सबके लिये जीने का सुख?

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yogललित गर्ग

खुशी एवं मुस्कान जीवन की एक सार्थक दिशा है। हर मनुष्य चाहता है कि वह सदा मुस्कुराता रहे और मुस्कुराहट ही उसकी पहचान हो। क्योंकि एक खूबसूरत चेहरे से मुस्कुराता चेहरा अधिक मायने रखता है, लेकिन इसके लिए आंतरिक खुशी जरूरी है। जीवन में जितनी खुशी का महत्व है, उतना ही यह महत्वपूर्ण है कि वह खुशी हम कहां से और कैसे हासिल करते हैं। खुश रहने की अनिवार्य शर्त यह है कि आप खुशियां बांटें। खुशियां बांटने से बढ़ती हैं और दुख बांटने से घटता हैं। यही वह दर्शन है जो हमें स्व से पर-कल्याण यानी परोपकारी बनने की ओर अग्रसर करता है। जीवन के चौराहे पर खड़े होकर यह सोचने को विवश करता है कि सबके लिये जीने का क्या सुख है?

मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है। वह सबके बीच रहता है, अतः समाज के प्रति उसके कुछ कर्तव्य भी होते हैं। सबसे बड़ा कर्तव्य है एक-दूसरे के सुख-दुःख में शामिल होना एवं यथाशक्ति सहायता करना। बड़े-बड़े संतों ने इसकी अलग-अलग प्रकार से व्याख्या की है। संत तो परोपकारी होते ही हैं। तुलसीदास ने श्रीरामचरितमानस में श्रीराम के मुख से वर्णित परोपकार के महत्व का उल्लेख किया है-

परहित सरिस धर्म नहिं भाई।

पर पीड़ा सम नहिं अधमाई॥

अर्थात् परोपकार के समान कोई धर्म नहीं है और दूसरों को पीड़ा पहुंचाने के समान कोई अधर्म नहीं। संसार में वे ही सुकृत मनुष्य हैं जो दूसरों के हित के लिए अपना सुख छोड़ देते हैं।

एक चीनी कहावत- पुष्प इकट्ठा करने वाले हाथ में कुछ सुगंध हमेशा रह जाती है। जो लोग दूसरों की जिंदगी रोशन करते हैं, उनकी जिंदगी खुद रोशन हो जाती है। हंसमुख, विनोदप्रिय, आशापूर्ण लोग प्रत्येक जगह अपना मार्ग बना ही लेते हैं। मनोवैज्ञानिक मानते हैं खुशी का कोई निश्चित मापदंड नहीं होता। एक मां बच्चे को स्नान कराने पर खुश होती है, छोटे बच्चे मिट्टी के घर बनाकर, उन्हें ढहाकर और पानी में कागज की नाव चलाकर खुश होते हैं। इसी तरह विद्यार्थी परीक्षा में अव्वल आने पर उत्साहित हो सकता है। सड़क पर पड़े सिसकते व्यक्ति को अस्पताल पहुंचाना हो या भूखें-प्यासे-बीमार की आहों को कम करना, अन्याय और शोषण से प्रताडि़त की सहायता करना हो या सर्दी से ठिठुरते व्यक्ति को कम्बल ओढ़ाना, किन्हीं को नेत्र ज्योति देने का सुख है या जीवन और मृत्यु से जूझ रहे व्यक्ति के लिये रक्तदान करना-ये जीवन के वे सुख हैं जो इंसान को भीतर तक खुशियों से सराबोर कर देते हैं।

