सुख की खोज में हमारी खुशी  कंहीं खो गई

ताजा ग्लोबल हैप्पीनैस इंडैक्स में 155 देशों की सूची में भारत 122 स्थान पर है । भारत जैसा देश जहाँ की आध्यात्मिक शक्ति के वशीभूत विश्व भर के लोग शांति की तलाश में खिंचे चले आते हैं , उस देश के लिए यह रिपोर्ट न सिर्फ चौकाने वाली है बल्कि अनेकों प्रश्नों की जनक भी है।
यह समय हम सभी के लिए आत्ममंथन का है कि सम्पूर्ण विश्व में जिस देश कि पहचान अपनी रंगीन संस्कृति और जिंदादिली के लिए है ,जिसके ज्ञान का नूर सारे जहाँ को रोशन करता था आज खुद इस कदर  बेनूर कैसे हो गया कि खुश रहना ही भूल गया?
आज हमारा देश विकास के पथ पर अग्रसर है, समाज के हर वर्ग का जीवन समृद्ध हो रहा है, स्वास्थ्य सेवाएं बेहतर हुई हैं, भौतिक सुविधाएं अपनी श्रेष्ठता पर हैं, मानव ने विज्ञान के दम पर अपने शारीरिक श्रम और कम्प्यूटर के दम पर अपने मानसिक श्रम को बहुत कम कर दिया है तो फिर ,ऐसा क्यों है  कि सुख की खोज में हमारी खुशी  खो गई? चैन की तलाश में मुस्कुराहट खो गई? क्यों हम समझ नहीं पाए कि यह आराम  हम खरीद  रहे हैं अपने सुकून की कीमत पर ।
अब सुबह सुबह पार्कों में लोगों के झुंड अपने हाथ ऊपर करके जोर जोर से जबरदस्ती हँसने की आवाजें निकालते अवश्य दिखाई देते हैं ठहाकों की   आवाज दूर तक सुनाई देती है लेकिन दिल से निकलने वाली वो हँसी जो आँखों से झाँककर होठों से निकलती थी, वो अब सुनाई नहीं देती।उसने शायद अपना रास्ता बदल लिया,आज हँसी दिमाग के आदेश से मुख से निकलती है और चेहरे की मांसपेशियों पर दिखाई तो देती है लेकिन महसूस नहीं होती।
आधुनिक जीवनशैली के परिणाम स्वरूप आज हमारा भोजन और हमारा जीवन दोनों एक समान हो गए हैं। हेल्दी डाइट के मद्देनजर जिस प्रकार आज हम क्रीम निकले दूध ( स्किम्ड मिल्क ) , जर्दी रहित अंडे, बिना घी के उबला खाना, कम शक्कर और कम नमक वाले भोजन का सेवन करने के लिए मजबूर हैं, वैसे  ही हम जीने के लिए भी मजबूर  हैं,  न हमारे जीवन में  नमक है न मिठास।
और वैसे ही हमारे रिश्ते भी हो गए हैं बिना प्रेम और परवाह (घी मक्खन) के, स्वार्थ से भरे सूखे और नीरस।
तरक्की की दौड़ में नई संभावनाओं की तलाश में  भावनाओं को  पीछे छोड़ आए और खुशी के भी मोहताज हो गए।
हम जीवन  जीने के लिए नहीं जी रहे बल्कि सुख सुविधाएँ और स्टेटस हासिल करने के लिए जी रहे हैं ।
दरअसल हम जीवन का उद्देश्य ही भूल गए हैं, इसे जीने से अधिक भोगना चाह रहे हैं  और इस मशीनी युग में हम भी कुछ कुछ मशीनी होते जा रहे  हैं ।
आधुनिक राजनीति विज्ञान की अवधारणा है कि समाज में जैसे जैसे समृद्धि और सम्पन्नता आती है वह खुशहाल होता जाता है। इसी प्रकार अर्थशास्त्र की मूल मान्यता यह है कि ” वेल्थ इज द सोर्स आफ हैपीनेस , द मोर यू हैव , द हैपीयर यू आर ” अर्थात खुशी का स्रोत धन है, जितना अधिक आपके पास धन है उतने अधिक आप खुश हैं।
लेकिन हम शायद सुखी होने और खुश होने का यह मामूली सा अन्तर नहीं समझ पाए कि सुख पैसे से खरीदा जा सकता है पर खुशी नहीं।
इसी प्रकार हम ‘वेल्थ’ और ‘मनी ‘ अर्थात् सम्पत्ति और पैसे के बीच के अन्तर को नहीं समझ पाए कि हमारा परिवार हमारे दोस्त हमारे बच्चे हमारा अच्छा स्वास्थ्य हमारा जीवन हमारी सम्पत्ति है और इस सम्पत्ति को हम धन से नहीं खरीद सकते।
