मुश्किल खेल, आसान डोपिंग

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-डा0 आशीष वशिष्ठ

पदक जीतने की चाह खिलाड़ी को किस कदर दीवाना बना देती है इसका नजारा पिछले माह नर्इ दिल्ली में आयोजित हुए 57 वें राष्ट्रीय स्कूल खेलों के दौरान देखने को मिला। स्कूल स्तर की प्रतियोगिता में डोपिंग रोधी एजेंसी (नाडा) ने कुती, मुक्केबाजी और भारोतोलन के 11 खिलाडि़यों को प्रतिबंधित दवाइयों के सेवन का दोषी पाया। इस खबर से खेल संघ, कोच और खेल मंत्रालय सकते में आ गया है। अभी हाल ही में लखनऊ में आयोजित हुए जूनियर नेशनल पावरलिफ्टिंग चौंपियनशिप में भी डोपिंग की काली छाया दिखार्इ दी। वो अलग बात है कि अभी तक पावरलिफ्टिंग को भारतीय ओलंपिक एसोसिएशन से मान्यता नहीं मिली है, जिसके चलते खिलाडि़यों के रेंडम टेस्ट नहीं लिये जाते हैं लेकिन केडी सिंह बाबू स्टेडियम के वेटलिफ्टिंग हाल के पीछे सैंकड़ों की तादाद में पड़ी सिरींज इस ओर इशारा कर रही थी कि दाल में कुछ काला है।

अफसोसजनक और हैरानी कि बात है कि राष्ट्रीय स्कूल खेलों के दौरान डोपिंग जैसी गंभीर बीमारी शुरु हो गर्इ है। युवा खिलाड़ी शर्ट कट सफलता पाने को ललायित हैं और जिसके लिए वो खुद का व देश का नाम डुबोने पर तुले हुए हैं। पिछले कुछ सालों में देखा गया है कि आए दिन कोर्इ न कोर्इ भारतीय खिलाड़ी डोपिंग में फंस जाता है। 2010 में देश में आयोजित हुए कॉमनवेल्थ गेम्स में भी कर्इ भारतीय खिलाड़ी डोपिंग के दोषी पाये गये थे। खिलाडि़यों के इस कृत्य से सारे देश की गर्दन दुनिया के सामने झुक गर्इ थी।

डोप यानी वह शक्तिवर्द्धक पदार्थ जिसके जरिए खिलाड़ी अपनी मूल शारीरिक क्षमता में इजाफा कर मैदान पर प्रतिद्वंद्वियों को पीछे छोड़ने का शॉर्टकट अपनाते हैं। जाहिर है, यह तरीका खेल के मूल सिद्धांत के विपरीत है। लिहाजा, इसे दुनिया के खेल नियामकों ने अवैध ठहराया है। इसके दोषियों को दो साल से लेकर आजीवन प्रतिबंध तक की सजा का प्रावधान किया गया है। अब सवाल यह है आखिररकर ऐसी खबरें बार-बार क्यों आती हैं कि हमारे खिलाड़ी डोपिंग में पकड़े गये को भोला-भाला समझना भी उचित नहीं है। खिलाड़ी तो इतने भोले नहीं हैं कि उन्हें सही और गलत का पता नहीं चले। यह बड़ी शर्मनाक बात है कि जिस बदनाम डोपिंग मामले में पहले विदेशी खिलाडि़यों के नाम आते थे, उसमें अब हमारे खिलाड़ी भी फंसने लगे हैं। लेकिन अब पानी नाक से ऊपर आ चुका है और डोपिंग की बीमारी स्कूल स्तर के खिलाडि़यों को अपने जाल में फांस चुकी है।

आपको यह जानकर ताज्जुब होगा कि 1904 के ओलंपिक में ही अधिक ऊर्जा हासिल करने के लिए मैराथन धावक थॉमस हीक ने गलत तरीका अपनाया गया था। जैसे-जैसे दुनिया ने तरक्की की डोपिंग के तरीके भी बदलने लगे। शुरू में तो खिलाड़ी धूल झोंक देते थे मगर धीरे-धीरे खेलों का आयोजन करने वाली संस्थाओं ने भी अपनी कमर कस ली और अब खिलाडि़यों के लिए धूल झोंकना आसान नहीं रह गया है। इस सिलसिले में अब एंटी डोपिंग संस्थाओं ने बड़े सख्त कानून बनाए। कानून सख्त होने के बावजूद डोपिंग के मामले सामने आते रहते हैं। भारत में 1980 के लगभग प्रतिबंधित दवाओं के सेवन ने जोर पकड़ा था, जो तीन दशकों में स्कूल स्तर तक पहुंच चुका है। पिछले साल भारतीय एथलीट सिनी जोंस, जौना मुर्मू, टियाना मेरी थामस, अश्विनी अकुंजी और प्रियंका पवार डोपिंग की वजह से सुर्खियों में रहीं।

