‘हाथ‘ से फिसल गई साठ साल की सत्ता

-नरेन्द्र देवांगन-
UPA Govt

बढ़ती महंगाई, एक के बाद एक घोटाले, मंत्रियों के दामन पर दाग और प्रधानमंत्री पर आरोप। दस साल के शासन के बाद एक बार फिर चुनाव के मैदान में उतरी कांग्रेस के लिए ये मुश्किलें ही कम नहीं थी। इन मुश्किलें से उबरकर जनता को लुभाने के लिए पार्टी ने रणनीति भी बनाई। मगर जो नतीजे सामने आए, उसकी किसी को उम्मीद नहीं थी। साठ साल देश की सत्ता में रहने वाली कांग्रेस का प्रदर्शन इतना खराब कभी नहीं रहा। यूं तो हर राज्य में कांग्रेस की हार के कई स्थानीय कारण मौजूद थे, मगर कुछ कारण ऐसे भी थे, जो देशव्यापी माने जा सकते हैं। इन कमियों का असर पूरे देश में कांग्रेस के अभियान पर पड़ा। अब इस जबरदस्त हार की जिम्मेदारी तय करने के साथ ही कारणों पर मंथन चल रहा है।

संप्रग-2 के कार्यकाल के अंतिम चरण में पहुंचने से पहले ही पार्टी में लड़खड़ाहट शुरू हो गई थी। मध्यम वर्ग और युवाओं का समर्थन पार्टी खोने लगी थी। राहुल गांधी युवा आबादी को अपनी ओर आकर्षित नहीं कर पा रहे थे। विवादों, झगड़ों पर न तो प्रधानमंत्री, न कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी और न ही पार्टी उपाध्यक्ष राहुल गांधी पांच वर्षों तक नियंत्रण कर पाए। कांग्रेस संगठन अपने खुद लाभ की खातिर चैन की नींद सोता रहा। विदेश नीति, आर्थिक प्रबंधन, जनहित के मुद्दे अथवा गठबंधन सहयोगियों एवं विपक्ष के साथ संबंधों को लेकर संगठन और सरकार में तारतम्यता नहीं रहा।
कांग्रेस के दस साल के शासन में लगातार भ्रष्टाचार के आरोप उछलते रहे। घोटालों पर घोटाले सामने आते रहे। यहां तक कि कोयला घोटाले में प्रधानमंत्री तक आंच पहुंचने लगी थी। 2-जी घोटाले और कॉमनवेल्थ खेलों में घपले के मामले में कांग्रेस ने मंत्रियों से इस्तीफे तो लिए, मगर ये जमानत पर छूटे तो दाग कांग्रेस के दामन पर ही लगा। इन आरोपों के साथ ही एक और बड़ा बोझ कांग्रेस के कंधों पर था लगातार बढ़ती महंगाई का। भ्रष्टाचार और महंगाई के मुद्दे पर जनता को स्पष्ट जवाब देने के बजाय कांग्रेस ने सरकार की उपलब्धियां गिनाना ज्यादा बेहतर समझा। सरकार के अंतिम दौर में संसद से खाद्य सुरक्षा बिल भी पारित करवाया गया। कांग्रेस इसे अपनी उपलब्धि बताती रही, मगर प्रतिपक्ष को ये आरोप लगाने का मौका मिल गया कि ये बिल पूरे देश के हित में नहीं, बल्कि वोट बैंक को ध्यान में रखकर पास करवाया गया है।

कांग्रेस के लिए उसके नेताओं का बड़बोलापन बहुत महंगा साबित हुआ। भाजपा और नरेंद्र मोदी पर व्यक्तिगत कटाक्षों का उल्टा ही असर हुआ। प्रचार अभियान की शुरूआत में ही मणिषंकर अय्यर ने मोदी को ‘चाय बेचने वाला‘ बताया तो मोदी ने इसे ही प्रचार का हथियार बना लिया। उन्होंने इसे अपने पक्ष में इस्तेमाल किया। अमेठी में प्रियंका ने मोदी को ‘नीच राजनीति करने वाला‘ बताया तो इसे भी भाजपा ने जातिसूचक टिप्पणी करार दिया। कांग्रेस को ही नुकसान हुआ। बड़बोले नेता दिग्विजय सिंह ने कई बार मोदी पर व्यक्तिगत हमले किए जिससे यही संदेश गया कि कांग्रेस के पास बहस के लिए मुद्दे नहीं हैं।