अर्थशास्त्र के उपर्युक्त सिद्धांत के विपरीत  जो व्यक्ति धनी हो आवश्यक नहीं कि वह स्वस्थ भी हो, उसके पास शारीरिक सुख देने वाली  भौतिक सम्पत्ति तो हो सकती है  लेकिन ह्रदय और मन को सुख देने वाली वो असली सम्पत्ति भी हो, यह आवश्यक नहीं।
आज विश्व की सबसे प्रतिष्ठित पत्रिकाओं ( टाइम न्यूजवीक द इकोनोमिस्ट वगैरह ) में  इस विषय पर लगातार शोध हो रहे हैं । रिचर्ड लेयर्ड ने भी एक अध्ययन के बाद यह माना कि ” यह आवश्यक नहीं कि समाज की प्रसन्नता या खुशी का रिश्ता उसकी आय से हो ” ।”अर्थ” को भारतीय दर्शन में भी चार पुरुषार्थों में शामिल किया गया है, धर्म अर्थ काम और मोक्ष , वह इन चार पुरुषार्थों में से एक है लेकिन आज हम उसे एकमात्र पुरुषार्थ समझ बैठे हैं ।
काश कि हम समझ पाते कि एक व्यक्ति हवाई जहाज में बैठकर भी दुखी हो सकता है वहीं दूसरी तरफ एक व्यक्ति खेतों के बीच पगडंडी पर ताजी हवा के झोंकों के बीच साइकिल चलाता हुआ भी खुश हो सकता है।
काश कि हम समझ पाते कि जो खुशी बचपन में तितलियों के पीछे भागने में मिलती थी वो बड़े होकर पैसे के पीछे भागने में कभी नहीं मिलेगी क्योंकि जिस खुशी को हम बाहर ढूँढ रहे हैँ, आलीशान बंगलों महंगी कारों ब्रांडेड कपड़ों में नहीं
दरअसल वो हमारे भीतर ही है।
चूँकि खुशी का कोई भौतिक स्वरूप नहीं है, वो एक भाव है जो दिखाई नहीं देता तो वो इन भौतिक चीजों में  मिलती भी नहीं है। वह मिलती भी उन्हीं भावों में है जो दिखाई नहीं देते ।
हमारी संस्कृति ने हमें शुरु से यह ही सिखाया है कि खुशी त्याग में है,सेवा में है, प्रेम में है मित्रता में है, लेने में नहीं देने में है,  किसी रोते हुए को हँसाने में है, किसी भूखे को खाना खिलाने में है ।
जो खुशी दोस्तों के साथ गली के नुक्कड़ पर खड़े होकर बातें करने में है वो अकेले माल में फर्स्ट डे फर्स्ट शो देखने में भी नहीं है ।
काश कि हम समझ पाते कि मल्टी नैशनल कम्पनियों ने अपने प्रोडक्टस बेचने के लिए और अपने स्वार्थों की पूर्ति के लिए विज्ञापनों द्वारा हमारी संस्कृति हमारी सोच पर बहुत ही नियोजित तरीके से आक्रमण करके हमारे समाज में उपभोक्तावाद संस्कृति को बढ़ावा दिया , जो उनके उत्पाद खरीदे वो माडर्न और जो ना खरीदे वो पिछड़ा । और अगर आपके पास खरीदने के पैसे नहीं हैं तो उधार खरीदिये लेकिन आधुनिकता और उपभोक्तावाद की दौड़ में शामिल रहिए । फिर उस उधार को चुकाने के लिए पैसों के लिए दौड़ें। और आपका एक उधार चुकने से पहले नए फीचर्स के साथ मार्केट में नया प्रोडक्ट लाँच हो जाता है। अब भले ही आप खुद को इस रेस से बाहर रखें आपके बच्चे इस रेस में शामिल हो चुके होते हैं और बच्चों को हारना कभी पसंद नहीं आता तो नया माडल खरीदिए और , और तेज दौड़िए ।
तो यह तो हमें चुनना है कि हम कब तक दौड़ेंगे और कहाँ रुकेंगे।
हम अपनी जरूरतों को पूरा करने मात्र से खुशी का अनुभव कर सकते है लेकिन इच्छाओं का कोई अन्त नहीं होता।
इसलिए जरूरत इस बात को समझने की है कि जहाँ इच्छाओं और अपेक्षाओं का अन्त हो जाता है खुशी वहाँ से शुरू होती है ।
डॉ नीलम महेंद्र

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