डोपिंग में फंसने वाले भारत के बड़े खिलाडि़यों की बात करें तो इनमें कुंजू रानी देवी, अपर्णा पोपट, मोनिका देवी, सीमा आंतिल और नीलम जे सिंह का नाम खास तौर पर लिया जा सकता है। बैडमिंटन खिलाड़ी अपर्णा पोपट को भी प्रतिबंधित दवा लेने का दोषी पाया गया था। ये दवार्इयां ऐसी होती हैं जिन्हें किसी प्रशिक्षित चिकित्सक के नुस्खे के बिना खाना खतरा मोल लेने जैसा है। ये जिम वाले भी जो हैल्थ पावडर एक्सरसार्इज करने वालों को थमा देते हैं इन में भी इन्हीं ऐनाबोलिक स्टीरायडस की मिलावट तो रहती ही है।

खिलाड़ी इनाम के चक्कर में भी इस गलत रास्ते पर चलते हैं। आजकल देखने में आ रहा है कि किसी टूर्नामेंट में बेहतर प्रदर्शन करने के बाद खिलाडि़यों पर हर ओर से इनाम की बारिश होने लगती है। ऐसे में हर खिलाड़ी चाहता है कि उसका प्रदर्शन अच्छा हो ताकि पैसे कमाए जा सकें। अच्छा प्रदर्शन करके खबरों में आ गये तो विज्ञापन मिलने का भी चांस रहता है और यदि विज्ञापन मिल गया तो और भी मोटी कमार्इ हो जाती है। यह सारा खेल पैसे और इनाम-इकराम का है।

पैसे की लालच में ही खिलाड़ी डोपिंग के चक्कर में फंसते हैं। अफसोस की बात यह है कि अब डोपिंग के मामले में भारत का नाम खूब उछलता है। पिछले कुछ सालों में तो इस सिलसिले में कर्इ बार भारत के खिलाडि़यों ने देश का नाम बदनाम किया। कभी पहलवानों ने सर नीचा करवाया तो कभी वेट लिफ्टरों ने बेइज्जती करार्इ, तो कभी महिला एथलीटों ने। कोच, खेल संघों से जुड़े अधिकारी और खुद खिलाड़ी जानते हैं कि इन शक्तिवर्द्धक दवाओं का उनके स्वास्थ्य पर बुरा प्रभाव पड़ता है। नपुंसकता से लेकर तमाम दूसरे रोग इन दवाओं की वजह से खिलाडि़यों को घेर लेते हैं। डोपिंग की वजह से खिलाडियों के अन्दर का खिलाडी मर जाता है व उसकी हैसियत एक नशेडी से ज्यादा कुछ नहीं रहती। इस प्रवृति से पूरे राष्ट्र का अपमान होता है। इससे लाखो लोगो की भावनाओ के साथ खिलवाड होता है। इससे खेलो में नैतिक पतन होता जा रहा है।

सरकार और जिम्मेदार अधिकारी चाहे जितना कहे कि वो डोपिंग डोपिंग को लेकर संजीदा है, लेकिन सच्चार्इ यही है कि उनके नाकारा अधिकारियों और गैर जिम्मेदार कोचों के चलते भारत को बार-बार शर्मसार होना पड़ता है. पिछले एक दशक में न जाने कितनी बार डोपिंग के दंश से भारतीय खेल जगत आहत हुआ है। सच तो यह है कि अधिकांश खिलाडि़यों को प्रतिबंधित दवाओं के बारे में पूरी जानकारी ही नहीं होती। खेल मंत्रालय और संबंधित बोर्ड इस दिशा में सख्त निर्देश दे और कानून बनाए जिसका सख्ती से पालन किया जाए वरना डोप की वजह से देश के खिलाडि़यों की विदेशों में काफी आलोचना होगी और इससे देश की छवि भी खराब होगी। वहीं खिलाडि़यों को भी कठोर परिश्रम द्वारा ओलिंपिक में स्वर्ण पदक का लक्ष्य लेकर अपने खेल करियर कि शुरुआत करनी चाहिए?

 

 

 

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