न्याय की कठिन राह

-राजेन्द्र बंधु-

aruna shanbag-विशेष आलेख: 42 वर्षोंं तक कोमा मेंं रहने वाली दुष्कर्म पीड़िता की मृत्यु के बाद उठे सवालों पर केन्द्रित आलेख

नृशंस यौन हमले की पीड़िता अरूणा शानबाग अब जिन्दगी के आजीवन कारावास से मुक्त हो चुकी है, जबकि अपराधी सिर्फ सात साल की सजा भुगतकर इस समाज का हिस्सा बना हुआ है। नईदिल्ली के केईएम अस्पताल मेंं कल अंतिम सांस लेने वाली अरूणा हमारी सामाजिक दशा और कानून व्यवस्था पर कई सवाल छोड़़ गई है।

नवंबर 1973 मेंं अरूणा के जीवन पर हुए भयावह हमले के बाद वह लगातार 42 वर्षोंं तक कौमा मेंं रही। जबकि उस पर यौन हमले के आरोपी सोहनलाल ने सात साल मेंं अपराध की सजा पूरी कर 1980 मेंं नए सिरे से जिन्दगी की शुरूआत कर दी। यानी पीड़ित को हुई तकलीफ की तुलना अपराधी की सजा इतनी कम थीं कि पीड़ित होना ही सबसे बड़ा गुनाह हो गया।

यह स्पष्ट है कि महिलाओं के विरूद्ध होने वालों अपराधों मेंं दुष्कर्म सबसे ज्यादा क्रूरतम अपराध है। यह सिर्फ महिलाओं के विरूद्ध ही नहीं, बल्कि समाज के विरूद्ध अपराध है और ऐसे अपराधी को कठोर से कठोर दण्ड मिलना चाहिए। किन्तु हकीकत यह है कि हमारा कानून महिलाओं पर अपराध को लेकर ज्यादा सक्रिय नहीं रहा। दिल्ली मेंं दो साल पहले हुए निर्भया कांड के बाद जरूर कानून मेंं कुछ तब्दीली लाई गई और दुष्कर्म से मृत्यु होने या हत्या करने पर फांसी की सजा को प्रावधान किया गया। किन्तु यह सोचना होगा कि कानून का क्रियान्वयन करने वाला तंत्र क्या इतना सजग हो पाया है कि वह पीड़ित को न्याय दिलवा सकेंॽ

दरअसल दुष्कर्म के बाद पीड़ित को दूसरा सबसे बड़ा दंश हमारे पुलिस थानों मेंं झेलना पड़ता हैं, जहां उसे अपनी एफ.आई.आर लिखवाने के लिए घंटों इंतजार करना पड़ता है। हाल ही मेंं मध्यप्रदेश के उज्जैन जिले मेंं दुष्कर्म की घटना के बाद पीड़ित को पुलिस थाने मेंं चार घंटे तक बैठना पड़ा। किन्तु इंतजार करवाने वाले पुलिस अधिकारियों को नोटिस तक नहीं दिया गया। महिलाओं के न्याय के मामले मेंं हम कितने संवेदनशील है, यह बात इससे पता चलती है कि दुष्कर्म की एफ.आई.आर. नहीं लिखने या पीड़िता को थाने मेंं इंतजार करवाने वाले एक भी पुलिसकर्मी व पुलिस अधिकारी को देश मेंं सजा नहीं हुई। जबकि पुलिस थाने मेंं दुष्कर्म पीड़िता के साथ कैसा व्यवहार होता है, जाहिर है।

यह देखा गया है कि अपराध के बाद अपराधी को कम और पीड़ित को ज्यादा परेशान होना पड़ता है। यह स्थिति अपराध को बढ़ावा देती है। राष्ट्रीय अपराध अनुंसधान ब्यूरों की रिपोर्ट के अनुसार वर्ष 2011 मेंं देश मेंं जहां दुष्कर्म की 24206 घटनाएं हुई, वहीं वर्ष 2012 में 24923 और वर्ष 2013 मेंं 33707 घटनाएं हुई। यानी देश मेंं साल दर साल दुष्कर्म की घटनाएं बढ़ती जा रही है।

दूसरी ओर यदि हम न्याय की बात करें तो यह मानना होगा कि दुष्कर्म के भयावह हमले के बाद 42 सालों तक कोमा मेंं रही अरूणा को न्याय मिला ही नहीं है। इस प्रकरण मेंं जहां आरोपी पर भारतीय दण्ड सहिंता की धारा 376 और 377 के तहत अपराध पंजीबद्ध होना था, वहीं उस पर लूट और जान से मरने की प्रयास की धारा 307 और 394 के तहत मुकदमा चलाया गया, जिसमेंं अपराधी मात्र सात साल मेंं ही सलाखों बाहर आ गया। यदि हम न्यायालयीन प्रक्रिया को देखें तो समय पर न्याय नहीं मिलने से पीड़ित का मनोबल कमजोर होता है और अपराधी के हौसले बढ़ते हैं। हमारी न्याय व्यवस्था मेंं आरोपियों को बचाने के लिए जिला स्तर के न्यायालय मेंं सैकड़ों या हजारों वकील उपलब्ध होते है, जबकि पीड़ित को न्याय दिलवाने के लिए एक जिला लोक अभियोजन तथा उसके दो-तीन सहयोगी ही होते हैं। यह सोचा जा सकता है कि लोक अभियोजकों की इतनी कम संख्या से क्या हम पीड़ित को न्याय दिलवाया जा सकता हैॽ आज देश की अदालतों मेंं कुल मिलाकर 3 करोड़ 13 लाख मामले लंबित हैं। इनमेंं से सर्वोच्च न्यायालय मेंं 63750 तथा प्रदेशों के उच्च न्यायालयों मेंं 44 लाख मामले लंबित है। जबकि निचली अदालतों मेंं 2 करोड़ 68 लाख मामले लंबित है। कुल लंबित मामलों मेंं करीब 30 प्रतिशत मामले 5 वर्षों से अधिक समय से लंबित है।

आज अरूणा जीवित नहीं है। किन्तु उनके जीवित नहीं रहने से हम उन्हें न्याय दिलवाने के दायित्व से मुक्त नहीं हो सकते है। यदि अरूणा को न्याय दिलवाना हो तो ऐसी व्यवस्था बनानी होगी, कि दुष्कर्म का एक भी अपराधी मात्र तकनीकी वजहों और कानूनी पेचिदगियों के कारण दोषमुक्त न हो। इस हेतु पुलिस व्यवस्था, लोक अभियोजन और न्याय व्यवस्था को चुस्त-दुरूस्त बनाने की जिम्मेंदारी सरकार की है।

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