मोहनी हवा में हलाल देहात के हाट

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संजय स्वदेश

करीब बरस पहले जब देश की अर्थव्यवस्था बदहाल थी, तब उसे मजबूत करने के नाम पर तब के वित्तमंत्री मनमोहन सिंह ने देश के द्वार विदेशी बाजारों के लिए खोल दिए। तरह-तरह के सपनें दिखाकर जनता को विदेशी कंपनियों के लिए तैयार कर लिया गया। हालांकि उससे देश के विकास पर फर्क भी पड़ा। बाजार में पैसे का प्रवाह तेज हुआ, लोग समृद्ध भी हुए। पर इस प्रवाह में देश का पारंपरिक व मौलिक बाजार का वह ढांचा चरमरा गया, जिस कीमत में न केवल संतोष था, बल्कि सुख-चैन भी था। मनमोहन सिंह की मनमोहनी नीतियों के लागू होने से मिले कथित सुख समृद्धि के पीछे से चले आ रहे घातक परिदृश्य अब सामने आने लगे हैं।

बाजार के जानकार कहते हैं कि केवल कृषि उत्पादों और स्वास्थ्य सेवाओं पर करीब 54 लाख करोड़ रुपया हर साल बहकर देश से बाहर चला जाता है। यदि परंपरागत बाजार के ढांचे में इतने धन का प्रवाह देश में ही होता तो शायद उदारीकरण की समृद्धि के पीछे चली नाकरात्मक चीजें देश की मौलिक व पारंपरिक ढांचे को नहीं तोड़ती।

उदारीकरण की मनमोहनी हवा चलन से पहले गांव के बाजार पारंपरिक हाट की शक्ल में ही गुलजार होते थे। यही समय गांव के बाजार के गुलजार होने का उत्तराद्ध काल था। करीब दो दशक में ही आधुनिक बाजार के थपेड़ों में पारंपरिक गांव के बाजार में सजने वाले वे सभी उत्पाद गायब हो चुके हैं, जो कुटीर उद्योगों के माध्यम से ग्रामीण अर्थव्यवस्था की संरचना को मजबूत किए हुए थे। यहां एक उदाहरण गिनाने से बात नहीं बनेगी। 20 साल पहले जिन्होंने हाट का झरोखा देखा होगा, उनके मन मस्तिष्क में उन उत्पादों के रेखाचित्र सहज की उभर आएंगे। फिलहाल तब से अब तक देश करीब डेढ़ पीढ़ी आगे आ चुका है।

जरा गौर से देंखे। मन में मंथन करें। जिस गांव में शहर की हर सुविधा के कमोवेश पहुंचने के दंभ पर सफल विकास के दावे किए जा रहे हैं, उसका असली लाभ कौन ले रहा है। कहने और उदाहरण देने की जरूरत नहीं है कि उन फटेहाल ग्रामीण या किसानों की संख्या में कमी नहीं आई है जो आज भी जी तोड़ मेहनत मजदूरी और महंगी लागत के बाद आराम की रोटी खाने लायक मुनाफे से दूर हैं। पर शहर में अपने उत्पादों को बेचते-बेचते ऊब चुकी कॉरपोरेट कंपनियों ने गांवों में बाजार विकसित कर लिया। कॉरपोरेट व्यवस्था की नीति ही है कि वह किसी व जिस भी बाजार में जाए वहां पहले से जमे उसके जैसे उत्पादों के बाजार को किसी न किसी तरह से प्रभावित करें। इसमें सफलता का सबसे बेहतर तरीका है कि प्रतिस्पर्धी की मौलिक योग्यता नष्ट कर दी जाए। मतलब दूसरे की मौलिक उत्पादन की क्षमता की संरचना को ही खंडित करके बाजार में अपनी पैठ बना कर जेब में मोटा मुनाफा ठूसा जा सकता है।

विदेशी पूंजी के बयार से जब बाजार गुलजार हुआ तब लघु और मध्यम श्रेणी की औद्योगिक गतिविधियों में काफी हलचल हुई, उसके आंकड़ों को गिना कर सरकार ने समय-समय पर अपनी पीठ भी थपथपाई। आज उसी नीति की सरकार के आंकड़े जो हकीकत बयां कर रहे हैं, वे भविष्य के लिए सुखद नहीं कहे जा सकते। सरकार ने संसद में जो ताजा जानकारी दी है उसके मुताबिक 31 मार्च 2007 की स्थिति के मुताबिक देश में पांच लाख पंजीकृत उद्यमों को बंद किया गया। सबसे ज्यादा 82966 इकाइयां तमिलनाडु में बंद हुर्इं। इसके बाद 80616 इकाइयां उत्तर प्रदेश में, 47581 इकाइयां कर्नाटक में, 41856 इकाइयां महाराष्ट्र में, 36502 इकाइयां मध्य प्रदेश में और 34945 इकाइयां गुजरात में बंद करनी पड़ीं।

