यह छिछली राजनीति से प्रभावित है।

आज जब भारत को आतंकवाद के खिलाफ कड़े संदेश देने का समय है तो वह अपनी महान सेना से ही कवच-कुंडल की मांग कर उसे निशस्त्र बना देना चाहता है। ऐसे में क्या कोई परिवार अपने बच्चों को सेना में भेजना चाहेगा। सेना में जाने वाला जवान अपनी जान हथेली पर लेकर देश के लिए लड़ने जाता है, मरने के लिए नहीं। हमारी सरकार के ताजा प्रावधान अगर लागू हो पाए तो वह सेना को सामान्य पुलिस की बराबरी पर ला खड़ा करेंगें। क्या हमें इसके खतरों का अंदाजा है। राजनीति की अपनी सीमित जगह है जबकि देश का सम्मान सबसे बड़ा है। अफसोस राजनीति पांच साल से आगे सोच नहीं पाती जबकि देश को सालों- साल जीना और आगे बढ़ना है। हमारी सेना के खिलाफ यह राजनीतिक षडयंत्र, भगवान करे सफल न हो। किंतु आतंकवादी शक्तियों और उनके शुभचिंतकों की राय पर अगर भारत सरकार फैसले लेगी तो यह देश टूट जाएगा। आज के नेतृत्व विहीन, कमजोर भारत में इतना आत्मविश्वास तो भरना ही होगा कि वह देश के हितों के खिलाफ फैसला लेने की हिम्मत न जुटा सके। यह देश रहेगा तो माननीयों की कुर्सियां रहेंगीं, उनका मान रहेगा पर जब देश ही न होगा तो वे क्या करेंगें। इस कठिन समय में याद आती है स्व. प्रधानमंत्री श्रीमती इंदिरा गांधी की, अगर वे होतीं क्या आतंकवादियों को ऐसी शह मिल पाती, अगर वे होती तो क्या दिल्ली की सरकार नक्सलवाद पर किंतु-परंतु की राजनीति कर पाती। यह दुर्भाग्य है कि देश की इतनी शक्तिमान नेता के दल के नेतृत्व में ऐसे निर्णय लिए जा रहे हैं जिससे पूरा देश अशांत है। देश की आर्थिक प्रगति को लेकर चमत्कृत दिल्ली की सरकार को यह भी सोचना चाहिए कि अगर देश की पहचान एक अशांत देश के रूप में स्थापित हो गयी तो दुनिया में हम क्या मुंह दिखाएंगें। हमारी सेना की भूमिका बहुत सीमित है उसे देश की सीमाओं की रक्षा करनी है। हमें संकटों से बचाना है। किंतु समस्याओं के समाधान के लिए राजनीतिक नेतृत्व का आत्मविश्वास और इच्छाशक्ति ही मायने रखती है। हमारी केंद्र सरकार की घुटनाटेक नीतियों से सिर्फ यही हो रहा है कि आतंकवादियों का मनोबल बढ़ रहा है और हमारे सुरक्षाबलों को आतंकी गोलियां अपना निशाना बना रही है। कश्मीर से लेकर पूर्वांचल के सात राज्यों समेत नक्सल प्रभावित सभी राज्यों की कहानी एक है जहां जवानों का, आम हिंदुस्तानी का खून बह रहा है। अब सवाल यह उठता है कि इतने हौलनाक और रक्तरंजित दृश्यों के बावजूद हमारी राजनीति, हमारे राजनेताओं और हमारी सरकारों का खून क्यों नहीं खौलता।

1 COMMENT

  1. हमेशा की तरह द्विवेदी जी बहुत कम शब्दों में बहुत कुछ कह रहे है. सभी इन्तजार कर रह है की कब शेर की निद्रा टूटेगी.

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