ईसा, मोहम्मद साहब, गुरु नानकदेव, बुद्ध, महावीर, कबीर, गांधी, सुभाषचंद्र बोस, भगत सिंह, आचार्य तुलसी और हजारों-हजार महापुरुषों ने हमें जीवन में खुश, नेक एवं नीतिवान होने का संदेश दिया है। इनका समूचा जीवन मानवजाति को बेहतर अवस्था में पहुंचाने की कोशिश में गुजरा। इनमें से किसी की परिस्थितियां अनुकूल नहीं थी। हर किसी ने मुश्किलों से जूझकर उन्हें अपने अनुकूल बनाया और  जन-जन में खुशियां बांटी। ईसा ने अपने हत्यारों के लिए भी प्रभु से प्रार्थना की कि प्रभु इन्हें क्षमा करना, इन्हें नहीं पता कि ये क्या कर रहे हैं। ऐसा कर उन्होंने परार्थ-चेतना यानी परोपकार का संदेश दिया। बुद्ध ने शिष्य आनंद को ‘आधा गिलास पानी भरा है’ कहकर हर स्थिति में खुशी बटोरने का संदेश दिया। मोहम्मद साहब ने भेदभाव रहित मानव समाज का संदेश बांटा। मार्टिन लूथर किंग, जूनियर ने बहुत सटीक कहा है कि हमारे जीवन का उस दिन अंत होना शुरू हो जाता है जिस दिन हम उन विषयों के बारे में चुप रहना शुरू कर देते हैं जो मायने रखते हैं।

परोपकार को अपने जीवन में स्थान दीजिए, जरूरी नहीं है कि इसमें धन ही खर्च हो। बस मन को उदार बनाइए। आपके आसपास अनेकों लोग रहते हैं। हर व्यक्ति दुःख-सुख के चक्र में पफंसा हुआ है। आप उनके दुःख-सुख में सम्मिलित होइए। यथाशक्ति मदद कीजिए। इसीलिये हैनरी वार्ड बीचर का कहा भी उल्लेखनीय है कि इस दुनिया में जो कुछ हम अर्जित करते हैं, उससे नहीं अपितु जो कुछ त्याग करते हैं, उससे समृद्ध बनते हैं।

परोपकार एक महान कार्य है। सबसे बड़ा पुण्य है। पहले बड़े-बड़े दानी हुआ करते थे जो यथास्थान धर्मशालाएं बनवाते थे। ग्रीष्मकाल में प्यासे पथिकों के लए प्याऊं की व्यवस्था करते थे। यह व्यवस्था आज भी प्रचलित है। योग्य गुरुओं की देखरेख में पाठशालाएं खोली जाती थीं। जिनमें निःशुल्क शिक्षा दी जाती थी। लेकिन, अब सब व्यवसाय बन गया है, फिर भी परोपकारी कहां चुकते हैं?

जीवन केवल भोग-विलास एवं ऐश्वर्य के लिए ही नहीं है। यदि ऐसा है तो यह जीवन का अधःपतन है। आप अपनी सुख-सुविधाओं का ध्यान रखते हुए यदि परोपकार करेंगे तभी जीवन सार्थक होगा। अपनी आत्मा को पवित्र बनाकर निर्मल बुद्धि के द्वारा जन हिताय कार्य करना ही सफल एवं सार्थक जीवन है। इतिहास ऐसे महान् एवं परोपकारी महापुरुषों के उदाहरणोंं से समृद्ध है, जिन्होंने परोपकार के लिये अपने अस्तित्व एवं अस्मिता को दांव पर लगा दिया। देवासुर संग्राम में अस्त्र बनाने के लिए महर्षि दधीचि ने अपने शरीर की अस्थियों का दान कर दिया। जटायु ने सीता की रक्षा के लिए रावण से युद्ध करते हुए अपने प्राण की आहुति दे दी। पावन गंगा को धरती पर उतारने के लिए शिव ने पहले उसे अपनी जटाओं में धारण किया, फिर गंगा का वेग कम करते हुए उसे धरती की ओर प्रवाहित कर दिया। यदि वे गंगा के वेग को कम न करते तो संभव था कि धरती उस वेग को सहन न कर पाती और पृथ्वी के प्राणी एक महान लाभ से वंचित रह जाते। शिव तो समुद्र-मंथन से निकले हुए विष को अपने कंठ में धारण कर नीलकंठ बन गए। ये सब उदाहरण महान परोपकार के हैं। इन आदर्शों को सामने रखकर हम कुछ परहित कर्म तो कर ही सकते हैं। हमें बस इतनी शुद्ध बुद्धि तो अवश्य ही रखनी चाहिए कि केवल अपने लिए न जीएं। कुछ दूसरों के हित के लिए भी कदम उठाएं। क्योंकि परोपकार से मिलने वाली प्रसन्नता तो एक चंदन है, जो दूसरे के माथे पर लगाइए तो आपकी अंगुलियां अपने आप महक उठेगी। जार्ज बरनार्ड शा ने अपने कथन से जीवन को एक नई दिशा दी है कि कमाए बगैर धन का उपभोग करने की तरह ही खुशी दिए बगैर खुश रहने का अधिकार हमें नहीं है।