जो उद्यमी आर्थिक रूप से थोड़े मजबूत होते हैं और अपने उद्यम के दम पर भविष्य में बेहतर कमाई की संभावना देखते हैं, अमूमन वे ही पंजीयन कराते हैं। बंद होने के सरकारी आंकड़ों के आधार पर यह अनुमान लगाना कठिन नहीं होगा कि जब पंजीकृत उद्यमों को अकाल मौत आ गई, तब देश के परंपरागत कुटीर उद्योगों का क्या हश्र हुआ हो, वे कैसे दम तोड़े होंगे। उनसे जुड़े लाखों लोगों इससे टूटने के बाद कैसे जीवन जी रहे होंगे। इनकी संख्या का कितना अनुमान लगाएंगे, ये तो गैर पंजीकृत थे।

कॉरपोरेट के रूप में आई विदेशी

पूंजी का तेज प्रवाह ने ही कुटीर उद्योगों की मौलिक कार्यकुशलता की योग्यता को नष्ट कर दिया। गांवों में ही तैयार होने वाले पारंपरिक उत्पाद के ढांचे को तोड़ दिया। हसियां, हथौड़ा, कुदाल, फावड़े तक बनाने के धंधे कॉरपोरेट कंपनियों ने गांवों के कारीगरों से छीन लिए। इस पेशे से जुड़े कारीगर अब कहां है? कभी कभार बड़े शहर की शक्ल में बदलते अर्द्धविकसित शहर के किसी चौक-चौराहे पर ऐसे कारीगर परिवार के साथ फटेहाली में तंबू लगाए दिख सकते हैं। पर उन्हें हमेशा काम मिलता हो, ऐसी बात नहीं है। सब कुछ तो बाजार में है। यह तो एक उदहारण है। लकड़ी के कारिगरों के हाल देख लें। बड़े-बड़े धन्ना सेठों ने इसके कारोबार पर कब्जा कर लिया। इस परंपरागत पेशे जुड़े कारीगर अब उनके लिए मामूली रकम में रौदा घंसते हुए उनकी जेबें मोटी कर रहे हैं। हालांकि कंपनियों ने लकड़ी की उपयोगिता के ढेरों विकल्प दे दिए हैं। यह सब कुछ गांव तक पहुंच चुका है। शहर से लगे गांव के अस्तित्व तो कब के मिल चुके हैं। दूरवर्ती गांवों में तेजी से रियल इस्टेट का कारोबार सधे हुए कदमों से पांव पसार रहा है। शायद इसी दंभ पर स्टील कंपनियां निकट भविष्य में केवल ग्रामीण इलाके में अपने लिए 17 हजार करोड़ डॉलर का बाजार देख अपनी तिजोरी बढ़ाने के सपनें संजो रही हैं।

फिलहाल वर्तमान भारतीय ग्रामीण बाजार पर एक ताजे शोध रिपोर्ट में यह दावा किया गया है कि इसका दायरा करीब 500 अरब डॉलर तक का पहुंच गया है। इस दायरे की रफ्तार शहरी बाजार से भी तेज है। मतलब शहरों में जो खपत चाहिए, उस बाजार का दायरा अब नहीं बढ़ेगा, बस कंपनियों को उत्पादन की आपूर्ति में बनाये रखने भर की मशक्कत करनी है। हालांकि इसमें प्रतियोगिता भी है। लेकिन इस गलाकाट प्रतियोगिता में कोई स्वतंत्र रूप से मौलिक उत्पादन लेकर अपनी जगह बना सके, इसकी गुंजाइश कम बची है। देश के ग्रामीण इलाकों के व्यापक दायरे में तीस प्रतिशत की गति से दौड़ कर आते बाजार को आम लोग भले ही विकास के नाम पर स्वागत कर रहे हों, लेकिन इस गति से और दूर होती मौलिक उत्पाद की टूटती संरचना के पुर्नजीवन की बात हास्यास्पद हो जाएगी। इसके पक्ष में उम्मीद की कोई प्रखर किरण भी आएगी, इसकी अपेक्षा करना बेकार है, क्योंकि दो दशक के उदारीकरण के दौर ने एक ऐसी पीढ़ी बना दी है जो केवल इसी बाजार से उत्पन्न समाज में जी सकता है,उसके आगे की पीढ़ी भी इसी पीढ़ी का अनुसरण करेगी।

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संजय स्‍वदेश
बिहार के गोपालगंज में हथुआ के मूल निवासी। किरोड़ीमल कॉलेज से स्नातकोत्तर। केंद्रीय हिंदी संस्थान के दिल्ली केंद्र से पत्रकारिता एवं अनुवाद में डिप्लोमा। अध्ययन काल से ही स्वतंत्र लेखन के साथ कैरियर की शुरूआत। आकाशवाणी के रिसर्च केंद्र में स्वतंत्र कार्य। अमर उजाला में प्रशिक्षु पत्रकार। दिल्ली से प्रकाशित दैनिक महामेधा से नौकरी। सहारा समय, हिन्दुस्तान, नवभारत टाईम्स के साथ कार्यअनुभव। 2006 में दैनिक भास्कर नागपुर से जुड़े। इन दिनों नागपुर से सच भी और साहस के साथ एक आंदोलन, बौद्धिक आजादी का दावा करने वाले सामाचार पत्र दैनिक १८५७ के मुख्य संवाददाता की भूमिका निभाने के साथ स्थानीय जनअभियानों से जुड़ाव। विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं के साथ लेखन कार्य।

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