कांग्रेस पार्टी ने हर बार, हर जगह गलतियां की। कांग्रेस के चुनाव प्रचार अभियान में शुरू से ही ये स्पष्ट नहीं था कि चुनाव किसके नेतृत्व में लड़ा जा रहा है। पहले विज्ञापनों के केंद्र में राहुल गांधी रहे, मगर जब उनके बजाय सरकार की उपलब्धियों के विज्ञापन ज्यादा लोकप्रिय होने लगे तो प्रचार का फोकस सरकार की उपलब्धियों पर हो गया। हालांकि इसमें भी सरकार के मुखिया यानी प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह नदारद रहे। जब अमेठी में स्थिति बिगड़ने लगी तो प्रियंका को मैदान में उतरना पड़ा। सोनिया गांधी ने जैसे पूरे प्रचार अभियान से दूरी ही बनाए रखी। गांधी परिवार का फोकस अमेठी-रायबरेली तक ही सीमित रह गया।

भारतीय जनता पार्टी से तुलना में कांग्रेस के प्रचार की परिकल्पना कमजोर दिखी। पार्टी ने अपने विज्ञापनों और नारों में वह स्पष्टता नहीं दिखाई, जो भाजपा के प्रचार अभियान में दिखी। नारे कमजोर रहे और इनमें कोई स्पष्ट दिषा नहीं नजर आई। लोगों का मानना था कि कांग्रेस अपने गुण बताने की बजाय, भाजपा की खामियां बताने में ज्यादा व्यस्त रही। नतीजा ये रहा कि नकारात्मक लोकप्रियता के जरिए ही सही, पार्टी ने परोक्ष रूप से शजपा के प्रचार अभियान को ही फायदा पहुंचाया। ये रणनीति भाजपा के आक्रामक प्रचार अभियान के सामने नहीं टिक पाई। सोनिया ने राहुल पर आंख मूंदकर भरोसा किया जबकि हर बात इस बात का प्रमाण थी कि वो नए और उभरते हुए भारत के नेतृत्व की चुनौतियों से निबटने में सक्षम नहीं हैं, वे नदारद रहते हैं, संसद के अंदर और बाहर उनमें विजन की कमी है, पार्टी के नेताओं, सदस्यों, कार्यकर्ताओं और जनता के साथ वे जुड़ने में असमर्थ हैं। इन सब बातों ने पार्टी को जबरदस्त नुकसान पहुंचाया। ऐसे में आश्चर्य की कोई बात नहीं कि प्रियंका को बड़ी भूमिका सौंपने के स्वर लगातार तेज होते गए। कांग्रेस कार्यकर्ताओं का मानना है कि भाई की तुलना में प्रियंका में वो करिश्मा और कार्यकर्ता, मतदाता, जनता से जुड़ाव की काबिलियत ज्यादा है। लेकिन प्रियंका के अपने प्रयास भी सिर्फ रायबरेली और अमेठी तक ही सीमित रहे हैं जहां 2014 तक आसानी से जीत मिलती रही है। उनका काम सिर्फ जबरदस्त अंतर से जीत सुनिश्चित करना रहता है।

अनुभव हासिल करने के लिए मनमोहन सिंह की सरकार का हिस्सा बनने की बजाए राहुल यूपीए में ही विपक्ष के नेता की भूमिका निभा रहे थे। आपराधिक छवि वाले नेताओं को बचाने के लिए लाए गए अध्यादेष को पर्दे के पीछे से वापस लेने पर काम करने की बजाय पत्रकारों के सामने उसे फाड़कर फेंकते हुए उन्होंने प्रधानमंत्री, मंत्रिमंडल, समिति सदस्य और सहयोगियों का अपमान किया। इसके अलावा अलावा जनलोकपाल पर अन्ना हजारे के आंदोलन और दिल्ली रेप केस के बाद सड़कों पर उतरे मध्यम वर्ग और युवाओं के साथ वे सहानुभूति नहीं दिखा सके जिससे उनकी छवि आधे-अधूरे नेता की लगी जिसमें नेतृत्व क्षमता की कमी है। लोगों को उनकी ये छवि रास नहीं आई। पार्टी में कांग्रेस के नवीनीकरण के उनके प्रयोग काफी विवादास्पद रहे।

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