जो सच्चा परोपकारी होगा, वह अहंकारमुक्त होगा। आज समाज में धन और सत्ता का अहंकार अनेक समस्याओं को जन्म दे रहा है। अहंकार मुक्त सेवा एवं दान ही वास्तविक सेवा और दान है। एक संत की कठोर साधना एवं सेवाभावना से भगवान प्रसन्न हुए। उन्होंने संत के मन की थाह लेने के लिए अपने एक दूत को उनके पास भेजा। दूत ने संत से कहा, ‘परमात्मा आप पर प्रसन्न हैं। आप जो चाहें वरदान मांग सकते हैं। आपको आपकी साधना और सेवा का उचित फल मिलेगा।’ इस पर संत ने कहा, ‘आप बहुत देर से आए हैं। अब मेरे पास कोई इच्छा शेष नहीं रही। साधना एवं सेवा के दौरान मेरी समस्त आकांक्षाएं विसर्जित हो गईं। जब मैं कुछ चाहता था तो आपने पूछा ही नहीं अब जब मैं कुछ मांग नहीं सकता तो आप मांगने को कह रहे हैं।’ दूत ने संत को समझाया कि चाह न रखने के कारण ही वह पवित्र और वरदान के योग्य हो गए हंै। इच्छा मुक्त होने के कारण ही भक्त और भगवान के बीच की दीवार गिरी है, इसलिए वह मांगें अवश्य। दूत ने बार-बार आग्रह किया, पर संत ने उसकी एक न सुनी। दूत दुविधा में पड़ गया। फिर उसने हाथ जोड़कर विनती की, ‘यदि आप कुछ नहीं मांगेंगे तो देवता मुझसे रुष्ट हो जायेंगे। आप कृपा करके कुछ-न-कुछ स्वीकार अवश्य करें।’

आखिरकार संत ने उसका अनुरोध स्वीकार कर लिया। वह बोले, ‘ठीक है आप जो चाहें वरदान दे दें।’ दूत ने ईश्वर तक यह संदेश पहुंचाया कि संत वरदान लेने को तैयार हो गए हैं। फिर ईश्वर ने उन्हें वरदान दिया कि यदि वह किसी भी रोगी को छू देंगे तो वह स्वस्थ हो जाएगा। इसी प्रकार सूखा वृक्ष उनके स्पर्श से हरा-भरा हो जाएगा। वरदान सुनकर संत फिर सोच में पड़ गए। उन्होंने भगवान से कहा, ‘जब आपने इतनी कृपा की है तो इतना और कर दीजिए कि यह कार्य मेरे स्पर्श से नहीं, मेरी छाया पड़ने से ही हो जाए और मुझे इसका पता भी न चले। किसी सिद्धि का अहसास या अपने भीतर चमत्कारिक शक्ति का विश्वास मुझमें अहंकार उत्पन्न कर सकता है और तब आपका यह वरदान मेरे लिए अभिशाप बन जाएगा।’ आज समाज को ऐसे ही परोपकारी संतों एवं दधीचियों की जरूरत है।

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